अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
वी॒डु चि॑दारुज॒त्नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः। अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवीलु । चि॒त् । आ॒रु॒ज॒त्नुऽभि॑: । गुहा॑ । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ । वह्नि॑भि: ॥ अवि॑न्द: । उ॒स्रिया॑: । अनु॑ ॥७०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वीडु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः। अविन्द उस्रिया अनु ॥
स्वर रहित पद पाठवीलु । चित् । आरुजत्नुऽभि: । गुहा । चित् । इन्द्र । वह्निभि: ॥ अविन्द: । उस्रिया: । अनु ॥७०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
१-९ राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [महाप्रतापी मनुष्य] (गुहा) गुहा [गुप्त स्थान] में (चित्) भी [शत्रुओं के] (वीडु) दृढ़ गढ़ को, (आरुजत्नुभिः) तोड़ डालनेवाले (वह्निभिः) अग्नियों [आग्नेय शस्त्रों] से (चित्) निश्चय करके (उस्रियाः अनु) निवास करनेवाली प्रजाओं के पीछे (अविन्दः) तूने पाया है ॥१॥
भावार्थ
प्रतापी वीर मनुष्य आग्नेय शस्त्र, बाण, तोप, भुषुण्डी आदि से गुप्त स्थानों में छिपे वैरियों को नष्ट करके प्रजा की रक्षा करें ॥१॥
टिप्पणी
मन्त्र १-६ ऋग्वेद में है-१।६।-१०, मन्त्र १ सामवेद-उ० २।२।७ ॥ १−(वीडु) वीडयतिः संस्तम्भकर्मा-निरु० ।१७। भृमृशीङ्तॄ०। उ० १।७। उप्रत्ययः। वीडु बलनाम-निघ० २।९। दृढस्थानम्। दुर्गम् (चित्) अपि (आरुजत्नुभिः) कृहनिभ्यां क्त्नुः। उ० ३।३०। आङ्+रुजो भङ्गे-क्त्नु प्रत्ययः अकारसहितः। समन्ताद् भञ्जद्भिः। सम्यग्भञ्जनशीलैः (गुहा) गुहायाम्। गुप्तस्थाने (चित्) निश्चयेन (इन्द्र) महाप्रतापिन् मनुष्य (वह्निभिः) वहिश्रिश्रु०। उ० ४।१। वह प्रापणे-नि। वोढृभिः। नेतृभिः पुरुषैः (अविन्दः) विद्लृ लाभे-लङ्। लब्धवानसि (उस्रियाः) अथ० २०।१६।७। निवासशीलाः प्रजाः (अनु) अनुलक्ष्य ॥
विषय
वासनाविनाश द्वारा ज्ञानरश्मि-प्रादुर्भाव
पदार्थ
१.हे (इन्द्र) = इन्द्रियों को वश में करने के लिए यत्नशील जीव! (वीडु चित्) = अत्यन्त प्रबल भी (गुहा चित्) = कहीं हृदय गुहा में छिपकर बैठी हुई भी इन वासनाओं को (आरुजत्नुभिः) = सब प्रकार से पूर्णतया नष्ट करनेवाले और इसप्रकार (वह्निभिः) = लक्ष्य-स्थान तक ले-जानेवाले इन मरुतों [प्राणों] से युक्त होकर तू (उस्त्रिया:) = ज्ञानरश्मियों को (अनु अविन्दः) = प्राप्त करता है। २. यहाँ मन्त्र में मरुत् शब्द नहीं है तब भी 'मरुतः' देवता होने से मरुत् शब्द को अर्थ करते समय उपयुक्त कर लिया गया है। ये प्राण ही वासनाओं का भंग करनेवाले व हमें लक्ष्य-स्थान पर ले-जानेवाले हैं।
भावार्थ
इन्द्र [जीवात्मा] सेनानी है, मरुत् [प्राण] उसके सैनिक हैं। ये प्राण वासनारूप शत्रुओं का विनाश करते हैं और आवरण को हटाकर ज्ञान-रश्मियों का प्रादुर्भाव करते हैं।
भाषार्थ
(वीलु=वीडु चित्) दृढ़बद्ध संस्कारों और वासनाओं को भी (आ रुजत्नुभिः) पूर्णतया भग्न कर देनेवाले, (वह्निभिः) तथा योगमार्ग पर ले चलनेवाले, और ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित उपासक-शिरोमणियों द्वारा—(गुहा चित्) हृदय-गुहा में छिपे हुए भी (इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (अविन्दः) प्राप्त कर लिए जाते हैं। (उस्रिया अनु) आपको प्राप्त करने से पूर्व आपके दिव्यप्रकाश प्रकट होते हैं, तत्पश्चात् आप प्राप्त कर लिए जाते हैं।
इंग्लिश (4)
Subject
India Devata
Meaning
The mighty sun with its piercing rays breaks down things in the sky, and the wind with its currents after the sunbeams reconstructs and replaces new forms of things in the sky.
Translation
Indra, the sun through its power and by the dint of fires Breaking down tears the cloud and restore the rays hidden in the space.
Translation
Indra, the sun through its power and by the dint of fires breaking down tears the cloud and restore the rays hidden in the space.
Translation
O soul, thou mayst speedily visualise rays of spiritual light through the sustaining capacity of the vital breaths, tamed through the hard process of Pranayam. Or O mighty king, thou canst capture the most fertile lands, after speedily destroying the secret forts of the enemies with thy forces of smashing fire power.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र १-६ ऋग्वेद में है-१।६।-१०, मन्त्र १ सामवेद-उ० २।२।७ ॥ १−(वीडु) वीडयतिः संस्तम्भकर्मा-निरु० ।१७। भृमृशीङ्तॄ०। उ० १।७। उप्रत्ययः। वीडु बलनाम-निघ० २।९। दृढस्थानम्। दुर्गम् (चित्) अपि (आरुजत्नुभिः) कृहनिभ्यां क्त्नुः। उ० ३।३०। आङ्+रुजो भङ्गे-क्त्नु प्रत्ययः अकारसहितः। समन्ताद् भञ्जद्भिः। सम्यग्भञ्जनशीलैः (गुहा) गुहायाम्। गुप्तस्थाने (चित्) निश्चयेन (इन्द्र) महाप्रतापिन् मनुष्य (वह्निभिः) वहिश्रिश्रु०। उ० ४।१। वह प्रापणे-नि। वोढृभिः। नेतृभिः पुरुषैः (अविन्दः) विद्लृ लाभे-लङ्। लब्धवानसि (उस्रियाः) अथ० २०।१६।७। निवासशीलाः प्रजाः (अनु) अनुलक्ष्य ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১-৯ রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [মহাপ্রতাপী মনুষ্য] (গুহা) গুহায় [গুপ্ত স্থানে] (চিৎ) ও [শত্রুদের] (বীডু) দৃঢ় দূর্গ (আরুজত্নুভিঃ) ছিন্ন-ভিন্নকারী (বহ্নিভিঃ) অগ্নি [আগ্নেয়াস্ত্র] দ্বারা (চিৎ) নিশ্চিতরূপে (উস্রিয়াঃ অনু) নিবাসী প্রজাদের পশ্চাতে (অবিন্দঃ) তুমি প্রাপ্ত করেছো ॥১॥
भावार्थ
প্রতাপী বীর মনুষ্য আগ্নেয় শস্ত্র, বাণ, তোপ, ভুষুণ্ডী প্রভৃতি দ্বারা গুপ্ত স্থানে আত্মগোপন করা শত্রুদের বিনাশ করে প্রজাদের রক্ষা করেন ॥১॥ মন্ত্র ১-৬ ঋগ্বেদে আছে-১।৬।৫-১০, মন্ত্র ১ সামবেদ-উ০ ২।২।৭ ॥
भाषार्थ
(বীলু=বীডু চিৎ) দৃঢ়বদ্ধ সংস্কার এবং বাসনা-সমূহকেও (আ রুজত্নুভিঃ) পূর্ণরূপে ভগ্নকারী, (বহ্নিভিঃ) তথা যোগমার্গে বহনকারী, এবং জ্ঞানপ্রকাশ দ্বারা প্রকাশিত উপাসক-শিরোমণিদের দ্বারা—(গুহা চিৎ) হৃদয়-গুহায় নিহিত (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! আপনি (অবিন্দঃ) প্রাপ্ত হন। (উস্রিয়া অনু) আপনাকে প্রাপ্ত করার পূর্বে আপনার দিব্যপ্রকাশ প্রকট হয়, তৎপশ্চাৎ আপনি প্রাপ্ত হন।
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