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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अष्टकः देवता - हरिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३३
    3

    अ॒प्सु धू॒तस्य॑ हरिवः॒ पिबे॒ह नृभिः॑ सु॒तस्य॑ ज॒ठरं॑ पृणस्व। मि॑मि॒क्षुर्यमद्र॑य इन्द्र॒ तुभ्यं॒ तेभि॑र्वर्धस्व॒ मद॑मुक्थवाहः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्ऽसु । धू॒तस्य॑ । ह॒रि॒ऽव॒: । पिब॑ । इ॒ह । नृऽभि॑: । सु॒तस्य॑ । ज॒ठर॑म् । पृ॒ण॒स्व॒ ॥ मि॒मि॒क्षु: । यम् । अद्र॑य: । इ॒न्द्र॒ । तुभ्य॑म् । तेभि॑: । व॒र्ध॒स्व॒ । मद॑म् । उ॒क्थ॒ऽवा॒ह॒: ॥३३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सु धूतस्य हरिवः पिबेह नृभिः सुतस्य जठरं पृणस्व। मिमिक्षुर्यमद्रय इन्द्र तुभ्यं तेभिर्वर्धस्व मदमुक्थवाहः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्ऽसु । धूतस्य । हरिऽव: । पिब । इह । नृऽभि: । सुतस्य । जठरम् । पृणस्व ॥ मिमिक्षु: । यम् । अद्रय: । इन्द्र । तुभ्यम् । तेभि: । वर्धस्व । मदम् । उक्थऽवाह: ॥३३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (हरिवः) हे श्रेष्ठ मनुष्योंवाले ! (अप्सु) प्रजाओं के बीच (नृभिः) नरों [नेताओं] करके (धूतस्य) शोधे हुए (सुतस्य) निचोड़ [सिद्धान्त] का (इह) यहाँ पर (पिब) पान कर और (जठरम्) प्रसिद्ध हुए जगत् को (पृणस्व) सन्तुष्ट कर। (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (अद्रयः) मेघों [के समान उपकारी पुरुषों] ने (तुभ्यम्) तेरे लिये (यम्) जिस [आनन्द] को (मिमिक्षुः) सींचना चाहा है, (उक्थवाहः) हे वचनों पर चलनेवाले ! [सत्यवादी] (तेभिः) उन [पुरुषों] के साथ (मदम्) उस आनन्द को (वर्धस्व) तू बढ़ा ॥१॥

    भावार्थ

    जो राजा विद्वानों के संशोधित सिद्धान्तों को मानकर प्रजा को प्रसन्न रखता है, प्रजा भी उसे आनन्द देती है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।१०४।२-४॥१−(अप्सु) आपः, आप्ताः प्रजाः, दयानन्दभाष्ये-६।२७। प्रजासु (धूतस्य) धावु गतिशुद्धयोः-क्त। छान्दसं रूपम्। धौतस्य शोधितस्य (हरिवः) हे श्रेष्ठमनुष्ययुक्त (पिब) पानं कुरु (इह) अत्र (नृभिः) नेतृभिः सह (सुतस्य) अभिषुतस्य शोधितस्य सिद्धान्तस्य (जठरम्) अ०२०।२४।। प्रादुर्भूतं संसारम् (पृणस्व) तर्पय (मिमिक्षुः) मिह सेचने-सन्, लिट् मेढुं सेक्तुमैच्छन् (यम्) आनन्दम् (अद्रयः) अद्रिर्मेघनाम-निघ०१।१०। मेघसमानोपकारिणः पुरुषाः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (तुभ्यम्)। (तेभिः) तैः पुरुषैः (वर्धस्व) वर्धय (मदम्) आनन्दम् (उक्थवाहः) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ०४।२।७। उक्थ+वह प्रापणे-असि, णित्। हे उक्थेषु वचनेषु वहनशील। सत्यवादिन् ॥

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    विषय

    क्रियामय, उपासनावाला जीवन

    पदार्थ

    १. हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! इह इस हमारे जीवन-यज्ञ में (नभिः सतस्य) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले लोगों से सम्पादित तथा (अप्सु धुतस्य) = कर्मों में पवित्र किये गये इस सोम का (पिब) = पान कीजिए। कर्मों में लगे रहने पर वासनाओं का आक्रमण नहीं होता और इसप्रकार सोम शरीर में सुरक्षित रहता है। इस सोम के द्वारा (जठरे पृणस्व) = हमारे आभ्यन्तर को पूरित कीजिए। यह सोम शरीर में ही व्याप्त हो जाए। २. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (यम्) = जिस सोम को (अद्रयः) = उपासक लोग (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए (मिमिक्षः) = अपने जठरों में सिक्त करते हैं, (तेभि:) = उन सोमकणों के द्वारा (उक्थवाह:) = स्तोत्रों को धारण करनेवाले इस पुरुष के (मदम्) = हर्ष को (वर्धस्व) = बढ़ाइए। (सोम) = रक्षण द्वारा शक्ति व ज्ञान का वर्धन होकर नीरोगता व निर्मलता प्राप्त होती है और जीवन आनन्दमय बनता है।

    भावार्थ

    सोम-रक्षण के लिए आवश्यक है कि हम कर्मों में लगे रहें, उन्नति-पथ पर आगे बढ़ें। सोम-रक्षण द्वारा प्रभु की प्राप्ति तथा ज्ञानवृद्धि होकर आनन्द की वृद्धि होगी।

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    भाषार्थ

    (हरिवः) हे इन्द्रियाश्वों के, या ऋक्-साम की स्तुतियों के स्वामी! (अप्सु) जलों में (धूतस्य) धोकर निर्मल की गई वस्तु के सदृश पवित्र, अर्थात् रजस् और तमस् के मलों से रहित, (नृभिः) उपासक-नेताओं द्वारा (सुतस्य) निष्पादित भक्तिरस का, (इह) इस हमारे भक्तियज्ञ में (पिब) आप पान कीजिए। और (जठरम्) समग्र अन्तरिक्ष को सुखों से पूरित कर दीजिए। (अद्रयः) पर्वतों के सदृश उपासना-व्रतों में सुदृढ़ उपासकों ने (इन्द्र) हे परमेश्वर! (यम्) जिस भक्तिरस को (तुभ्यम्) आपके लिए (मिमिक्षुः) सींचा है, (तेभिः) उन भक्तिरसों को स्वीकार करके आप (उक्थवाहः) स्तुतियों के वाहक उपासकों की (मदम्) प्रसन्नता को (वर्धस्व) बढ़ाइए।

    टिप्पणी

    [जठरम्=‘अन्तरिक्षमुतोदरम्’ (अथर्व০ १०.७.३२), अन्तरिक्ष परमेश्वर का उदर है, जठर है। मिमिक्षुः=मिह सेचने?।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, Hariva, saviour from suffering and commander of nature’s forces, drink of the ecstatic soma created and seasoned in the joyous currents of our karma at heart in the soul by enlightened sages. Pray accept, protect and promote this soma of joy showered by clouds and seasoned by sages for you, and feel exalted with them all to your full satisfaction and ever increase the joy.

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    Translation

    O ruler, you are endowed with man powers (Harivah) You drink here the juice crushed by the men and pured the water and fill your belly. O receiver of praises! you enhance your satisfaction by these juices which the men of respect mixed for you.

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    Translation

    O ruler, you are endowed with man powers (Harivah) You drink here the juice crushed by the men and pured the water and fill your belly. O receiver of praises! you enhance your satisfaction by these juices which the men of respect mixed for you.

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    Translation

    O Mighty God, king, commander, soul or electricity, possessed of powers of evil or trouble-removing and peace-showering protect whatever has been generated amongst the subjects, waters or vital breaths and cherish and enjoy the fortunes produced by the people. Whatever wealth has been showered down by the clouds or mountains, may enhance Thy pleasuregiving blessings, according to the Vedic instructions.

    Footnote

    cf. Rig, 10. 104. (2-4).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।१०४।२-४॥१−(अप्सु) आपः, आप्ताः प्रजाः, दयानन्दभाष्ये-६।२७। प्रजासु (धूतस्य) धावु गतिशुद्धयोः-क्त। छान्दसं रूपम्। धौतस्य शोधितस्य (हरिवः) हे श्रेष्ठमनुष्ययुक्त (पिब) पानं कुरु (इह) अत्र (नृभिः) नेतृभिः सह (सुतस्य) अभिषुतस्य शोधितस्य सिद्धान्तस्य (जठरम्) अ०२०।२४।। प्रादुर्भूतं संसारम् (पृणस्व) तर्पय (मिमिक्षुः) मिह सेचने-सन्, लिट् मेढुं सेक्तुमैच्छन् (यम्) आनन्दम् (अद्रयः) अद्रिर्मेघनाम-निघ०१।१०। मेघसमानोपकारिणः पुरुषाः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् राजन् (तुभ्यम्)। (तेभिः) तैः पुरुषैः (वर्धस्व) वर्धय (मदम्) आनन्दम् (उक्थवाहः) गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। उ०४।२।७। उक्थ+वह प्रापणे-असि, णित्। हे उक्थेषु वचनेषु वहनशील। सत्यवादिन् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (হরিবঃ) হে শ্রেষ্ঠ মনুষ্যযুক্ত ! (অপ্সু) প্রজাদের মধ্যে (নৃভিঃ) নর [নেতাদের] দ্বারা (ধূতস্য) শোধিত (সুতস্য) অভিষিক্ত [সিদ্ধান্তের] (ইহ) এখানে (পিব) পান করো (জঠরম্) প্রসিদ্ধ জগৎকে (পৃণস্ব) সন্তুষ্ট করো। (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম ঐশ্বর্যবান পুরুষ] (অদ্রয়ঃ) মেঘেরা [ন্যায় উপকারী পুরুষগণ] (তুভ্যম্) তোমার জন্য (যম্) যে [আনন্দ] (মিমিক্ষুঃ) সিঞ্চন করতে চেয়েছে, (উক্থবাহঃ) হে বচন বহনশীল/বহনকারী ! [সত্যবাদী] (তেভিঃ) সেই [পুরুষদের] সাথে (মদম্) সেই আনন্দকে (বর্ধস্ব) তুমি বৃদ্ধি কর ॥১॥

    भावार्थ

    যে রাজা বিদ্বানদের সংশোধিত সিদ্ধান্ত মান্য করে প্রজাদের প্রসন্ন রাখেন, প্রজাও তাঁকে আনন্দ দেয় ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১০।১০৪।২-৪।

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    भाषार्थ

    (হরিবঃ) হে ইন্দ্রিয়াশ্বের, বা ঋক্-সামবেদের স্তুতির স্বামী! (অপ্সু) জলের মধ্যে (ধূতস্য) ধৌত করে নির্মল বস্তুর সদৃশ পবিত্র, অর্থাৎ রজস্ এবং তমস্ মল রহিত, (নৃভিঃ) উপাসক-নেতা দ্বারা (সুতস্য) নিষ্পাদিত ভক্তিরস, (ইহ) এই আমাদের ভক্তিযজ্ঞে (পিব) আপনি পান করুন। এবং (জঠরম্) সমগ্র অন্তরিক্ষকে সুখ দ্বারা পূরিত করুন। (অদ্রয়ঃ) পর্বতের সদৃশ উপাসনা-ব্রতের প্রতি সুদৃঢ় উপাসকগণ (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (যম্) যে ভক্তিরস (তুভ্যম্) আপনার জন্য (মিমিক্ষুঃ) সীঞ্চন করেছে, (তেভিঃ) সেই ভক্তিরস স্বীকার করে আপনি (উক্থবাহঃ) স্তুতির বাহক উপাসকদের (মদম্) প্রসন্নতা (বর্ধস্ব) বর্ধিত করুন।

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