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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३२
    1

    आ रोद॑सी॒ हर्य॑माणो महि॒त्वा नव्यं॑नव्यं हर्यसि॒ मन्म॒ नु प्रि॒यम्। प्र प॒स्त्यमसुर हर्य॒तं गोरा॒विष्कृ॑धि॒ हर॑ये॒ सूर्या॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । रोद॑सी॒ इति॑ । हर्य॑माण: । म॒हि॒ऽत्वा । नव्य॑म्ऽनव्यम् । ह॒र्य॒सि॒ । मन्म॑ ।नु । प्रि॒यम् ॥ प्र । प॒स्त्य॑म् । अ॒सु॒र॒ । ह॒र्य॒तम् । गो: । आ॒वि: । कृ॒धि॒ । हर॑ये । सूर्या॑य ॥३२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रोदसी हर्यमाणो महित्वा नव्यंनव्यं हर्यसि मन्म नु प्रियम्। प्र पस्त्यमसुर हर्यतं गोराविष्कृधि हरये सूर्याय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । रोदसी इति । हर्यमाण: । महिऽत्वा । नव्यम्ऽनव्यम् । हर्यसि । मन्म ।नु । प्रियम् ॥ प्र । पस्त्यम् । असुर । हर्यतम् । गो: । आवि: । कृधि । हरये । सूर्याय ॥३२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे शूर !] (महित्वा) अपने महत्त्व से (रोदसी) आकाश और भूमि को (आ हर्यमाणः) प्राप्त कर लेता हुआ तू (नव्यंनव्यम्) नवे-नवे (प्रियम्) प्रिय (मन्म) ज्ञान को (नु) शीघ्र (हर्यसि) पाता है। (असुर) हे बुद्धिमान् ! (गोः) विद्या के (हर्यतम्) पाने योग्य (पस्त्यम्) घर को (हरये) दुःख हरनेवाले (सूर्याय) सूर्य [के समान प्रेरक विद्वान्] के लिये (प्र) अच्छे प्रकार (आविः कृधि) प्रकट कर ॥१॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिये कि पूर्ण विद्वान् होकर प्रकाश और भूमि के तत्त्वों को जानकर नवीन-नवीन विद्याओं का आविष्कार करे और विद्वान् आचार्य और ब्रह्मचारियों के लिये विद्यामन्दिर आदि स्थान बनावे ॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।९६।११-१३॥१−(आ) समन्तात् (रोदसी) अ०४।१।४। रुधेः-असुन् धस्य दः, ङीप्। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। सर्वभूतरोधयित्र्यौ द्यावापृथिव्यौ-निघ०३।३०। (हर्यमाणः) हर्य गतिकान्त्योः-शानच्। प्राप्नुवन् (महित्वा) महत्त्वेन (नव्यंनव्यम्) नवीनं नवीनम् (हर्यसि) प्राप्नोषि (मन्म) मन ज्ञाने-मनिन्। ज्ञानम् (नु) क्षिप्रम् (प्रियम्) हितकरम् (पस्त्यम्) अ०२०।३१।। गृहम् (असुर) असुरिति प्रज्ञानामास्यत्यनर्थान्-निरु०१०।३४। रो मत्वर्थीयः। हे प्रज्ञावन् (हर्यतम्) प्रापणीयम् (गोः) विद्यायाः (आविष्कृधि) प्रकटीकुरु (हरये) दुःखनाशकाय (सूर्याय) सूर्यवत् प्रेरकाय विदुषे ॥

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    विषय

    हरये-सूर्याय

    पदार्थ

    १.हे प्रभो! आप अपनी (महित्वा) = महिमा से (रोदसी) = इस द्यावापृथिवी में (आहर्यमाणः) = सर्वत्र व्याप्तिवाले हैं। सब पदार्थों में आपकी महिमा का दर्शन होता है। इन द्यावापृथिवी व लोक लोकान्तरों का निर्माण करके (नु) = अब (नव्यम्) = अत्यन्त स्तुत्य [नु स्तुतौ] (नव्यम्) = [नव गतौ]-कर्मों का उपदेश देनेवाले (मन्म) = ज्ञान को (हर्यसि) = आप प्राप्त कराते हैं। यह ज्ञान (प्रियम्) = प्रीति का जनक होता है-आनन्द देनेवाला है। २. हे असुर-ज्ञान देकर वासनाओं को विक्षिप्त करनेवाले प्रभो! [असु क्षेपणे] आप (हरये) = औरों के दुःख को हरनेवाले (सूर्याय) = निरन्तर गतिशील पुरुष के लिए (गो:) = इस वेदवाणी के (हर्यतम्) = कान्त-चाहने योग्य (पस्त्यम्) = गृह को (प्र आविष्कृधि) = प्रकर्षण आविष्कृत करते हैं। जो भी हरि व सूर्य बनता है वही इस वेदवाणीरूप गृह को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    प्रभु की महिमा सर्वत्र व्याप्त है। प्रभु लोक-लोकान्तरों का निर्माण करके हमारे लिए प्रशस्त ज्ञान प्राप्त कराते हैं। जो भी पुरुष 'हरि व सूर्य' बनते हैं, प्रभु उनके लिए वेदज्ञान का प्रकाश करते हैं।

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    भाषार्थ

    हे परमेश्वर! आप (रोदसी) द्युलोक और भूलोक को (महित्वा) निज महिमा द्वारा (आ) पूर्णतया (हर्यमाणः) कान्तिमय करते हुए (नव्यं नव्यम्) नई-नई (प्रियं मन्म) प्रिय स्तुतियों को (हर्यसि) चाहते हैं। (असुर) हे प्रज्ञा और प्राणों के दाता! (हरये) इन्द्रियों को विषयों से हरनेवाले (सूर्याय) आदित्य ब्रह्मचारी के लिए आप (गोः) वाणियों के (हर्यतम्) वाञ्छनीय (पस्त्यम्) गृह अर्थात् वेद को (प्र आविष्कृधि) प्रकृष्टरूप में आविष्कृत कीजिए।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर ने द्युलोक और भूलोक को पूर्णतया कान्ति-सम्पन्न किया है। इसलिए कवि लोग इस कान्ति से मोहित होकर नित्य नई-नई स्तुतिपरक रचनाएँ करते रहते हैं। मन्मभिः=मननीयैः स्तोत्रैः (निरु০ १०.१.५)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Lord of love and beauty, loved and loving all, you beautify and beatify the heaven and earth with new and newer favours, you love and create fresh and rising thoughts of admiration and adoration. O lord of vital energy and inspiration, pray open the homely state of earth and humanity to the illumination of the sun and light divine.

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    Translation

    O learned man, you with your great power comprehending the earth and heaven attain new and upto date knowledge. O intellectual one, please lay open the beautiful home of learning for the man of initiative (surya Harayu).

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    Translation

    O learned man, you with your great Power comprehending the earth and heaven attain new and upto date knowledge. O intellectual one, please lay open the beautiful home of learning for the man of initiative (surva Harayu).

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    Translation

    O Mighty Lord, Thou, thoroughly supporting the heavens and the earth by Thy might and grandeur, truly revealest new, new pleasant things for deep thinking and brooding over. O Controller of vital breaths, Thou bringest to light the beautiful source of Vedic lore for the brilliant learned scholar.

    Footnote

    cf. Rig, 10.96. (11-13).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।९६।११-१३॥१−(आ) समन्तात् (रोदसी) अ०४।१।४। रुधेः-असुन् धस्य दः, ङीप्। विभक्तेः पूर्वसवर्णदीर्घः। सर्वभूतरोधयित्र्यौ द्यावापृथिव्यौ-निघ०३।३०। (हर्यमाणः) हर्य गतिकान्त्योः-शानच्। प्राप्नुवन् (महित्वा) महत्त्वेन (नव्यंनव्यम्) नवीनं नवीनम् (हर्यसि) प्राप्नोषि (मन्म) मन ज्ञाने-मनिन्। ज्ञानम् (नु) क्षिप्रम् (प्रियम्) हितकरम् (पस्त्यम्) अ०२०।३१।। गृहम् (असुर) असुरिति प्रज्ञानामास्यत्यनर्थान्-निरु०१०।३४। रो मत्वर्थीयः। हे प्रज्ञावन् (हर्यतम्) प्रापणीयम् (गोः) विद्यायाः (आविष्कृधि) प्रकटीकुरु (हरये) दुःखनाशकाय (सूर्याय) सूर्यवत् प्रेरकाय विदुषे ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে বীর!] (মহিত্বা) নিজের মহত্ত্ব দ্বারা (রোদসী) আকাশ ও ভূমিকে (আ হর্যমাণঃ) প্রাপ্ত, তুমি (নব্যংনব্যম্) নবীন-নবীন (প্রিয়ম্) প্রিয় (মন্ম) জ্ঞান (নু) শীঘ্রই (হর্যসি) প্রাপ্ত করো। (অসুর) হে বুদ্ধিমান! (গোঃ) বিদ্যা (হর্যতম্) প্রাপ্তিযোগ্য (পস্ত্যম্) ঘরকে (হরয়ে) দুঃখ হরনকারী (সূর্যায়) সূর্যের [ন্যায় প্রেরক বিদ্বান্] এর জন্য (প্র) উত্তমরূপে (আবিঃ কৃধি) প্রকট করো॥১॥

    भावार्थ

    রাজার উচিত, পূর্ণ বিদ্বান হয়ে আলো ও ভূমির তত্ত্বসমূহ জেনে নবীন-নবীন বিদ্যার আবিষ্কার করা এবং বিদ্বান আচার্য ও ব্রহ্মচারীদের জন্য বিদ্যামন্দিরাদি স্থান তৈরী করা॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১০।৯৬।১১-১৩

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    भाषार्थ

    হে পরমেশ্বর! আপনি (রোদসী) দ্যুলোক এবং ভূলোককে (মহিত্বা) নিজ মহিমা দ্বারা (আ) পূর্ণরূপে (হর্যমাণঃ) কান্তিময় করে (নব্যং নব্যম্) নতুন-নতুন (প্রিয়ং মন্ম) প্রিয় স্তুতি (হর্যসি) কামনা করেন। (অসুর) হে প্রজ্ঞা এবং প্রাণদাতা! (হরয়ে) ইন্দ্রিয়-সমূহকে বিষয়-সমূহ থেকে হরণকারী (সূর্যায়) আদিত্য ব্রহ্মচারীর জন্য আপনি (গোঃ) বাণীর (হর্যতম্) বাঞ্ছনীয় (পস্ত্যম্) গৃহ অর্থাৎ বেদকে (প্র আবিষ্কৃধি) প্রকৃষ্টরূপে আবিষ্কৃত করুন।

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