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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 50 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५०
    2

    कन्नव्यो॑ अत॒सीनां॑ तु॒रो गृ॑णीत॒ मर्त्यः॑। न॒ही न्व॑स्य महि॒मान॑मिन्द्रि॒यं स्वर्गृ॒णन्त॑ आन॒शुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कत् । नव्य॑: । अ॒त॒सीना॑म् । तु॒र: । गृ॒णी॒त॒ । मर्त्य॑: ॥ न॒हि । नु । अ॒स्य॒ । म॒हि॒ऽमान॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् । स्व॑: । गृ॒णन्त॑: । आ॒न॒शु: ॥५०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कन्नव्यो अतसीनां तुरो गृणीत मर्त्यः। नही न्वस्य महिमानमिन्द्रियं स्वर्गृणन्त आनशुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कत् । नव्य: । अतसीनाम् । तुर: । गृणीत । मर्त्य: ॥ नहि । नु । अस्य । महिऽमानम् । इन्द्रियम् । स्व: । गृणन्त: । आनशु: ॥५०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अतसीनाम्) सदा चलती हुई [सृष्टियों] के (तुरः) वेग देनेवाले [परमात्मा] के (नव्यः) अधिक नवीन कर्म को (मर्त्यः) मनुष्य (कत्) कैसे (गृणीत) बता सके ? (नु) क्या (अस्य) उसकी (महिमानम्) महिमा और (इन्द्रियम्) इन्द्रपन [परम ऐश्वर्य] को (गृणन्तः) वर्णन करते हुए पुरुषों ने (स्वः) आनन्द (नहि) नहीं (आनशुः) पाया है ॥१॥

    भावार्थ

    यद्यपि अल्पज्ञ मनुष्य सब सृष्टियों के चलानेवाले जगदीश्वर के अनन्त गुणों को नहीं जान सकता, तो भी वह उसकी महिमा और परम ऐश्वर्य को विचारते-विचारते और पुरुषार्थ करते-करते अवश्य आनन्द पाता है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।३।१३, १४ ॥ १−(कत्) कथम् (नव्यः) अ० २०।३६।७। नवीयः। नवतरं कर्म (अतसीनाम्) अत्यविचमितमि०। उ० ३।११७। अत सातत्यगमने-असच्, गौरादित्वाद् ङीष्। संततगामिनीनां सृष्टीनाम् (तुरः) तुर वेगे-क्विप्। प्रेरकस्य परमेश्वरस्य (गृणीत) गॄ विज्ञापे-लिङ्। गारयेत। वर्णयेत (मर्त्यः) मनुष्यः (नहि) न कदापि (नु) प्रश्ने (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमानम्) महत्त्वम् (इन्द्रियम्) इन्द्रलिङ्गम्। परमैश्वर्यम् (स्वः) सुखम् (गृणन्तः) स्तुवन्तो जनाः (आनशुः) अश्नोतेर्लिटि परस्मैपदं छान्दसम्। प्रापुः ॥

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    विषय

    प्रभु की 'महिमा-इन्द्रिय-स्व:' का आनन्त्य

    पदार्थ

    १. अतसीनाम-परिव्राजकों की [निरन्तर गतिशील संन्यासियों की] (तरः) = वासनाओं का संहार करनेवाले उस प्रभु की (नव्यः मर्त्यः) = स्तुति करने में उत्तम मनुष्य भी (कत् गृणीत) = कैसे स्तुति करे। प्रभु के गुणों व सामों का वर्णन कर सकना उसकी शक्ति से परे की बात है। कुशल-से-कुशल स्तोता भी प्रभु का स्तुति के द्वारा व्यापन नहीं कर सकता। २. (गृणन्तः) = स्तुति करते हुए व्यक्ति (नु) = निश्चय से (अस्य) = इस प्रभु की (महिमानम्) = महिमा को (इन्द्रियम्) = बल को व (स्व:) = प्रकाश को (नहि आनश:) = व्याप्त करनेवाले नहीं होते। प्रभु की महिमा बल व प्रकाश अनन्त हैं। सान्त शक्ति व ज्ञानवाले जीवों के लिए प्रभु का पूर्ण यशोगान सम्भव नहीं है।

    भावार्थ

    मनुष्य प्रभु की महिमा, बल व प्रकाश को अपनी स्तुति द्वारा व्यक्त नहीं कर पाता।

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    भाषार्थ

    (अतसीनाम्) आत्मिकशक्ति-सम्पन्न प्रजाओं में (कत्) कौन सा (नव्यः) प्रशंसनीय (मर्त्यः) जन है, जोकि (तुरः) शीघ्र ही, अर्थात् अल्पायु में ही (गृणीत) परमेश्वर के गुणगान करने लगता है। (गृणन्तः) परमेश्वर के गुणगान करते हुए भी, (नू) निश्चय से, (अस्य) इस परमेश्वर की (महिमानम्) को, (इन्द्रियम्) इसके ऐश्वर्य को, (स्वः) और इसके आनन्दमय स्वरूप को (नहि आनशुः) उपासक पूर्णतया नहीं जान सके। [अतसः=The soul (आप्टे)। इन्द्रियम्=धनम् (निघं০ २.१०)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Who among mortals, even the most ardent of constant celebrants, can offer a new song of homage and adoration? Even those who have been singing in praise of Indra have not been able to comprehend his sublime majesty.

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    Translation

    How can a mortal being of recent world tell entirely the function, qualities and nature of God who gives force to the cycles of the creation? Did not the men describing His greatness and mighty power (in prayers) attain His happiness ?

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    Translation

    How can a mortal being of recent world tell entirely the function, qualities and nature of God who gives force to the cycles of the creation? Did not the men describing His greatness and mighty power (in prayers) attain His happiness ?

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    Translation

    How should the new person sing the praises of the Powerful mover of the swift-moving forces? Have not the sages, praising the greatness and fortunes of Him attained to the state of highest bliss? (i.e., verily they have).

    Footnote

    cf. Rig, 8.3. (13-14) (i) The example of the old sages sets the pace for the new. (ii) The answers to all these questions are self-evident.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।३।१३, १४ ॥ १−(कत्) कथम् (नव्यः) अ० २०।३६।७। नवीयः। नवतरं कर्म (अतसीनाम्) अत्यविचमितमि०। उ० ३।११७। अत सातत्यगमने-असच्, गौरादित्वाद् ङीष्। संततगामिनीनां सृष्टीनाम् (तुरः) तुर वेगे-क्विप्। प्रेरकस्य परमेश्वरस्य (गृणीत) गॄ विज्ञापे-लिङ्। गारयेत। वर्णयेत (मर्त्यः) मनुष्यः (नहि) न कदापि (नु) प्रश्ने (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमानम्) महत्त्वम् (इन्द्रियम्) इन्द्रलिङ्गम्। परमैश्वर्यम् (स्वः) सुखम् (गृणन्तः) स्तुवन्तो जनाः (आनशुः) अश्नोतेर्लिटि परस्मैपदं छान्दसम्। प्रापुः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরস্য মহিমোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অতসীনাম্) সদা গতিমান/গতিশীল [সৃষ্টিসমূহের] (তুরঃ) বেগ দানকারী [পরমাত্মার] (নব্যঃ) অধিক নবীন কর্মকে (মর্ত্যঃ) মনুষ্য (কৎ) কিভাবে (গৃণীত) বলতে পারে ? (নু) তবে কি (অস্য) তাঁর (মহিমানম্) মহিমা ও (ইন্দ্রিয়ম্) ইন্দ্রত্ব [পরম ঐশ্বর্যকে] (গৃণন্তঃ) বর্ণনাকারী পুরুষগণ (স্বঃ) আনন্দ (নহি) না (আনশুঃ) পায় ॥১॥

    भावार्थ

    যদিও অল্পজ্ঞ মনুষ্য সকল সৃষ্টি চালনাকারী জগদীশ্বরের অনন্ত গুণসমূহকে জানতে পারে না, তবুও পরমেশ্বরের মহিমা ও পরমৈশ্বর্য অন্বেষণ করতে করতে এবং পুরুষার্থ করতে করতে অবশ্যই আনন্দ পায় ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-৮।৩।১৩,১৪।

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    भाषार्थ

    (অতসীনাম্) আত্মিকশক্তি-সম্পন্ন প্রজাদের মধ্যে (কৎ) কোন (নব্যঃ) প্রশংসনীয় (মর্ত্যঃ) জন/মানুষ আছে, যে (তুরঃ) শীঘ্রই, অর্থাৎ অল্পায়ুতেই (গৃণীত) পরমেশ্বরের গুণগান করে। (গৃণন্তঃ) পরমেশ্বরের গুণগান করেও, (নূ) নিশ্চিতরূপে, (অস্য) এই পরমেশ্বরের (মহিমানম্) মহিমা, (ইন্দ্রিয়ম্) ঐশ্বর্য, (স্বঃ) এবং আনন্দময় স্বরূপকে (নহি আনশুঃ) উপাসক পূর্ণরূপে জানতে পারে না। [অতসঃ=The soul (আপ্টে)। ইন্দ্রিয়ম্=ধনম্ (নিঘং০ ২.১০)।]

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