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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२८
    1

    व्यन्तरि॑क्षमतिर॒न्मदे॒ सोम॑स्य रोच॒ना। इन्द्रो॒ यदभि॑नद्व॒लम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । अ॒न्तरि॑क्षम् । अ॒ति॒र॒त् । मदे॑ । सोम॑स्य । रो॒च॒ना ॥ इन्द्र॑: । अभि॑नत् । व॒लम् ॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यन्तरिक्षमतिरन्मदे सोमस्य रोचना। इन्द्रो यदभिनद्वलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । अन्तरिक्षम् । अतिरत् । मदे । सोमस्य । रोचना ॥ इन्द्र: । अभिनत् । वलम् ॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (सोमस्य) ऐश्वर्य के (मदे) आनन्द में (रोचना) प्रीति के साथ (अन्तरिक्षम्) आकाश को (वि अतिरत्) पार किया है, (यत्) जब कि उसने (वलम्) हिंसक [विघ्न] को (अभिनत्) तोड़ डाला ॥१॥

    भावार्थ

    सबसे महान् और पूजनीय परमेश्वर की उपासना से सब मनुष्य उन्नति करें ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१४।७-१० और आगे है-अ० २०।३९।२-। मन्त्र १, २ सामवेद में है-उ० ८।१। तृच ९ ॥ १−(वि) विविधम् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (अतिरत्) पारं कृतवान् (मदे) आनन्दे (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (रोचना) विभक्तेराकारः। रोचनया। प्रीत्या (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (यत्) यदा (अभिनत्) व्यदारयत् (वलम्) हिंसकं विघ्नम् ॥

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    विषय

    इन्द्रो यदभिनद् वलम्

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (सोमस्य मदे) = सोम के मद में-सोम-रक्षण से जनित उल्लास होने पर (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को (रोचना) = ज्ञानदीतियों के साथ (वि अतिरत) = बढ़ाता है। सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईधन बनता है। इस ज्ञानदीति से हृदयान्तरिक्ष चमक उठता है। २. यह सब होता तब है (यत्) = जबकि यह इन्द्र (वलम्) = ज्ञान पर आवरण के रूप में आ जानेवाली वासनाओं को (अभिनद्) = विदीर्ण कर डालता है। वासना-विदारण से ही ज्ञानाग्नि का प्रकाश होता है।

    भावार्थ

    हम जितेन्द्रिय बनकर वासनारूप आवरण को विनष्ट करें और हृदय को ज्ञान प्रकाश से दीस करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) परमेश्वर ने (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (वि अतिरत्) विशेषरूप में फैलाया है। और (रोचना) द्युलोक के चमकते सूर्य-नक्षत्र-तारागणों को विविधरूप में फैलाया है। तथा (सोमस्य मदे) भक्तिरस की प्रसन्नता में उसने (वलम्) उपासक के अज्ञानकारी आवरण को (अभिनत्) छिन्न-भिन्न कर दिया है। [आवरण=रजोगुण और तमोगुण।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    When Indra, lord omnipotent and blissful, eliminates all obstructions and negativities from our paths of progress, then we see the entire space in existence shines with light and overflows with the joy of soma bliss.

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    Translation

    Indrah, the air when scatters away the cloud that overcast sky spreads the splendid atmosphere in gladdening of vegitative energy.

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    Translation

    Indrah, the air when scatters away the cloud that overcast sky spreads the splendid atmosphere in gladdening of vegetative energy.

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    Translation

    When the Almighty God shatters the darkening cloud of the Primal matter (प्रकृति) in the very exhilaration of the creation of the universe, spreads the mid-regions with constellations.

    Footnote

    cf. Rig, 8.14 (7-10).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।१४।७-१० और आगे है-अ० २०।३९।२-। मन्त्र १, २ सामवेद में है-उ० ८।१। तृच ९ ॥ १−(वि) विविधम् (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (अतिरत्) पारं कृतवान् (मदे) आनन्दे (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (रोचना) विभक्तेराकारः। रोचनया। प्रीत्या (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमात्मा (यत्) यदा (अभिनत्) व्यदारयत् (वलम्) हिंसकं विघ्नम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পরমাত্মা] (সোমস্য) ঐশ্বর্যের (মদে) আনন্দে (রোচনা) প্রীতিপূর্বক (অন্তরিক্ষম্) আকাশকে (বি অতিরৎ) অতিক্রম করেছেন, (যৎ) যখন তিনি (বলম্) হিংসককে [বিঘ্ন]কে (অভিনৎ) বিদারিত করেছেন ॥১॥

    भावार्थ

    মহান ও পূজনীয় পরমেশ্বরের উপাসনা দ্বারা সকল মনুষ্য উন্নতি করে/করুক ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-৮।১৪।৭-১০ এবং আছে-অ০ ২০।৩৯।২-। মন্ত্র ১, ২ সামবেদে আথে-উ০ ৮।১। তৃচ ৯ ॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (অন্তরিক্ষম্) অন্তরিক্ষকে (বি অতিরৎ) বিশেষরূপে বিস্তারিত করেছেন। এবং (রোচনা) দ্যুলোকের প্রদীপ্ত/জাজ্বল্যমান সূর্য-নক্ষত্র-তারা-কে বিবিধরূপে বিস্তৃত করেছেন। তথা (সোমস্য মদে) ভক্তিরসের প্রসন্নতায় তিনি (বলম্) উপাসকের অজ্ঞানতার আবরণ (অভিনৎ) ছিন্ন-ভিন্ন করেছেন। [আবরণ=রজোগুণ এবং তমোগুণ।]

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