अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
स्तु॒हीन्द्रं॑ व्यश्व॒वदनू॑र्मिं वा॒जिनं॒ यम॑म्। अ॒र्यो गयं॒ मंह॑मानं॒ वि दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒हि । इन्द्र॑म् । व्य॒श्व॒ऽवत् । अनू॑र्मिम् । वा॒जिन॑म् । यम॑म् ॥ अ॒र्य: । गय॑म् । मंह॑मानम् । वि । दा॒शुषे॑ ॥६६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुहीन्द्रं व्यश्ववदनूर्मिं वाजिनं यमम्। अर्यो गयं मंहमानं वि दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुहि । इन्द्रम् । व्यश्वऽवत् । अनूर्मिम् । वाजिनम् । यमम् ॥ अर्य: । गयम् । मंहमानम् । वि । दाशुषे ॥६६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ऐश्वर्यवान् पुरुष के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
[हे विद्वान् !] (व्यश्ववत्) विविध वेगवाले पुरुष के समान (अनूर्मिम्) बिना पीड़ाओंवाले, (वाजिनम्) पराक्रमी, (यमम्) न्यायकारी (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] की (स्तुहि) स्तुति कर। (अर्यः) स्वामी (दाशुषे) आत्मदानी भक्त के लिये (वि) विविध प्रकार (मंहमानम्) बढ़ते हुए (गयम्) धन सदृश हैं ॥१॥
भावार्थ
जो पुरुष पराक्रम करके भूख आदि पीड़ाओं से बचा रहता है, उसके गुणों को ग्रहण करके मनुष्य सुखी होवें। विद्वानों ने छह पीड़ाएँ मानी हैं, जिनसे बचने का मनुष्य उपाय करता रहे−
टिप्पणी
[बुभुक्षा च पिपासा च प्राणस्य मनसः स्मृतौ। शोकमोहौ शरीरस्य जरामृत्यू षडूर्मयः ॥१॥] प्राण की भूख और प्यास, मन का शोक और मोह, शरीर की जरा और मृत्यु, यह छह पीड़ाएँ कही गयी हैं ॥१॥ यह तृच ऋग्वेद में है-गत सूक्त से आगे, ८।२४।२२-२४ ॥ १−(स्तुहि) प्रशंस (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (व्यश्ववत्) वि+अशू व्याप्तौ-क्वन्, सादृश्ये वतिः। विविधवेगवान् पुरुष इव (अनूर्मिम्) ऊर्मिभिर्बुभुक्षापिपासादिषट्पीडाभी रहितम् (वाजिनम्) पराक्रमिणम् (यमम्) न्यायिनम् (अर्यः) स्वामी (गयम्) धनरूपम् (मंहमानम्) महि वृद्धौ-शानच्। वर्धमानम् (वि) विविधम् (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥
विषय
'अनूमि, वाजी, यम' प्रभु का स्तवन
पदार्थ
१. (व्यश्ववत्) = व्यश्व की भांति-उत्तम इन्द्रियोंवाले पुरुष की भांति तू (इन्द्रम्) = उस सर्वशक्तिशाली प्रभु का (स्तुहि) = स्तवन कर, जोकि (अनूमिम्) = [ऊर्मि-A human infimity] शोक, मोह, जरा, मृत्यु व क्षुत्-पिपासारूप ऊर्मियों से रहित हैं 'शोकमोही जरामृत्यू क्षुत्पिपासे षडूर्मयः'। उस प्रभु में शोक-मोह आदि किसी भी दुर्बलता का निवास नहीं, अतएव (वाजिनम्) = वे प्रभु शक्तिशाली हैं और (यमम्) = सर्वनियन्ता है। प्रभु का स्तोता भी दुर्बलताओं से ऊपर उठता है, शक्तिशाली बनता है और संयम की वृत्तिवाला होता है। २. उस प्रभु का हम स्तवन करें जोकि (दाशुषे) = दाश्वान् पुरुष के लिए प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले पुरुष के लिए (अर्य:) = काम, क्रोध, लोभरूप शत्रुओं के (गयम्) = गृह को (विमंहमानम) = विशेषरूप से प्राप्त कराते हैं। 'काम' ने आज तक इन्द्रियों में अपना निवास बनाया हुआ था, 'क्रोध'ने मन को अपनाया हुआ था और 'लोभ' ने बुद्धि पर अधिकार किया हुआ था। प्रभु इन सबको दूर करके यह शरीर-गृह दाश्वान् को प्राप्त कराते हैं। उपासक के जीवन में काम, क्रोध, लोभ का निवास नहीं रहता।
भावार्थ
प्रभु-स्तवन से हम शोक-मोह आदि से ऊपर उठते हैं। शक्तिशाली व संयमी बनते हैं। हमारा शरीर काम, क्रोध, लोभ का घर नहीं बना रहता।
भाषार्थ
(व्यश्ववत्) अश्वविहीन रथ के सदृश, हे उपासक! तू शरीर और चित्त को स्थिर करके—(अनूर्मिम्) निस्तरङ्ग महोदधि के समान प्रशान्त, (वाजिनम्) बलशाली, (यमम्) जगन्नियन्ता, (गयम्) सर्वाश्रय, (दाशुषे) तथा आत्मसमर्पक को (वि) विशेष शक्तियों के (मंहमानम्) प्रदाता (इन्द्रम्) परमेश्वर की (स्तुहि) स्तुतियाँ गाया कर, (अर्यः) क्योंकि वह ही सबका स्वामी है।
टिप्पणी
[वाजः=बल (निघं০ २.९)। गयम् गृहनाम (निघं০ ३.४)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Like the sage of perfect mental and moral discipline, worship Indra, constant lord of eternity without fluctuation, omnipresent power over universal energy, controller and guide of the evolution of the universe, omnificent lord giver of a prosperous household to the generous devotees of yajna.
Translation
O man, you like the man who has control on his organs (Vyashva) pray Almighty God who is unfluctuating strong controller of the world. Praise Him who being the master of all gives excellent wealth for man giving gift.
Translation
O man, you like the man who has control on his organs (Vyashva) pray Almighty God who is unfluctuating strong controller of the world. Praise Him who being the master of all gives excellent wealth for man giving gift.
Translation
O man, like a self-controlled person, worship the Mighty God, Who is ever calm and Unperturbed, source of all strength, wealth, energy, knowledge and fame, Controller of all and Who invests the devotee with offspring and wealth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
[बुभुक्षा च पिपासा च प्राणस्य मनसः स्मृतौ। शोकमोहौ शरीरस्य जरामृत्यू षडूर्मयः ॥१॥] प्राण की भूख और प्यास, मन का शोक और मोह, शरीर की जरा और मृत्यु, यह छह पीड़ाएँ कही गयी हैं ॥१॥ यह तृच ऋग्वेद में है-गत सूक्त से आगे, ८।२४।२२-२४ ॥ १−(स्तुहि) प्रशंस (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं पुरुषम् (व्यश्ववत्) वि+अशू व्याप्तौ-क्वन्, सादृश्ये वतिः। विविधवेगवान् पुरुष इव (अनूर्मिम्) ऊर्मिभिर्बुभुक्षापिपासादिषट्पीडाभी रहितम् (वाजिनम्) पराक्रमिणम् (यमम्) न्यायिनम् (अर्यः) स्वामी (गयम्) धनरूपम् (मंहमानम्) महि वृद्धौ-शानच्। वर्धमानम् (वि) विविधम् (दाशुषे) आत्मदानिने। भक्ताय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
ঐশ্বর্যবতঃ পুরুষস্য লক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
[হে বিদ্বান্ !] (ব্যশ্ববৎ) বিবিধ বেগবান্ পুরুষের সমান (অনূর্মিম্) পীড়া রহিত, (বাজিনম্) পরাক্রমী, (যমম্) ন্যায়কারী (ইন্দ্রম্) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] এর (স্তুহি) স্তুতি করো। (অর্যঃ) স্বামী (দাশুষে) আত্মসমর্পনকারী ভক্তের জন্য (বি) বিবিধ প্রকার (মংহমানম্) বর্ধমান (গয়ম্) ধন সদৃশ ॥১॥
भावार्थ
যে পুরুষ পরাক্রম পূর্বক ক্ষুধা আদি পীড়া থেকে মুক্ত থাকে, সেই পুরুষের গুণ গ্রহণ করে মনুষ্য সুখী হয়। বিদ্বানগণ ছয়টি পীড়া স্বীকার করেছেন, এ সকল পীড়া থেকে মুক্তির উপায় মনুষ্যগণ সন্ধান করুক −[বুভুক্ষা চ পিপাসা চ প্রাণস্য মনসঃ স্মৃতৌ। শোকমোহৌ শরীরস্য জরামৃত্যূ ষডূর্ময়ঃ ॥১॥] প্রাণের ক্ষুধা ও তৃষ্ণা, মনের শোক ও মোহ, শরীরের জরা ও মৃত্যু এই ছয় প্রকার পীড়া কথিত হয়েছে ॥১॥ এই তৃচ ঋগ্বেদে আছে, ৮।২৪।২২-২৪॥
भाषार्थ
(ব্যশ্ববৎ) অশ্ববিহীন রথের সদৃশ, হে উপাসক! তুমি শরীর এবং চিত্ত স্থির করে—(অনূর্মিম্) নিস্তরঙ্গ মহোদধির সমান প্রশান্ত, (বাজিনম্) বলশালী, (যমম্) জগন্নিয়ন্তা, (গয়ম্) সর্বাশ্রয়, (দাশুষে) তথা আত্মসমর্পককে (বি) বিশেষ শক্তি (মংহমানম্) প্রদাতা (ইন্দ্রম্) পরমেশ্বরের (স্তুহি) স্তুতি গান করো, (অর্যঃ) কেননা তিনিই সকলের স্বামী।
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