अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
वने॒ न वा॒ यो न्य॑धायि चा॒कं छुचि॑र्वां॒ स्तोमो॑ भुरणावजीगः। यस्येदिन्द्रः॑ पुरु॒दिने॑षु॒ होता॑ नृ॒णां नर्यो॑ नृत॑मः क्ष॒पावा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठवने॑ । वा॒ । य: । नि । अ॒धा॒यि॒ । चा॒कन् । शुचि॑: । वा॒म् । स्तोम॑: । भु॒र॒णौ॒ । अ॒जी॒ग॒रिति॑ ॥ यस्य॑ । इत् । इन्द्र॑: । पु॒रु॒ऽदिने॑षु । होता॑ । नृ॒णाम् । नय॑: । नृऽत॑म: । क्ष॒पाऽवा॑न् ॥७६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वने न वा यो न्यधायि चाकं छुचिर्वां स्तोमो भुरणावजीगः। यस्येदिन्द्रः पुरुदिनेषु होता नृणां नर्यो नृतमः क्षपावान् ॥
स्वर रहित पद पाठवने । वा । य: । नि । अधायि । चाकन् । शुचि: । वाम् । स्तोम: । भुरणौ । अजीगरिति ॥ यस्य । इत् । इन्द्र: । पुरुऽदिनेषु । होता । नृणाम् । नय: । नृऽतम: । क्षपाऽवान् ॥७६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(वने) वृक्ष पर (न) जैसे (चाकन्) प्रीति करनेवाला (वा, यः=वायः) पक्षी का बच्चा (नि अधायि) रक्खा जाता है, [माता-पिताओ] (शुचिः) पवित्र (स्तोमः) बड़ाई योग्य गुण ने (वाम्) तुम दोनों को (अजीगः) ग्रहण किया है। (यस्य) जिस [बड़ाई योग्य गुण] का (इत्) ही (होता) ग्रहण करनेवाला (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष] (पुरुदिनेषु) बहुत दिनों के भीतर (नृणाम्) नेताओं का (नृतमः) सबसे बड़ा नेता, (नर्यः) मनुष्यों का हितकारी, (क्षपावान्) श्रेष्ठ रात्रियों वाला है ॥१॥
भावार्थ
जैसे चिड़िया चिरौटा बच्चे को घोंसले में धरकर पुष्ट और समर्थ करते हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष सदा दिन-रात उत्तम गुण ग्रहण करके अपने को और अपने सन्तानों को मुख्य कार्यकर्ता बनावें ॥१॥
टिप्पणी
यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।२९।१-८ ॥ हमने (वा, यः) दो पदों के स्थान पर (वायः) एक पद मानकर अर्थ किया है। भगवान् यास्क मुनि ने इस मन्त्र पर-निरुक्त ६।२८। में लिखा है−(वा और यः) शाकल्य ने [पदविभाग] किया है, किन्तु ऐसा होनेपर आख्यात उदात्त होता और अर्थ भी पूरा न होता-अर्थात् जो (वा और यः) पदकार शाकल्य ऋषि ने पदविभाग किया है, वह दो पद होता तो [यद्वृत्तान्नित्यम्। पा० ८।१।६०] इस सूत्र से (अधायि) क्रियापद उदात्त होता, किन्तु वह अनुदात्त है, और (वा) का अर्थ कुछ न बनता और वृक्ष पर क्या रक्खा हुआ है, यह आकाङ्क्षा बनी रहती। इससे (वा। यः।) दो पद भूल से हैं, (वायः) ऐसा एक पद ठीक है। सायणाचार्य और ग्रिफ़िथ महाशय ने भी (वायः) ही माना है ॥ १−(वने) वनावयवे वृक्षे (न) यथा (वा, यः=वायः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। वा गतौ-इण्, डित्। वि-अण् अपत्यार्थे। पक्षिशावकः। वन इव वायो वेः पुत्रश्चायन्निति वा कामयमान इति वा। वेति च य इति च चकार शाकल्यः। उदात्तं त्वेवमाख्यातमभविष्यदसुसमाप्तश्चार्थः-निरु० ६।२८। (नि अधायि) निहितः। धृतः (चाकन्) कनी दीप्तिकान्तिगतिषु, यङ्लुगन्तात्-क्विप्। उत्सुककमनाः (शुचिः) पवित्रः (वाम्) युवां द्वौ (स्तोमः) स्तुत्यगुणः (भुरणौ) भुरण धारणपोषणयोः-पचाद्यच्। हे भर्तारौ मातापितरौ (अजीगः) जिगर्ति नैरुक्तधातुः, यद्वा गॄ निगरणे-लङि, सिपि, इतश्च लोपे, रात्सस्य। पा० ८।२।२४। सलोपः, रेफस्य विसर्जनीयः। प्रथमपुरुषस्य मध्यमः। गृहीतवान् प्राप्तवान्। अजीगः.....अगारीर्जिगर्तिर्गिरतिकर्मा वा गृणातिकर्मा वा गृह्णातिकर्मा वा-निरु० ६।८। (यस्य) स्तोमस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (पुरुदिनेषु) बहुदिवसेषु (होता) ग्रहीता (नृणाम्) नेतॄणाम्। शूराणां मध्ये (नर्यः) नृभ्यो हितः (नृतमः) नेतृतमः। शूरतमः (क्षपावान्) क्षप प्रेरणे-अच्, टाप्। प्रशस्तरात्रिमान् ॥
विषय
नृ-तमः
पदार्थ
१. मन्त्र का ऋषि 'वसुक्र' वह है (य:) = जो (चाकन्) = कामना करता हुआ-प्रभु की मित्रता को चाहता हुआ (वने न) = उपासनीय के समान उस प्रभु में (वा) = निश्चय से न्यधायि स्थापित होता है। प्रभु को यह अपना आधार बनाता है, इसीलिए (शुचिः) = पवित्र जीवनवाला होता है। २. हे (भुरणौ) = धारण व पोषण करनेवाले प्राणापानो! (वाम्) = आपका (स्तोमः) = स्तवन (अजीग:) = इस वसुक्र को प्राप्त होता है। यह आपके स्तवन से आपके महत्त्व को जानता हुआ आपकी साधना में प्रवृत्त होता है। २. यह वसुक्र वह है (यस्य) = जिसका (इन्द्रः इत्) = परमात्मा ही (पुरुदिनेषु) = इन जीवन के लम्बे [बहुत] दिनों में होता-जीवन-यज्ञ को चलानेवाला है। यह वसुक्र प्रभु की कृपा से ही जीवन-यात्रा को पूर्ण होता हुआ देखता है, इसीलिए यह निरभिमान बना रहता है। (नृणां नर्य:) = मनुष्यों में सर्वाधिक नरहितकारी कर्मों को करनेवाला होता है। (नृतम:) = अतिशयेन उत्तम मनुष्य बनता है। (क्षपावान्) = [क्षप् to fast, to be an abstinent] भोजन में बड़ा संयमी होता है। इस संयम पर ही सब उन्नतियाँ निर्भर हैं।
भावार्थ
जो भोजन में संयमवाला होता है, वह उत्तम मनुष्य बनता है। यह प्राणसाधना करता हुआ प्रभु में स्थित होता है।
भाषार्थ
(यः वा) जो नर या नारी उपासक, (न) मानो (वने) वन में (चाकन्) वनश्री को देखता हुआ, (न्यधायि) ईश्वर-प्रणिधान करता है, हे नर-नारी उपासको! (वाम्) तुम दोनों का (शुचिः) पवित्र (स्तोमः) सामगान, तब (भुरणौ) भरण-पोषण करनेवाले परमेश्वर में (अजीगः) प्राप्त हो जाता है। (इन्द्रः) परमेश्वर (पुरुदिनेषु) बहुत दिनों तक (यस्य इत्) जिस ही उपासक का (होता) शक्तिप्रदाता हो जाता है, वह उपासक (नृणाम्) नरों में (नर्यः) नरश्रेष्ठ हो जाता है, (नृतमः) श्रेष्ठ नेता बन जाता है, (क्षपावान्) और क्षमाशील बन जाता है।
टिप्पणी
[चाकन्=चाकनत् पश्यतिकर्मा (निघं০ ३.११)। क्षपा=क्षपि क्षान्त्याम्। अजीगः=गृह्णातिकर्मा (निरु০ ६.२.८)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Like the baby bird placed in the nest on the tree, waiting and watching for the mother bird, and the mother bird arriving, may this song of love and purity reach you, O complementary powers of light, Ashvins, the song, of which Indra, ruler of the world, is the inspirer and deity, manliest leader of men, who rules over the day and night of human activity. 1. Like the baby bird placed in the nest on the tree, waiting and watching for the mother bird, and the mother bird arriving, may this song of love and purity reach you, O complementary powers of light, Ashvins, the song, of which Indra, ruler of the world, is the inspirer and deity, manliest leader of men, who rules over the day and night of human activity.
Translation
O man and woman, as the young bird rejoicing sits on the tree so the clear laudation reacnes to you both, O supporters, this is that glory the holder and possessor of which is Almighty God in large number of days. He is the great leader of all the leading forces and well-wisher of men and the master of nights.
Translation
O man and woman, as the young bird rejoicing sits on the tree so the clear laudation reaches to you both, O supporters, this is that glory the holder and possessor of which is Almighty God in large number of days. He is the great leader of all the leading forces and well-wisher of men and the master of nights.
Translation
O vital breaths, prana and apana, nourishing like parents, that pure radiant energy and strength, which has been invested in the soul, worthy of service bv all, really belongs to you, covering.you as it'werewhose (of energy) lonely bearer, the evil-destroyer soul, for many days, becomes the best among men and the most efficient leader of the people, shining like the moon
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह सूक्त ऋग्वेद में है-१०।२९।१-८ ॥ हमने (वा, यः) दो पदों के स्थान पर (वायः) एक पद मानकर अर्थ किया है। भगवान् यास्क मुनि ने इस मन्त्र पर-निरुक्त ६।२८। में लिखा है−(वा और यः) शाकल्य ने [पदविभाग] किया है, किन्तु ऐसा होनेपर आख्यात उदात्त होता और अर्थ भी पूरा न होता-अर्थात् जो (वा और यः) पदकार शाकल्य ऋषि ने पदविभाग किया है, वह दो पद होता तो [यद्वृत्तान्नित्यम्। पा० ८।१।६०] इस सूत्र से (अधायि) क्रियापद उदात्त होता, किन्तु वह अनुदात्त है, और (वा) का अर्थ कुछ न बनता और वृक्ष पर क्या रक्खा हुआ है, यह आकाङ्क्षा बनी रहती। इससे (वा। यः।) दो पद भूल से हैं, (वायः) ऐसा एक पद ठीक है। सायणाचार्य और ग्रिफ़िथ महाशय ने भी (वायः) ही माना है ॥ १−(वने) वनावयवे वृक्षे (न) यथा (वा, यः=वायः) वातेर्डिच्च। उ० ४।१३४। वा गतौ-इण्, डित्। वि-अण् अपत्यार्थे। पक्षिशावकः। वन इव वायो वेः पुत्रश्चायन्निति वा कामयमान इति वा। वेति च य इति च चकार शाकल्यः। उदात्तं त्वेवमाख्यातमभविष्यदसुसमाप्तश्चार्थः-निरु० ६।२८। (नि अधायि) निहितः। धृतः (चाकन्) कनी दीप्तिकान्तिगतिषु, यङ्लुगन्तात्-क्विप्। उत्सुककमनाः (शुचिः) पवित्रः (वाम्) युवां द्वौ (स्तोमः) स्तुत्यगुणः (भुरणौ) भुरण धारणपोषणयोः-पचाद्यच्। हे भर्तारौ मातापितरौ (अजीगः) जिगर्ति नैरुक्तधातुः, यद्वा गॄ निगरणे-लङि, सिपि, इतश्च लोपे, रात्सस्य। पा० ८।२।२४। सलोपः, रेफस्य विसर्जनीयः। प्रथमपुरुषस्य मध्यमः। गृहीतवान् प्राप्तवान्। अजीगः.....अगारीर्जिगर्तिर्गिरतिकर्मा वा गृणातिकर्मा वा गृह्णातिकर्मा वा-निरु० ६।८। (यस्य) स्तोमस्य (इत्) एव (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (पुरुदिनेषु) बहुदिवसेषु (होता) ग्रहीता (नृणाम्) नेतॄणाम्। शूराणां मध्ये (नर्यः) नृभ्यो हितः (नृतमः) नेतृतमः। शूरतमः (क्षपावान्) क्षप प्रेरणे-अच्, टाप्। प्रशस्तरात्रिमान् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(বনে) বৃক্ষে (ন) যেমন (চাকন্) প্রীতিকর (বা, যঃ=বায়ঃ) পক্ষীশাবক (নি অধায়ি) সযত্নে ধারণ করা হয়, তদ্রূপ [মাতা-পিতার] (শুচিঃ) পবিত্র (স্তোমঃ) প্রশংসনীয় গুণ (বাম্) তোমাদের দুজনকে (অজীগঃ) গ্রহণ করেছে। (যস্য) যে [প্রশংসনীয় গুণের] (ইৎ) অবশ্যই (হোতা) গ্রহীতা (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত পুরুষ] (পুরুদিনেষু) বহু দিবসের মধ্যে (নৃণাম্) নেতাদের (নৃতমঃ) সর্বোচ্চ নেতা, (নর্যঃ) মনুষ্যগণের হিতকারী, (ক্ষপাবান্) শ্রেষ্ঠ রাত্রিযুক্ত ॥১॥
भावार्थ
যেভাবে পক্ষী তার নিজ শাবককে নীড়ে সযত্নে রেখে পুষ্ট ও সক্ষম করে তোলে, অনুরূপভাবে স্ত্রী-পুরুষ সদা দিন-রাত উত্তম গুণ গ্রহণ করে স্বয়ং নিজেদের এবং সন্তানদের মুখ্য কার্যকর্তা হিসেবে গড়ে তোলে ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে আছে-১০।২৯।১-৮ ॥
भाषार्थ
(যঃ বা) যে নর বা নারী উপাসক, (ন) মানো (বনে) বনের মধ্যে (চাকন্) বনশ্রীকে দেখে, (ন্যধায়ি) ঈশ্বর-প্রণিধান করে, হে নর-নারী উপাসকগণ! (বাম্) তোমরা (শুচিঃ) পবিত্র (স্তোমঃ) সামগান, (ভুরণৌ) ভরণ-পোষণকারী পরমেশ্বরের মধ্যে (অজীগঃ) প্রাপ্ত হও। (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (পুরুদিনেষু) বহু দিন পর্যন্ত (যস্য ইৎ) যে উপাসকের (হোতা) শক্তিপ্রদাতা হন, সেই উপাসক (নৃণাম্) নরদের মধ্যে (নর্যঃ) নরশ্রেষ্ঠ হয়ে যায়, (নৃতমঃ) শ্রেষ্ঠ নেতা হয়, (ক্ষপাবান্) এবং ক্ষমাশীল হয়।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal