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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    ऋषिः - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-५
    1

    अ॒यमु॑ त्वा विचर्षणे॒ जनी॑रिवा॒भि संवृ॑तः। प्र सोम॑ इन्द्र सर्पतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ऊं॒ इति॑ । त्वा॒ । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । जनी॑:ऽइव । अ॒भि । सम्ऽवृ॑त: ॥ प्र । सोम॑: । इ॒न्द्र॒ । स॒र्प॒तु॒ ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमु त्वा विचर्षणे जनीरिवाभि संवृतः। प्र सोम इन्द्र सर्पतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ऊं इति । त्वा । विऽचर्षणे । जनी:ऽइव । अभि । सम्ऽवृत: ॥ प्र । सोम: । इन्द्र । सर्पतु ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सोम रस के सेवन का उपदेश।

    पदार्थ

    (विचर्षणे) हे दूरदर्शी (इन्द्र) इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले पुरुष] (अयम् उ) यही (अभि) सब प्रकार (संवृतः) यथाविधि स्वीकार किया हुआ (सोमः) सोम [महौषधियों का रस], (जनीः इव) कुलस्त्रियों के समान, (त्वा) तुझको (प्र) अच्छे प्रकार (सर्पतु) प्राप्त होवे ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे कुलस्त्रियाँ अपने सन्तान आदि का हित करती हैं, वैसे ही सद्वैद्यों का सिद्ध किया हुआ महौषधियों का रस सुखदायक होता है ॥१॥

    टिप्पणी

    मन्त्र १-७ ऋग्वेद में है-८।१७।६-१३ ॥ १−(अयम्) (उ) एव (त्वा) त्वाम् (विचर्षणे) कृषेरादेश्च चः। उ० २।१०४। वि+कृष विलेखने-अनि, कस्य चः। विचर्षणिः पश्यतिकर्मा-निघ० ३।११। हे विविधं द्रष्टः। दूरदर्शिन् (जनीः) जनयः। कुलस्त्रियः (इव) यथा (अभि) अभितः। सर्वप्रकारेण (संवृतः) सम्यक् स्वीकृतः (प्र) प्रकर्षेण (सोमः) महौषधिरसः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (सर्पतु) प्राप्नोतु ॥

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    विषय

    जनी: इव

    पदार्थ

    १. हे (विचर्षणे) = विशेषरूप से देखनेवाले [नि० ३.११], अर्थात् सब पदार्थों को ठीक रूप में देखनेवाले, अतएव भोगों में न फंसनेवाले (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (अयम्) = यह (सोमः) = सोम (उ) = निश्चय से (त्वा प्रसतु) = तुझे प्राप्त हो। २. यह (अभिसंवृता:) = सब ओर से सुरक्षित [संवृत] सोम तुझे ऐसे प्राप्त हो (इव) = जैसेकि (जनी:) = पत्नी पति को प्राप्त होती है। पत्नी पति की अधांगिनी बन जाती है। यह सोम भी तेरा अंग बन जाए-तुझसे पृथक न हो। यह तेरे जीवन का आवश्यक अंश ही हो जाए। पत्नी के बिना जैसे पति का जीवन अधूरा है, उसी प्रकार सोम के बिना इन्द्र [जितेन्द्रिय पुरुष] का जीवन अधूरा है।

    भावार्थ

    सोम, संसार के विषयों की वास्तविकता को जाननेवाले जितेन्द्रिय पुरुष के जीवन का अंग ही बन जाए। उसी प्रकार जैसेकि पत्नी पति का अंग ही हो जाती है।

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    भाषार्थ

    (विचर्षणे) हे विविध जगत् के द्रष्टा! आप उपासकों द्वारा इस प्रकार (अभिसंवृतः) घिरे रहते हैं, (इव) जैसे कि (जनीः) माताएँ सन्तानों द्वारा घिरी रहती हैं, (इन्द्र) हे परमेश्वर! (अयम् उ) यह (सोमः) उपासकों का भक्तिरस (त्वा) आपकी ओर (प्र सर्पतु) प्रवाहित हो।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    O lord of cosmic vision, let this soma distilled and seasoned radiate to you from sense to the spirit, inspiring, soothing and beatifying like a bride on top of her beauty and virgin grace.

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    Translation

    O most vigilant ruler, let the juice of soma-group of herbs now possessed of all creative powers go near you.

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    Translation

    O most vigilant ruler, let the juice of soma-group of herbs now possessed of all creative powers go near you.

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    Translation

    O Powerful guardian of the people, let this creative power come to Thee, just as the bride-groom protected and surrounded by brave persons approaches the bride.

    Footnote

    (1-7) (a) cf. 8.17. (6-13). (b) The whole of this sukta may also be referred to the king as Indra.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र १-७ ऋग्वेद में है-८।१७।६-१३ ॥ १−(अयम्) (उ) एव (त्वा) त्वाम् (विचर्षणे) कृषेरादेश्च चः। उ० २।१०४। वि+कृष विलेखने-अनि, कस्य चः। विचर्षणिः पश्यतिकर्मा-निघ० ३।११। हे विविधं द्रष्टः। दूरदर्शिन् (जनीः) जनयः। कुलस्त्रियः (इव) यथा (अभि) अभितः। सर्वप्रकारेण (संवृतः) सम्यक् स्वीकृतः (प्र) प्रकर्षेण (सोमः) महौषधिरसः (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (सर्पतु) प्राप्नोतु ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সোমসেবনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বিচর্ষণে) হে দূরদর্শী (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান পুরুষ] (অয়ম্ উ) এই (অভি) সকল প্রকার (সংবৃতঃ) যথাবিধি স্বীকৃত (সোমঃ) সোম [মহৌষধিসমূহের রস], (জনীঃ ইব) কুলস্ত্রীদের সমান, (ত্বা) তোমাকে (প্র) উত্তমরূপে (সর্পতু) প্রাপ্ত হোক ॥১॥

    भावार्थ

    যেমন কুলস্ত্রীগণ অর্থাৎ কুলবধুগণ নিজ সন্তানদের হিত করে, তেমনই সদ্বৈদ্য দ্বারা প্রস্তত মহৌষধির রস প্রশান্তিদায়ক।।১।। মন্ত্র ১-৭ ঋগ্বেদে আছে -৮।১৭।৬-১৩।

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    भाषार्थ

    (বিচর্ষণে) হে বিবিধ জগতের দ্রষ্টা! আপনি উপাসকদের দ্বারা এমনভাবে (অভিসংবৃতঃ) ঘিরে/বেষ্টিত থাকেন, (ইব) যেমন (জনীঃ) মাতা সন্তানদের দ্বারা ঘিরে/বেষ্টিত থাকে, (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (অয়ম্ উ) এই (সোমঃ) উপাসকদের ভক্তিরস (ত্বা) আপনার দিকে (প্র সর্পতু) প্রবাহিত হোক।

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