अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
ऋषिः - भुवनः साधनो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-६३
2
इ॒मा नु कं॒ भुव॑ना सीषधा॒मेन्द्र॑श्च॒ विश्वे॑ च दे॒वाः। य॒ज्ञं च॑ नस्त॒न्वं च प्र॒जां चा॑दि॒त्यैरि॑न्द्रः स॒ह ची॑क्लृपाति ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा । नु । क॒म् । भुव॑ना । सी॒स॒धा॒म॒ । इन्द्र॑: । च॒ । विश्वे॑ । च॒ । दे॒वा: ॥ य॒ज्ञम् । च॒ । न॒: । त॒न्व॑म् । च॒ । प्र॒ऽजाम् । च॒ । आ॒दि॒त्यै: । इन्द्र॑: । स॒ह । ची॒क्लृ॒पा॒ति॒ ॥६३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा नु कं भुवना सीषधामेन्द्रश्च विश्वे च देवाः। यज्ञं च नस्तन्वं च प्रजां चादित्यैरिन्द्रः सह चीक्लृपाति ॥
स्वर रहित पद पाठइमा । नु । कम् । भुवना । सीसधाम । इन्द्र: । च । विश्वे । च । देवा: ॥ यज्ञम् । च । न: । तन्वम् । च । प्रऽजाम् । च । आदित्यै: । इन्द्र: । सह । चीक्लृपाति ॥६३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
१-६ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इमा) यह (भुवना) उत्पन्न पदार्थ, (च) और (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला सभापति] (च) और (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग हम (नु) शीघ्र (कम्) सुख को (सीषधाम) सिद्ध करें। (आदित्यैः सह) अखण्ड व्रतधारी विद्वानों के साथ (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला सभापति] (नः) हमारे (यज्ञम्) यज्ञ [मेल-मिलाप आदि] (च) और (तन्वम्) शरीर (च) और (प्रजाम्) प्रजा [सन्तान आदि] को (च) भी (चीक्लृपाति) समर्थ करे ॥१॥
भावार्थ
सभापति राजा और सभासद लोग संसार के सब पदार्थों से उपकार लेकर सबकी यथावत् रक्षा करें ॥१॥
टिप्पणी
मन्त्र १-३ पूर्वार्ध कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१०।१७।१- यजुर्वेद-२।४६ सामवेद-उ० ४।१। तृच २३। मन्त्र ३ उत्तरार्द्ध ऋग्वेद में है-६।१७।१ और सामवेद-पू ।७।८; मन्त्र १-३ आगे हैं-अ० २०।१२४।४-६ ॥ १−(इमा) इमानि (नु) क्षिप्रम् (कम्) सुखम् (भुवना) उत्पन्नानि भूतजातानि (सीषधाम) साधयेम (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभापतिः (च) (विश्वे) सर्वे (च) (देवाः) विद्वांसः सभासदः (यज्ञम्) संगतिकरणव्यवहारम् (च) (नः) अस्माकम् (तन्वम्) शरीरम् (च) (प्रजाम्) सन्तानादिरूपाम् (च) (आदित्यैः) अखण्डव्रतिभिः विद्वद्भिः (इन्द्रः) (सह) (चीक्लृपाति) कृपू सामर्थ्ये-लेट्। कल्पयेत् समर्थयेत् ॥
विषय
त्रिलोकी के अधिपति
पदार्थ
१. (नु) = अब हम (इमा) = इस (भुवना) = शरीर, मन व मस्तिष्करूप लोकों को (सीषधाम) = सिद्ध करें-इन्हें अपने वश में करते हुए ठीक स्थिति में रक्खें। शरीर, मन व मस्तिष्क पर हमारा पूर्ण आधिपत्य हो। २. इस वशीकरण के होने पर (इन्द्रः च) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (च) = और (विश्वेदेवाः) = सूर्य-चन्द्र-अग्नि आदि सब देव कम्-सुख को [सीषधाम-साधयन्त सा०] सिद्ध करें। ३. (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (आदित्यैः सह) = [अदिति-प्रकृति] सूर्य आदि सब प्राकृतिक शक्तियों के साथ (न:) = हमारे (यज्ञम्) = यज्ञों को (चीक्लपाति) = शक्तिशाली बनाते हैं। (च) = और इन यज्ञों के द्वारा (तन्वम्) = हमारे शरीरों को शक्ति-सम्पन्न करते हैं, (च) = और शरीरों को शक्ति-सम्पन्न बनाने के द्वारा (प्रजाम्) = अपनी सन्तानों को सशक्त करते हैं।
भावार्थ
हम शरीर, मन व मस्तिष्क' पर आधिपत्यवाले हों। इससे प्रभु व सब प्राकृतिक देव हमें सुखी करेंगे। ऐसा होने पर हम यज्ञों में प्रवृत्त होंगे। यज्ञों द्वारा नौरोग शरीरवाले व नीरोग शरीर द्वारा उत्तम प्रजावाले बनेंगे। इन भुवनों पर आधिपत्यवाले हम सचमुच मन्त्र के ऋषि 'भुवन' होंगे।
भाषार्थ
हम (इमा भुवना) इन शारीरिक भुवनों को—पैरों, जङ्घाओं, उदरछाती, मस्तिष्क, तथा इन्द्रियादि को, (नु सीषधाम) साधनाओं द्वारा सिद्ध करते हैं, स्वस्थ करते हैं। (इन्द्रः) हमारी आत्मिक-शक्ति, और (विश्वे च देवाः) सब दिव्यगुण हमारी इन साधनाओं को (कम्) सुखपूर्वक सिद्ध करें। (च) और (नः यज्ञम्) हमारी यज्ञिय भावनाओं को, (तन्वं च) और हमारे शरीरों को, (प्रजां च) और हमारी वीर्यशक्ति को (इन्द्रः) परमेश्वर, (आदित्यैः सह) हमारी सुषुम्णानाड़ी के प्रकाशमयचक्रों समेत, (चीक्लृपाति) सिद्ध करे, इन्हें स्वस्थ रखे।
टिप्पणी
[इन्द्रः=जीवात्मा जिसके कारण इन्द्रियों को इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रिय का अर्थ है इन्द्र की शक्तियाँ। इन्द्र का अर्थ परमेश्वर भी है, जो कि समग्र ऐश्वर्यों का स्वामी है, इदि परमैश्वर्ये। प्रजा=वीर्यशक्ति, जिससे सन्तान जन्म लेती है। आदित्यैः=आदित्य का काम है—प्रकाश देना। वैदिक साहित्य में १२ आदित्य कहे हैं। आध्यात्मिक दृष्टि में १२ आदित्य सुषुम्णानाड़ीगत १२ चक्र हैं, जिनसे योगाभ्यास द्वारा उज्ज्वल प्रकाश प्रकट होता है। ये चक्र निम्नलिखित हैं। यथा—मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र, सहस्रारचक्र, ललनाचक्र, गुरुचक्र, सोमचक्र, मानसचक्र, ललाटचक्र। इसका अधिक वर्णन हठयोग की पुस्तकों में मिलता है। (द्र০—पातञ्जलयोगप्रदीप, स्वामी ओमानन्द)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Let us proceed and win our goals across these regions of the world and let all divine forces of nature and nobilities of humanity be favourable to us. Indra, the sun, the wind, and electric energy of the firmament with all year’s phases of the sun supports, strengthens and promotes our yajna, our body’s health and our future generations.
Translation
Let these created objects, Indra, mighty ruler and all men of enlightenments bring happiness all over the world. May Indra, the Almighty God togethr with learned persons make our body and offsprings strong and efficient.
Translation
Let these created objects, Indra, mighty ruler and all men of enlightenments bring happiness all over the world. May Indra, the Almighty God together with learned persons make our body and offspring’s strong and efficient.
Translation
Let us all the learned persons and brave warriors keenly desirous of victory along with the commander of the army bring under our sway all these worlds. The Mighty Lord or king energises our acts of sacrifice, bodies and offspring through the help of the rays of the Sun and the learned persons of highest calibre.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र १-३ पूर्वार्ध कुछ भेद से ऋग्वेद में है-१०।१७।१- यजुर्वेद-२।४६ सामवेद-उ० ४।१। तृच २३। मन्त्र ३ उत्तरार्द्ध ऋग्वेद में है-६।१७।१ और सामवेद-पू ।७।८; मन्त्र १-३ आगे हैं-अ० २०।१२४।४-६ ॥ १−(इमा) इमानि (नु) क्षिप्रम् (कम्) सुखम् (भुवना) उत्पन्नानि भूतजातानि (सीषधाम) साधयेम (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् सभापतिः (च) (विश्वे) सर्वे (च) (देवाः) विद्वांसः सभासदः (यज्ञम्) संगतिकरणव्यवहारम् (च) (नः) अस्माकम् (तन्वम्) शरीरम् (च) (प्रजाम्) सन्तानादिरूपाम् (च) (आदित्यैः) अखण्डव्रतिभिः विद्वद्भिः (इन्द्रः) (सह) (चीक्लृपाति) कृपू सामर्थ्ये-लेट्। कल्पयेत् समर्थयेत् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১-৬ রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইমা) এই সকল (ভুবনা) উৎপন্ন পদার্থ, (চ) ও (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান্ সভাপতি] (চ) এবং (বিশ্বে) সকল (দেবাঃ) বিদ্বানগণ আমরা (নু) শীঘ্রই (কম্) সুখ (সীষধাম) সিদ্ধ/প্রাপ্ত করি। (আদিত্যৈঃ সহ) অখণ্ড ব্রতধারী বিদ্বানদের সহিত (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যযুক্ত সভাপতি] (নঃ) আমাদের (যজ্ঞম্) যজ্ঞ [সঙ্গতিকরণ-ব্যবহার আদি] (চ) ও (তন্বম্) শরীর (চ) এবং (প্রজাম্) প্রজাকে [সন্তানাদিকে] (চ) ও (চীক্লৃপাতি) সমর্থ্য করে/করুক ॥১॥
भावार्थ
সভাপতি রাজা এবং সভাসদগণ সংসারের সকল পদার্থ থেকে উপকৃত হয়ে সকলের যথাবৎ রক্ষা করে/করুক ॥১॥ মন্ত্র ১-৩ পূর্বার্ধ কিছু ভেদপূর্বক ঋগ্বেদে আছে-১০।১৫৭।১-৫ যজুর্বেদ-২৫।৪৬ সামবেদ-উ০ ৪।১। তৃচ ২৩। মন্ত্র ৩ উত্তরার্দ্ধ ঋগ্বেদে আছে-৬।১৭।১৫ এবং সামবেদ-পূ ৫।৭।৮; মন্ত্র ১-৩ আছে-অ০ ২০।১২৪।৪-৬ ॥
भाषार्थ
আমরা (ইমা ভুবনা) এই শারীরিক ভূবন-সমূহকে—পা, জঙ্ঘা, উদর, মস্তিষ্ক, তথা ইন্দ্রিয়-সমূহকে, (নু সীষধাম) সাধনা দ্বারা সিদ্ধ করি, সুস্থ করি। (ইন্দ্রঃ) আমাদের আত্মিক-শক্তি, এবং (বিশ্বে চ দেবাঃ) সব দিব্যগুণ আমাদের এই সাধনা (কম্) সুখপূর্বক সিদ্ধ করুক। (চ) এবং (নঃ যজ্ঞম্) আমাদের যজ্ঞিয় ভাবনা-সমূহকে, (তন্বং চ) এবং আমাদের শরীরকে, (প্রজাং চ) এবং আমাদের বীর্যশক্তিকে (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর, (আদিত্যৈঃ সহ) আমাদের সুষুম্ণানাড়ীর প্রকাশময়চক্র সমেত, (চীক্লৃপাতি) সিদ্ধ করে/করুক, এগুলোকে সুস্থ রাখুক।
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