अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
अ॒स्मा इदु॒ प्र त॒वसे॑ तु॒राय॒ प्रयो॒ न ह॑र्मि॒ स्तोमं॒ माहि॑नाय। ऋची॑षमा॒याध्रि॑गव॒ ओह॒मिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मा॑णि रा॒तत॑मा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । प्र । त॒वसे॑ । तु॒राय॑ । प्रय॑: । न । ह॒र्मि॒ । स्तोम॑म् । माहि॑नाय ॥ ऋची॑षमाय । अध्रि॑ऽगवे । ओह॑म् । इन्द्रा॑य । ब्रह्मा॑णि । रा॒तऽत॑मा ॥३५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु प्र तवसे तुराय प्रयो न हर्मि स्तोमं माहिनाय। ऋचीषमायाध्रिगव ओहमिन्द्राय ब्रह्माणि राततमा ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै । इत् । ऊं इति । प्र । तवसे । तुराय । प्रय: । न । हर्मि । स्तोमम् । माहिनाय ॥ ऋचीषमाय । अध्रिऽगवे । ओहम् । इन्द्राय । ब्रह्माणि । रातऽतमा ॥३५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
"स्तवन व हवन' से प्रभु-परिचरण
पदार्थ
१. (अस्मै) = इस (तवसे) = प्रवृद्ध, (तुराय) = शत्रु-संहारक, (माहिनाय) = पूजनीय ऋचीषमाय-[ऋचा समः] जितनी भी स्तुति की जाए उससे अन्यून, (अध्रिगवे) = अप्रतिहत गमनवाले प्रभु के लिए (ओहम्) = [वहनीय] प्रापणीय (स्तोमम्) = स्तुतिसमूह को (इत् उ) = निश्चय से (प्र हर्मि) = प्रकर्षेण प्रास कराता है, [हरामि]। उसी प्रकार प्राप्त कराता हूँ (न) = जैसेकि (प्रयः) = अन्न को। जैसे मैं नियमपूर्वक अन्न का सेवन करता है, उसी प्रकार नियमितरूप से प्रभु-स्तवन भी करता हूँ। २. इन्द्राय इस प्रभु की प्रासि के लिए ही मुझसे (ब्रह्माणि) = प्रवृद्ध सोम आदि हवियों (राततमा) = अतिशयेन प्रदत्त होती हैं, अर्थात् जहाँ मैं स्तुति करता हूँ, वहाँ इस प्रभु की प्राप्ति के लिए यज्ञादि कर्मों को भी करता हूँ।
भावार्थ
मैं नियमितरूप से प्रभु-स्तवन व यज्ञ आदि करता हुआ प्रभु की प्रीति के लिए प्रयत्नशील होता हूँ।
भाषार्थ
(तवसे) वृद्धिकारक, (तुराय) शीघ्र फलदायक, (माहिनाय) महामहिम (अस्मै) इस परमेश्वर के लिए (इत्) ही, (उ) अवश्य, मैं (स्तोमम्) सामगान (प्र हर्मि) भेंट करता हूँ। (न) जैसे कि अग्निहोत्र में, मैं इसी परमेश्वर के लिए (प्रयः) सामग्री आदि अन्न भेंट करता हूँ। (ऋचीषमाय) ऋचाओं में समाये हुये, (अध्रिगवे) अधृत अर्थात् अबाधित गतिवाले (इन्द्राय) परमेश्वर के लिए, (राततमा) यथार्थज्ञान-प्रदायक (ब्रह्माणि) ब्रह्म-प्रतिपादक वैदिक स्तुतियों का (ओहम्) उपहार मैं लाया हूँ। [हर्मि=हृञ् हरणे। ओहम्=आ+वह् (प्रापणे)। राततमा=रा (दाने)+क्त+तमप्।]
विषय
परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(तवसे) बड़े बलवान् (तुराय) शत्रुनाशक, (माहिनाय) गुणों से महान, (ऋचीषमाय) वेदमन्त्रों में कहे स्वरूप के समान, (अध्रिगवे) बेरोक गति वाले, सर्वव्यापक, (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् इन्द्र प्रभु के लिये मैं (प्रयः न) भूखे को जिस प्रकार अन्न देते हैं उसी प्रकार (ओहम्) अति विचारणीय (स्तोमं) स्तुति प्रदान करता हूं। और (राततमा) अति प्रेम से देने योग्य (ब्रह्माणि) वेद मन्त्रोक्त स्तुति वचन भी (प्रहर्मि) निवेदन करता हूं। अथवा (इन्दाय) उस परमेश्वर के (ओहम् = आ-उ-अहम्) मैं (राततमा ब्रह्माणि आ-हरामि उ) अति प्रेम से देने योग्य ब्रह्म-ज्ञानों को प्रस्तुत करता हूं। राजा के पक्ष में—(ब्रह्माणि) अन्नादि पदार्थ या बड़े अधिकार।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः। इन्द्रो देवता १, २, ७, ९, १४, १६ त्रिष्टुभः। शेषा पंक्तयः। षोडशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
In honour of this lord Indra, mighty power, great leader, holy celebrity and commander of the brave, informidable to the enemies, I offer an excellent song of praise in adoration and holiest offerings of the most spontaneous and liberal homage.
Translation
I offer my thoughtful adoration and most favourable praises like grain to deservsing one, to Almighty God alone who is strong destroyer, of obstacles, exalted, possessing unsurpassing energy and who deserves quite appropriate eulogiuems.
Translation
I offer my thoughtful adoration and most favorable praises like grain to deserving one, to Almighty God alone who is strong destroyer, of obstacles, exalted, possessing unsurpassing energy and who deserves quite appropriate eulogiuems.
Translation
I (a devotee) offer my well-thought-out praises and Vedic Richas, most worthy to be offered, to the Powerful, Fast-moving, Great, All-pervading, Mighty Lord, of the form mentioned in the Richas, like food to the honoured guest.
Footnote
cf. Rig, 1-61. (1-16).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্মৈ) এই [সংসারের] হিতের জন্য (ইৎ) ই (উ) বিচারপূর্বক (তবসে) বলের নিমিত্ত, (তুরায়) স্বতস্ফুর্ত, (মাহিনায়) পূজনীয়, (ঋচীষমায়) স্তুতিযোগ্য গুণবান, (অধ্রিগবে) অপ্রতিরোধ্য গতিমান, (ইন্দ্রায়) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান সভাপতির] জন্য (স্তোমম্) স্তুতিকে, (ওহম্) সম্পূর্ণ বিচারকে এবং (রাততমা) অত্যন্ত দান যোগ্য (ব্রহ্মাণি) ধনসমূহ (প্রয়ঃ ন) তৃপ্তিকারী অন্নের ন্যায় (প্র হর্মি) আমি সামনে আনয়ন করি ॥১॥
भावार्थ
মনুষ্যের উচিত পূজনীয়, উত্তম গুণবান, অতি বুদ্ধিমান রাজাদি প্রধান পুরুষদের ধনাদি দ্বারা সৎকার করা এবং প্রধান ব্যাক্তিও এভাবে তাঁকে আদর করবেন ॥১॥
भाषार्थ
(তবসে) বৃদ্ধিকারক, (তুরায়) শীঘ্র ফলদায়ক, (মাহিনায়) মহামহিম (অস্মৈ) এই পরমেশ্বরের জন্য (ইৎ) ই, (উ) অবশ্যই, আমি (স্তোমম্) সামগান (প্র হর্মি) অর্পণ করি। (ন) যেমন অগ্নিহোত্রে, আমি এই পরমেশ্বরের জন্য (প্রয়ঃ) সামগ্রী আদি অন্ন অর্পণ/অর্পিত করি। (ঋচীষমায়) ঋচা-সমূহের মধ্যে সমাহিত, (অধ্রিগবে) অধৃত অর্থাৎ অবাধিত গতিসম্পন্ন (ইন্দ্রায়) পরমেশ্বরের জন্য, (রাততমা) যথার্থজ্ঞান-প্রদায়ক (ব্রহ্মাণি) ব্রহ্ম-প্রতিপাদক বৈদিক স্তুতির (ওহম্) উপহার আমি নিয়ে এসেছি। [হর্মি=হৃঞ্ হরণে। ওহম্=আ+বহ্ (প্রাপণে)। রাততমা=রা (দানে)+ক্ত+তমপ্।]
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