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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३१
    5

    ता व॒ज्रिणं॑ म॒न्दिनं॒ स्तोम्यं॒ मद॒ इन्द्रं॒ रथे॑ वहतो हर्यता॒ हरी॑। पु॒रूण्य॑स्मै॒ सव॑नानि॒ हर्य॑त॒ इन्द्रा॑य॒ सोमा॒ हर॑यो दधन्विरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । व॒ज्रिण॑म् । म॒न्दिन॑म् । स्तोम्य॑म् । मदे॑ । इन्द्र॑म् । रथे॑ । व॒ह॒त॒: । ह॒र्य॒ता । हरी॒ इति॑ ॥ पुरूणि॑ । अ॒स्मै॒ । सव॑नानि । हर्य॑ते । इन्द्रा॑य । सोमा॑: । हर॑य: । द॒ध॒न्वि॒रे॒ ॥३१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता वज्रिणं मन्दिनं स्तोम्यं मद इन्द्रं रथे वहतो हर्यता हरी। पुरूण्यस्मै सवनानि हर्यत इन्द्राय सोमा हरयो दधन्विरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता । वज्रिणम् । मन्दिनम् । स्तोम्यम् । मदे । इन्द्रम् । रथे । वहत: । हर्यता । हरी इति ॥ पुरूणि । अस्मै । सवनानि । हर्यते । इन्द्राय । सोमा: । हरय: । दधन्विरे ॥३१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पुरुषार्थ करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (ता) वे दोनों (हर्यता) प्यारे (हरी) दुःख हरनेवाले दोनों बल और पराक्रम (वज्रिणम्) वज्रधारी, (मन्दिनम्) आनन्दकारी, (स्तोम्यम्) स्तुतियोग्य (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] को, (मदे) सुख के लिये (रथे) रमण साधन जगत् में (वहतः) ले चलते हैं। (सोमाः) शान्त स्वभाववाले (हरयः) मनुष्यों ने (अस्मै) इस (हर्यते) प्यारे (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] के लिये (पुरूणि) बहुत से (सवनानि) ऐश्वर्य (दधन्विरे) प्राप्त किये हैं ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य धर्म के साथ बल और पराक्रम करके संसार को आनन्द देता है, सब लोग मान आदर करके उसका ऐश्वर्य बढ़ाते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।९६।६-१०॥१−(ता) तौ प्रसिद्धौ (वज्रिणम्) वज्रधारिणम् (मन्दिनम्) अ०२०।१७।४। मोदयितारम् (स्तोम्यम्) स्तुतियोग्यम् (मदे) आनन्दाय (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (रथे) रमणसाधने जगति (वहतः) प्रापयतः। गमयतः (हर्यता) हर्य कान्तौ-अतच्। हर्यतौ कमनीयौ (हरी) दुःखहर्तारौ बलपराक्रमौ (पुरूणि) बहूनि (अस्मै) (सवनानि) ऐश्वर्याणि (हर्यते) वर्तमाने पृषद्वृहन्महज्०। उ०२।८४। हर्य कान्तौ-अतिप्रत्ययः। कमनीयाय (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते पुरुषाय (सोमाः) शान्तस्वभावाः (हरयः) मनुष्याः (दधन्विरे) धवि गतौ-लिट्, आत्मनेपदम्। प्राप्तवन्तः ॥

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    विषय

    पुरूणि सवनानि हरयः सोमाः

    पदार्थ

    १.(ता) = वे (हर्यता) = कमनीय व गतिशील (हरी) = इन्द्रियाश्व (मदे) = सोम-रक्षण-जनित उल्लास के निमित्त (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (रथे) = शरीर-रथ में (वहत:) = धारण करते हैं। प्रभु-स्मरण से ही तो शरीर में सोम का रक्षण होगा। ये प्रभु (वज्रिणम्) = वासना-विनाश के लिए हाथों में वज को लिये हुए हैं। (मन्दिनम्) = आनन्दमय हैं व (स्तोम्यम्) = स्तुति के योग्य हैं। प्रभु का स्तवन होने पर वासना का विनाश होता है, सोम का रक्षण होता है और जीवन में आनन्द व उल्लास का अनुभव होता है। २. (अस्मै) = इस हर्यते व्याप्त व गतिशील (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्रासि के लिए (हरयः) = सब दुःखों को हरण करनेवाले (सोमाः) = सोमकण तथा पुरूणि सवनानि पालनात्मक यज्ञ (दधन्विरे) = धारण किये जाते हैं। प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि [क] सोमकणों का रक्षण किया जाए तथा [ख] उत्तम कर्मों में [यज्ञात्मक कर्मों में] अपने को व्याप्त रक्खा जाए।

    भावार्थ

    प्रभु-स्मरण द्वारा सोम-रक्षण के लिए हम यत्नशील हों। प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि सोमकों का रक्षण किया जाए तथा यज्ञात्मक कर्मों में हम प्रवृत्त रहें।

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    भाषार्थ

    (मदे) परमेश्वर के प्रसन्न हो जाने पर (ता हर्यता हरी) वे मनोहारी ऋग्वेदीय-स्तुतियाँ तथा सामगान, (वज्रिणम्) पापों के विनाश के लिए वज्रधारी, (मन्दिनम्) आनन्दमय, तथा (स्तोम्यम्) प्रशंसनीय (इन्द्रम्) परमेश्वर का (रथे) उपासक के शरीर-रथ में (वहतः) वहन करते हैं। हे उपासको! (अस्मै) इस परमेश्वर के लिए, (पुरूणि) भक्तिरस से पूरित (सवनानि) भक्ति-यज्ञों को (हर्यत) समर्पित करो। (इन्द्राय) परमेश्वर के लिए (हरयः) परमेश्वर को स्वाभिमुख करनेवाले (सोमाः) भक्तिरस (दधन्विरे) प्रवाहित हो रहे हैं।

    टिप्पणी

    [रथे=परमेश्वर, उपासक के शरीर-रथ का स्वामी बनकर, उपासक को प्रेरणाएँ देने लगता है। दधन्विरे=धवि गतौ।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Those adorable carriers, centrifugal and centripetal forces of divine nature, bear and sustain the power and presence of the thunder armed, joyous, adorable Indra in the divine blissful chariot, the universe of existence. For this Indra, blissful lord, many yajna sessions, soma oblations and beautiful gifts of homage are prepared and offered.

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    Translation

    These two dear Hari, the mind and organic structure (which aceept the objective world into them through cognition and affection) carry Indra, the soule which bear organ of speech (vajri), which enjoys the worldly happiness and which is praiseworthy in the body (Ratha) for its satisfaction. The men of genial temprament arrange many preparation for this soul which cherishes all hopes.

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    Translation

    These two dear Hari, the mind and organic structure (which accept the objective world into them through cognition and affection) carry Indra, the soule which bear organ of speech (vajri), which enjoys the worldly happiness and which is praiseworthy in the body (Ratha) for its satisfaction. The men of genial temperament arrange many preparation for this soul which cherilshes all hopes.

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    Translation

    Those two speedily-moving forces of attraction and repulsion propel the electric current, powerful like the thunderbolt, pleasant and praiseworthy, in this pleasant plane or car. Manifold are the generating powers for the refulgent electricity borne by the speedy-moving Somas—various kinds of liquid fuels.

    Footnote

    (1-2) To me it appears that the sukta depicts the uses of the two forces of attraction and repulsion, so powerful in nature as well as in the manufacturing processes of man.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।९६।६-१०॥१−(ता) तौ प्रसिद्धौ (वज्रिणम्) वज्रधारिणम् (मन्दिनम्) अ०२०।१७।४। मोदयितारम् (स्तोम्यम्) स्तुतियोग्यम् (मदे) आनन्दाय (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (रथे) रमणसाधने जगति (वहतः) प्रापयतः। गमयतः (हर्यता) हर्य कान्तौ-अतच्। हर्यतौ कमनीयौ (हरी) दुःखहर्तारौ बलपराक्रमौ (पुरूणि) बहूनि (अस्मै) (सवनानि) ऐश्वर्याणि (हर्यते) वर्तमाने पृषद्वृहन्महज्०। उ०२।८४। हर्य कान्तौ-अतिप्रत्ययः। कमनीयाय (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते पुरुषाय (सोमाः) शान्तस्वभावाः (हरयः) मनुष्याः (दधन्विरे) धवि गतौ-लिट्, आत्मनेपदम्। प्राप्तवन्तः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পুরুষার্থকরণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (তা) সেই দুজন (হর্যতা) প্রিয় (হরী) দুঃখ হরণকারী দুই, বল ও পরাক্রম (বজ্রিণম্) বজ্রধারী, (মন্দিনম্) আনন্দকারী, (স্তোম্যম্) স্তুতিযোগ্য (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পুরুষকে], (মদে) সুখের জন্য (রথে) রমণ সাধন জগতে (বহতঃ) নিয়ে চলে। (সোমাঃ) শান্তস্বভাবযুক্ত (হরয়ঃ) মনুষ্যগণ (অস্মৈ) এই (হর্যতে) প্রিয় (ইন্দ্রায়) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান পুরুষ] এর জন্য (পুরূণি) বহু (সবনানি) ঐশ্বর্য (দধন্বিরে) প্রাপ্ত করেছে ॥১॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য ধর্মের আচরণ সহিত বল ও পরাক্রম দ্বারা সংসারে আনন্দ দেয়, সকল মনুষ্য যেন আদর করে তাঁর ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করে ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১০।৯৬।৬-১০।

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    भाषार्थ

    (মদে) পরমেশ্বরের প্রসন্ন হলে (তা হর্যতা হরী) সেই মনোহারী ঋগ্বেদীয়-স্তুতি তথা সামগান, (বজ্রিণম্) পাপের বিনাশের জন্য বজ্রধারী, (মন্দিনম্) আনন্দময়, তথা (স্তোম্যম্) প্রশংসনীয় (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরের (রথে) উপাসকের শরীর-রথে (বহতঃ) বহন করে। হে উপাসকগণ! (অস্মৈ) এই পরমেশ্বরের জন্য, (পুরূণি) ভক্তিরস দ্বারা পূরিত (সবনানি) ভক্তি-যজ্ঞকে (হর্যত) সমর্পিত করো। (ইন্দ্রায়) পরমেশ্বরের জন্য (হরয়ঃ) পরমেশ্বরকে স্বাভিমুখকারী (সোমাঃ) ভক্তিরস (দধন্বিরে) প্রবাহিত হচ্ছে।

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