अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
ए॒वा पा॑हि प्र॒त्नथा॒ मन्द॑तु त्वा श्रु॒धि ब्रह्म॑ वावृ॒धस्वो॒त गी॒र्भिः। आ॒विः सूर्यं॑ कृणु॒हि पी॑पि॒हीषो॑ ज॒हि शत्रूँ॑र॒भि गा इ॑न्द्र तृन्धि ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । पा॒हि॒ । प्र॒त्नऽथा॑ । मन्द॑तु । त्वा॒ । श्रुधि॑ । ब्रह्म॑ । व॒वृ॒धस्व॒ । उ॒त । गी॒ऽभि: ॥ आ॒वि: । सूर्य॑म् । कृ॒णु॒हि ।पी॒पि॒हि । इष॑: । ज॒हि । शत्रू॑न् । अ॒भि । गा: । इ॒न्द्र॒ । तृ॒न्द्धि॒ ॥८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा पाहि प्रत्नथा मन्दतु त्वा श्रुधि ब्रह्म वावृधस्वोत गीर्भिः। आविः सूर्यं कृणुहि पीपिहीषो जहि शत्रूँरभि गा इन्द्र तृन्धि ॥
स्वर रहित पद पाठएव । पाहि । प्रत्नऽथा । मन्दतु । त्वा । श्रुधि । ब्रह्म । ववृधस्व । उत । गीऽभि: ॥ आवि: । सूर्यम् । कृणुहि ।पीपिहि । इष: । जहि । शत्रून् । अभि । गा: । इन्द्र । तृन्द्धि ॥८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) हे इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] (प्रत्नया) पहिले के समान (एव) ही [हमारी] (पाहि) रक्षा कर, (ब्रह्म) ईश्वर वा वेद (त्वा) तुझे (मन्दतु) हर्षित करे, [उसे] (श्रुधि) सुन (उत) और (गीर्भिः) वेदवाणियों से (वावृधस्व) बढ़। (सूर्यम्) सूर्य [सूर्यसमान विद्याप्रकाश] को (आविः कृणु) प्रकट कर, (इषः) अन्नों को (पीपिहि) प्राप्त हो, (शत्रून्) शत्रुओं को (जहि) मार और [उसकी] (गाः) वाणियों को (अभि) सर्वथा (तृन्धि) मिटा दे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य ईश्वर और वेद में श्रद्धा करके विद्या और पुरुषार्थ द्वारा अन्न आदि से परिपूर्ण होकर शत्रुओं का नाश कर उनकी कुमर्यादाओं को हटावे ॥१॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-६।१७।३ ॥ १−(एव) अवधारणे (पाहि) रक्ष, अस्मान् (प्रत्नथा) प्रत्नपूर्वविश्वेमात्थाल् छन्दसि। पा० ।३।१११। इवार्थे थाल्प्रत्ययः। पूर्वं यथा (मन्दतु) आमोदयतु। हर्षयतु (त्वा) त्वाम् (श्रुधि) शृणु (ब्रह्म) परमेश्वरो वेदो वा (वावृधस्व) शपः श्लुः। वर्धस्व (उत) अपि च (गीर्भिः) वेदवाणीभिः (आविः) प्राकट्ये (सूर्यम्) सूर्यवद् विद्याप्रकाशम् (कृणुहि) कुरु (पीपिहि) पि गतौ-शपः श्लुः। तुजादित्वादभ्यासस्य दीर्घश्च। प्राप्नुहि (इषः) अन्नानि (जहि) नाशय (शत्रून्) (अभि) सर्वथा (गाः) शत्रूणां वाचः (इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (तृन्धि) उतृदिर् हिंसानादरयोः। हिन्धि। नाशय ॥
विषय
ज्ञानसूर्य का आविर्भाव
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (प्रत्नथा एव) = सदा की भौति ही आप (पाहि) = हमारा रक्षण कीजिए, अथवा हमारे शरीर में सोम का रक्षण कीजिए। (त्वा मन्दतु) = यह उपासक आपका स्तवन करे। आप ब्रह्म उससे की जानेवाली स्तुतियों को (श्रुधि) = सुनिए, (उत) = और (गीर्भि:) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (वावृधस्व) = उसके अन्दर खूब ही बढ़िए, अर्थात् वह उपासक ज्ञान-प्राप्ति में लगा हुआ, अधिकाधिक आपके प्रकाश को हृदय में देखे। २. हे प्रभो! आप (सूर्यम्) = ज्ञान के सूर्य को उसके मस्तिष्करूप गगन में (आविः कृणुहि) = प्रकट कीजिए। (इषः पीपिहि) = प्रेरणाओं को बढ़ाइए. अर्थात् यह उपासक सदा आपकी प्रेरणा के अनुसार कार्यों को करनेवाला हो। (शत्रून् पीपिहि) = इस उपासक के वासनारूप शत्रुओं को आप विनष्ट कीजिए तथा (गा:) = इन्द्रियों को (अभितृन्धि) = [to set free] बासनाओं के आवरण से मुक्त कीजिए।
भावार्थ
हम प्रभु-स्तवन करें। ज्ञान-प्राप्ति में लगकर प्रभु के प्रकाश को अपने में अधिकाधिक देखने का प्रयत्न करे। प्रभु-कृपा से हमारा ज्ञान बढ़े। हम हृदयों में प्रभु-प्रेरणा को सुनें, वासनारूप शत्रुओं को विनष्ट करें और दीस इन्द्रियोंवाले बनें।
भाषार्थ
(एवा=एवम्) इस प्रकार अर्थात् तृप्तिकारक आनन्दरस की वर्षा द्वारा (मन्त्र २२ और ३३) (प्रत्नथा) अनादिकाल के सदृश आप (पाहि) हमारी रक्षा कीजिए। हमारा भक्तिरस (त्वा) आपको (मन्दतु) हर्षित करे, प्रसन्न करे। हमारी (ब्रह्म) ब्रह्मविषयक स्तुतियों को (श्रुधि) सुनिए। (उत) और (गीर्भिः) इन स्तुतियों के कारण (वावृधस्व) हमारी वृद्धि कीजिए। (सूर्यम्) हमारे तृतीय-नेत्र को (आविः कृणुहि) आविष्कृत कीजिए, प्रकट कीजिए। (इषः) हमारी अभिलाषाओं को (पीपिहि) प्रगति दीजिए या बढ़ाइए। हमारे (शत्रून्) कामादि शत्रुओं का (जहि) हनन कीजिए। (इन्द्र) हे परमेश्वर! (गाः) हमारी पार्थिव अभिलाषाओं को (अभितृन्धि) काट दीजिए।
टिप्पणी
[पीपिहि=पि गतौ; प्यायी वृद्धौ। सूर्यम्=“चक्षोः सूर्योऽजायत” (यजुः০ ३१.१२)। गाः=गौ पृथिवी (निघं০ १.१) अर्थात् पार्थिव अभिलाषाएँ। तृन्धि=तृह् हिंसायाम्।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indr a Devata
Meaning
Thus protect and promote life and humanity as ever before, and let the adventure give you the pride of pleasure. Listen to the Veda, protect the Word of knowledge, and be exalted by our songs of celebration. Uncover the light of the sun, enjoy food and drink, destroy the hostilities, release the speech of humanity to freedom, and unshackle the lands from bondage into liberty.
Translation
O Almigty God, you protect us as previously, this world pleases you, you hear of my prayers and you strengthen us through our supplication. You manifest the sun, preserve the knowledge, dispel away our foes the aversion, passion etc. and directing us towards the rays of spiritual wisdom destroy them.
Translation
O Almighty God, you protect us as previously, this world pleases you, you hear of my prayers and you strengthen us through our supplication. You manifest the sun, preserve the knowledge, dispel away our foes. the aversion, passion etc. and directing us towards the rays of spiritual wisdom destroy them.
Translation
O the Almighty, Thou alone maintainest this universe as of old (i.e., in the previous creation). Let it be a source of pleasure to Thee. Hear the Veda Mantras (recited by us, Thy devotees) and thus Thy Greatness be enhanced by our speeches. You bring the sun to light. You fulfill the desires of your subjects and nourish them with food, etc. Let all our enemies be destroyed with all their organs cut-off.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-६।१७।३ ॥ १−(एव) अवधारणे (पाहि) रक्ष, अस्मान् (प्रत्नथा) प्रत्नपूर्वविश्वेमात्थाल् छन्दसि। पा० ।३।१११। इवार्थे थाल्प्रत्ययः। पूर्वं यथा (मन्दतु) आमोदयतु। हर्षयतु (त्वा) त्वाम् (श्रुधि) शृणु (ब्रह्म) परमेश्वरो वेदो वा (वावृधस्व) शपः श्लुः। वर्धस्व (उत) अपि च (गीर्भिः) वेदवाणीभिः (आविः) प्राकट्ये (सूर्यम्) सूर्यवद् विद्याप्रकाशम् (कृणुहि) कुरु (पीपिहि) पि गतौ-शपः श्लुः। तुजादित्वादभ्यासस्य दीर्घश्च। प्राप्नुहि (इषः) अन्नानि (जहि) नाशय (शत्रून्) (अभि) सर्वथा (गाः) शत्रूणां वाचः (इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवन् पुरुष (तृन्धि) उतृदिर् हिंसानादरयोः। हिन्धि। नाशय ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্রঃ) হে ইন্দ্র [পরমৈশ্বর্যসম্পন্ন পুরুষ] (প্রত্নথা) পূর্বের মতো (এব) ই [আমাদের] (পাহি) রক্ষা করো, (ব্রহ্ম) ঈশ্বর বা বেদ (ত্বা) তোমাকে (মন্দতু) হর্ষিত করে/করুক, [তা] (শ্রুধি) শ্রবণ করো (উত) এবং (গীর্ভিঃ) বেদবাণী দ্বারা (বাবৃধস্ব) বর্ধিত হও। (সূর্যম্) সূর্য [সূর্যসমান বিদ্যাপ্রকাশ] (আবিঃ কৃণু) প্রকট করো, (ইষঃ) অন্ন (পীপিহি) প্রাপ্ত হও, (শত্রূন্) শত্রুদের (জহি) বধ করো এবং [শত্রুর] (গাঃ) বাণী (অভি) সর্বদা (তৃন্ধি) নাশ করো ॥১॥
भावार्थ
ভাবার্থ- মনুষ্য ঈশ্বর ও বেদের প্রতি শ্রদ্ধা করে বিদ্যা ও পুরুষার্থ দ্বারা অন্নাদি দ্বারা পূর্ণ হয়ে শত্রুদের বিনাশ করে তাঁদের কুমর্যাদা দূর করে/করুক।।১।। এই মন্ত্র ঋগ্বেদে আছে-৬।১৭।৩ ॥
भाषार्थ
(এবা=এবম্) এরূপ অর্থাৎ তৃপ্তিকারক আনন্দরসের বর্ষা দ্বারা (মন্ত্র ২২ এবং ৩৩) (প্রত্নথা) অনাদিকালের সদৃশ আপনি (পাহি) আমাদের রক্ষা করুন। আমাদের ভক্তিরস (ত্বা) আপনাকে (মন্দতু) হর্ষিত করে, প্রসন্ন করে। আমাদের (ব্রহ্ম) ব্রহ্মবিষয়ক স্তুতি (শ্রুধি) শ্রবণ করুন। (উত) এবং (গীর্ভিঃ) এই স্তুতির কারণে (বাবৃধস্ব) আমাদের বৃদ্ধি করুন। (সূর্যম্) আমাদের তৃতীয়-নেত্র (আবিঃ কৃণুহি) আবিষ্কৃত করুন, প্রকট করুন। (ইষঃ) আমাদের অভিলাষাকে (পীপিহি) প্রগতি দিন বা বৃদ্ধি করুন। আমাদের (শত্রূন্) কামাদি শত্রুদের (জহি) হনন করুন। (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (গাঃ) আমাদের পার্থিব অভিলাষাকে (অভিতৃন্ধি) কর্তন করুন।
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