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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५३
    1

    क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे। अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क: । ई॒म् । वे॒द॒ । सु॒ते । सचा॑ । पिब॑न्तम् । कत् । वय॑: । द॒धे॒ ॥ अ॒यम् । य: । पुर॑:। वि॒ऽभि॒नत्ति॑ । ओज॑सा । म॒न्दा॒न: । शि॒प्री । अन्ध॑स: ॥ ५३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे। अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क: । ईम् । वेद । सुते । सचा । पिबन्तम् । कत् । वय: । दधे ॥ अयम् । य: । पुर:। विऽभिनत्ति । ओजसा । मन्दान: । शिप्री । अन्धस: ॥ ५३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (कः) कौन (सचा) नित्य मेल के साथ (सुते) तत्त्व रस (पिबन्तम्) पीते हुए (ईम्) प्राप्तियोग्य [सेनापति] को (वेद) जानता है ? (कत्) कितना (वयः) जीवनसामर्थ्य [पराक्रम] (दधे) वह रखता है ? (अयम्) यह (यः) जो (शिप्री) दृढ़ जबड़ेवाला, (अन्धसः) अन्न का (मन्दानः) आनन्द देनेवाला [वीर] (ओजसा) बल से (पुरः) दुर्गों को (विभिनत्ति) तोड़ देता है ॥१॥

    भावार्थ

    जिस पराक्रमी पुरुष के शरीर बल और बुद्धिबल की चाह सामान्य मनुष्य नहीं जानते, वह नीतिज्ञ अन्न आदि पदार्थ एकत्र करके वैरियों को जीतता है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह तृच ऋग्वेद में है-८।३३।७-९, सामवेद-उ० ८।२। तृच १, आगे है-अथ० २।७।११-१३, मन्त्र १ सामवेद-पू० ४।१। ॥ १−(कः) सामान्यपुरुषः (ईम्) प्राप्तव्यं सेनापतिम् (वेद) वेत्ति (सुते) सुतम्। तत्त्वरसम् (सचा) समवायेन। नित्यसम्बन्धेन (पिबन्तम्) (कत्) कियत् परिमाणम् (वयः) जीवनसामर्थ्यम्। पराक्रमम् (दधे) लडर्थे लिट्। धारयति (अयम्) (यः) (पुरः) नगराणि। दुर्गाणि (विभिनत्ति) विशेषेण छिनत्ति (ओजसा) बलेन (मन्दानः) अ० २०।९।१। आमोदयिता (शिप्री) अ० २०।४।१। दृढहनुः (अन्धसः) अन्नस्य ॥

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    विषय

    पुरः विभिनत्ति

    पदार्थ

    १. (क:) = कोई विरला पुरुष ही (ईम्) = निश्चय से (सुते) = सोम का सम्पादन होने पर-शरीर में सोम का रक्षण होने पर (सचा) = अपने में समवेत होनेवाले-सदा साथ रहनेवाले (पिबन्तम्) = सोम का पान करनेवाले-सोम को शरीर में ही व्याप्त करनेवाले उस प्रभु को वेद-जानता है। प्रभु को जानकर (कत्) = [के तनोति] आनन्द का विस्तार करनेवाले (वय:) = आयुष्य को (दधे) = धारण करता है। २. (अयम्) = यह (यः) = जो (मन्दान:) = उस प्रभु का शंसन करनेवाला होता है, (अन्धसः) = सोम के हेतु से-वीर्यरक्षण के हेतु से (शिप्री) = उत्तम हनुओं व नासिकावाला बनता है, अर्थात् सात्त्विक भोजन को चबाकर खाता है और प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है, वह (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (पुरःविभिनत्ति) = असुरों की पुरियों का विदारण करनेवाला होता है। 'पुरन्दर' बनता है। यह काम-क्रोध-लोभ की पुरियों का विदारण करके उत्तम शरीर [इन्द्रियों], मन व बुद्धिवाला बनता है। काम के विनाश से इसकी इन्द्रियशक्तियाँ जीर्ण नहीं होती, क्रोधविनाश से इसका मन शान्त रहता है तथा लोभ को दूर करने से यह अविकल बुद्धिवाला होता है।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्मरण करते हुए सोम-रक्षण द्वारा आनन्दमय जीवनवाले बनें। 'प्रभु-स्तवन, सात्त्विक भोजन को चबाकर खाने तथा प्राणायाम' द्वारा सोम-रक्षण करते हुए ओजस्वी बनें तथा 'काम-क्रोध-लोभ' की नगरियों का विनाश करें।

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    भाषार्थ

    (सुते) उपासक में भक्तिरस के उत्पन्न हो जाने पर, हे परमेश्वर! (सचा) साथ-साथ, अर्थात् उपासक जब आपके आनन्दरस का पान करता है, तो उसके भक्तिरस को (पिबन्तम्) पीते हुए आपको (कः) कौन उपासनारहित व्यक्ति (वेद) जान सकता है? [उस आपको तो उपासक ही उस अवस्था में जान सकता है]; उपासक (कत्) किस प्रकार के (वयः) आनन्दरसरूपी अन्न को (दधे) निज आत्मा में धारण कर रहा होता है, (ईम्) इसे भी उपासनारहित कौन व्यक्ति जान सकता है? हे परमेश्वर! (अयम्) आप यह हैं (यः) जो कि (मन्दानः) प्रसन्न होकर (ओजसा) निज प्रभाव द्वारा (पुरः) आसुरी भावनाओं के गढ़ों को (विभिनत्ति) तोड़-फोड़ देते हैं, जैसे कि (शिप्री) तेजस्वी-मुखवाला सेनापति, (अन्धसः) अन्न से भरे शत्रु के (पुरः) किलों और नगरों को तोड़-फोड़ देता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Who would for certain know Indra in this created world of beauty and glory, how much power and force he wields while he rules and sustains it, Indra who wears the helmet and breaks down the strongholds of negativities with his lustrous might, the lord who shares and enjoys the soma of his own creation?

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    Translation

    who does know Almighty God protecting everything simulteneously in this world and what power, knowledge and support He does have ? This is He who is the master of heaven and earth which resemble with two jaws and who desiring the night of dissoultion (Andhash) demolishes the worlds.

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    Translation

    who does know ‘Almighty God protecting everything simultaneously in this world and what power, knowledge and support He does have ? This is He who is the master of heaven and earth which resemble with two jaws and who desiring the night of dissolution (Andhash) demolishes the worlds.

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    Translation

    In this created world, who knows Him, Who takes in all this universe at one draught (at the time of the deluge) and how much life-giving energy He bears? The self-same One Who shatters the whole universe to smithereens. by His Prowess, just as the commander of an army, being energised by rich food and vital power, mobilises his jaws of destruction and annihilates the towns and fortresses of the foe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह तृच ऋग्वेद में है-८।३३।७-९, सामवेद-उ० ८।२। तृच १, आगे है-अथ० २।७।११-१३, मन्त्र १ सामवेद-पू० ४।१। ॥ १−(कः) सामान्यपुरुषः (ईम्) प्राप्तव्यं सेनापतिम् (वेद) वेत्ति (सुते) सुतम्। तत्त्वरसम् (सचा) समवायेन। नित्यसम्बन्धेन (पिबन्तम्) (कत्) कियत् परिमाणम् (वयः) जीवनसामर्थ्यम्। पराक्रमम् (दधे) लडर्थे लिट्। धारयति (अयम्) (यः) (पुरः) नगराणि। दुर्गाणि (विभिनत्ति) विशेषेण छिनत्ति (ओजसा) बलेन (मन्दानः) अ० २०।९।१। आमोदयिता (शिप्री) अ० २०।४।१। दृढहनुः (अन्धसः) अन्नस्य ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সেনানীলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (কঃ) কে (সচা) নিত্য মেল-বন্ধনের সহিত (সুতে) তত্ত্ব রস (পিবন্তম্) পানকারী (ঈম্) প্রাপ্তিযোগ্য [সেনাপতি] কে (বেদ) জানে ? (কৎ) কতটুকু (বয়ঃ) জীবনসামর্থ্য [পরাক্রম] (দধে) তিনি ধারণ করেন ? (অয়ম্) এই (যঃ) যে (শিপ্রী) দৃঢ় চোয়ালযুক্ত, (অন্ধসঃ) অন্নের (মন্দানঃ) আনন্দ প্রদানকারী [বীর] (ওজসা) বল দ্বারা (পুরঃ) দূর্গ সমূহকে (বিভিনত্তি) চূর্ণ বিচূর্ণ করেন ॥১॥

    भावार्थ

    যে পরাক্রমী পুরুষের শরীর বল এবং বুদ্ধিবল এর অভিপ্রায় সামান্য মনুষ্য জানে না, সেই নীতিজ্ঞ অন্নাদি পদার্থ একত্র করে শত্রুদের বিরুদ্ধে জয় লাভ করেন ॥১।। এই তৃচ ঋগ্বেদে আছে-৮।৩৩।৭-৯, সামবেদ-উ০ ৮।২। তৃচ ১৫, আছে-অথ০ ২।৫৭।১১-১৩, মন্ত্র ১ সামবেদ-পূ০ ৪।১।৫ ॥

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    भाषार्थ

    (সুতে) উপাসকের মধ্যে ভক্তিরস উৎপন্ন হলে, হে পরমেশ্বর! (সচা) সাথে-সাথে, অর্থাৎ উপাসক যখন আপনার আনন্দরস পান করে, তবে তাঁর ভক্তিরস (পিবন্তম্) পানকারী আপনাকে (কঃ) কোন উপাসনারহিত ব্যক্তি (বেদ) জানতে পারে ? [সেই আপনাকে তো উপাসকই সেই অবস্থায় জানতে পারে]; উপাসক (কৎ) কোন প্রকারের (বয়ঃ) আনন্দরসরূপী অন্ন (দধে) নিজ আত্মার মধ্যে ধারণ করে, (ঈম্) ইহাও উপাসনারহিত কোন ব্যক্তি জানতে পারে? হে পরমেশ্বর! (অয়ম্) আপনিই (যঃ) যিনি (মন্দানঃ) প্রসন্ন হয়ে (ওজসা) নিজ প্রভাব দ্বারা (পুরঃ) আসুরিক ভাবনা-সমূহের পুর/পুরী (বিভিনত্তি) ভঙ্গ করেন, যেমন (শিপ্রী) তেজস্বী-মুখসম্পন্ন সেনাপতি, (অন্ধসঃ) অন্ন দ্বারা পরিপূর্ণ শত্রুর (পুরঃ) পুরী ভঙ্গ করে।

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