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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७१
    2

    म॒हाँ इन्द्रः॑ प॒रश्च॒ नु म॑हि॒त्वम॑स्तु व॒ज्रिणे॑। द्यौर्न प्र॑थि॒ना शवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हान् । इन्द्र॑: । प॒र: । च॒ । नु । म॒हि॒ऽत्वम् । अ॒स्तु॒ । व॒ज्रिणे॑ । द्यौ: । न । प्र॒थि॒ना । शव॑: ॥७१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महाँ इन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे। द्यौर्न प्रथिना शवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महान् । इन्द्र: । पर: । च । नु । महिऽत्वम् । अस्तु । वज्रिणे । द्यौ: । न । प्रथिना । शव: ॥७१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 71; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (महान्) महान् (च) और (परः) श्रेष्ठ (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला परमेश्वर] (प्रथिना) फैलाव से (द्यौः न) सूर्य के प्रकाश के समान है, (नु) इसलिये (वज्रिणे) उस महापराक्रमी [परमेश्वर] के लिये (महित्वम्) महत्व और (शवः) बल (अस्तु) होवे ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर को धन्यवाद देते हुए विद्याओं द्वारा अपना ऐश्वर्य और बल बढ़ावें ॥१॥

    टिप्पणी

    मन्त्र १-६ ऋग्वेद में हैं-२।८।-१० और म० १-साम०-पू० २।८।२ ॥ १−(महान्) शुभगुणैः पूजनीयः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (परः) उत्कृष्टः (च) (नु) अस्मात् कारणात् (महित्वम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।१८। मह पूजायाम्-इन्, भावे त्वप्रत्ययः। महत्वम् (अस्तु) (वज्रिणे) तस्मै महापराक्रमिणे परमेश्वराय (द्यौः) सूर्यप्रकाशः (न) यथा (प्रथिना) पृथु-इमनिच्, मकारलोपः। प्रथिम्ना। विस्तारेण (शवः) बलम् ॥

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    विषय

    'महान् परः' इन्द्रः

    पदार्थ

    १. वे (इन्द्र:) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (महान्) = महान् हैं-पूजनीय हैं और (नु च) = अब निश्चय से (परः) = सर्वोत्कृष्ट है। उस प्रभु की महिमा अनन्त है, उनकी महिमा का वर्णन शब्दों से परे है। (वज्रिणे) = उस वज्रहस्त प्रभु के लिए (महित्वम् अस्तु) = हमारे हृदयों में पूजा का भाव हो। २. उस प्रभु का (शव:) = बल (द्यौः न प्रथिना) = आकाश के समान सर्वत्र फैला हुआ है। आकाश में सर्वत्र प्रभु की शक्ति दृष्टिगोचर होती है।

    भावार्थ

    सर्वत्र प्रभु की शक्ति को कार्य करता हुआ देखते हुए हम प्रभु का पूजन करें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रः) परमेश्वर (महान्) महान् है, (नु) निश्चय से वह (परः) सर्वश्रेष्ठ है। (महित्वम्) यह सब महिमा (वज्रिणे) न्यायवज्रधारी परमेश्वर की (अस्तु) है। उसका (शवः) बल विस्तार की दृष्टि से (द्यौः न) द्युलोक के सदृश (प्रथिना) फैला हुआ है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    In dr a Devata

    Meaning

    Indra is great, supreme and transcendent, self- refulgent like the sun, extensive like space and more. May all the power and grandeur be for the lord of justice and the thunderbolt. May all be dedicated to Him.

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    Translation

    Almighty God is supreme and excellent. The greatness of his who is the holder of thunder-bolt, is as wide as the space with its extension. His power is strong.

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    Translation

    Almighty God is supreme and excellent. The greatness of his who is the holder of thunder-bolt, is as wide as the space with its extension. His power is strong.

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    Translation

    Just as the heavens are great due to their vastness and just as the sun is great due to its vast light, similarly the Might Lord is Great due to His Immensity, pervading the universe and even beyond that is the grandeur and huge power in the Almighty, with the thunderbolt.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र १-६ ऋग्वेद में हैं-२।८।-१० और म० १-साम०-पू० २।८।२ ॥ १−(महान्) शुभगुणैः पूजनीयः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (परः) उत्कृष्टः (च) (नु) अस्मात् कारणात् (महित्वम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।१८। मह पूजायाम्-इन्, भावे त्वप्रत्ययः। महत्वम् (अस्तु) (वज्रिणे) तस्मै महापराक्रमिणे परमेश्वराय (द्यौः) सूर्यप्रकाशः (न) यथा (प्रथिना) पृथु-इमनिच्, मकारलोपः। प्रथिम्ना। विस्तारेण (शवः) बलम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্ত্যব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (মহান্) মহান্ (চ) এবং (পরঃ) শ্রেষ্ঠ (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পরমেশ্বর] (প্রথিনা) বিস্তারে (দ্যৌঃ ন) সূর্যের প্রকাশের সমান, (নু) এজন্য (বজ্রিণে) সেই মহাপরাক্রমী [পরমেশ্বর] এর জন্য (মহিত্বম্) মহত্ব ও (শবঃ) বল (অস্তু) হোক॥১॥

    भावार्थ

    মনুষ্য সর্বশ্রেষ্ঠ পরমেশ্বরকে ধন্যবাদ প্রদান পূর্বক বিদ্যা দ্বারা নিজের ঐশ্বর্য ও বল বৃদ্ধি করবে ॥১॥ মন্ত্র ১-৬ ঋগ্বেদে আছে-২।৮।৫-১০ এবং ম০ ১-সাম০-পূ০ ২।৮।২ ॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (মহান্) মহান্, (নু) নিশ্চিতরূপে তিনি (পরঃ) সর্বশ্রেষ্ঠ। (মহিত্বম্) এই সকল মহিমা (বজ্রিণে) ন্যায়বজ্রধারী পরমেশ্বরের (অস্তু) হয়/আছে/বিদ্যমান/বর্তমান। উনার (শবঃ) বল (দ্যৌঃ ন) দ্যুলোকের সদৃশ (প্রথিনা) বিস্তৃত।

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