अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
ब्रह्म॑णा ते ब्रह्म॒युजा॑ युनज्मि॒ हरी॒ सखा॑या सध॒माद॑ आ॒शू। स्थि॒रं रथं॑ सु॒खमि॑न्द्राधि॒तिष्ठ॑न्प्रजा॒नन्वि॒द्वाँ उप॑ याहि॒ सोम॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णा । ते॒ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । यु॒न॒ज्मि॒ । हरी॒ इति॑ । सखा॑या । स॒ध॒ऽमादे॑ । आ॒शू इति॑ ॥ स्थि॒रम् । रथ॑म् । सु॒ऽखम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒धि॒ऽतिष्ठ॑न् । प्र॒ऽजा॒नन् । वि॒द्वान् । उप॑ । या॒हि॒ । सोम॑म् ॥८६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणा ते ब्रह्मयुजा युनज्मि हरी सखाया सधमाद आशू। स्थिरं रथं सुखमिन्द्राधितिष्ठन्प्रजानन्विद्वाँ उप याहि सोमम् ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणा । ते । ब्रह्मऽयुजा । युनज्मि । हरी इति । सखाया । सधऽमादे । आशू इति ॥ स्थिरम् । रथम् । सुऽखम् । इन्द्र । अधिऽतिष्ठन् । प्रऽजानन् । विद्वान् । उप । याहि । सोमम् ॥८६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (ते) तेरे लिये (ब्रह्मणा) अन्न के साथ (ब्रह्मयुजा) धन के संग्रह करनेवाले, (आशू) शीघ्र चलनेवाले, (हरी) दोनों जल और अग्नि को (सखाया) दो मित्रों के तुल्य (सधमादे) चौरस स्थान में (युनज्मि) मैं संयुक्त करता हूँ, (स्थिरम्) दृढ़, (सुखम्) सुख देनेवाले [इन्द्रियों के लिये अच्छे हितकारी] (रथम्) रथ पर (अधितिष्ठन्) चढ़ता हुआ, (प्रजानन्) बड़ा चतुर (विद्वान्) विद्वान् तू (सोमम्) ऐश्वर्य को (उप याहि) प्राप्त हो ॥१॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जल अग्नि आदि पदार्थों के द्वारा रथों अर्थात् यान-विमानों को चलाकर देश-देशान्तरों में जाकर विद्या और धर्म से ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥
टिप्पणी
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-३।३।४ और इसका अर्थ महर्षि दयानन्द के भाष्य के आधार पर किया गया है। निरुक्त ३।१३। में (सुख) शब्द का अर्थ [अच्छा हितकारी इन्द्रियों के लिये] है ॥ १−(ब्रह्मणा) अन्नेन (ते) तुभ्यम् (ब्रह्मयुजा) धनस्य संयोजकौ संग्रामकौ (युनज्मि) संयोजयामि (हरी) जलाग्नी (सखाया) सुहृदाविव (सधमादे) समानस्थाने (आशू) शीघ्रगामिनौ (स्थिरम्) दृढम् (रथम्) यानविमानसमूहम् (सुखम्) सुखं कस्मात् सुहितं खेभ्यः खं पुनः खनतेः-निरु० ३।१३। इन्द्रियेभ्यो हितं सुखप्रदम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (अधितिष्ठन्) आरोहन् (प्रजानन्) बहु बुध्यमानः (विद्वान्) (उप) (याहि) प्राप्नुहि (सोमम्) ऐश्वर्यम् ॥
विषय
जीवन-संग्राम में विजय व ब्रह्म-प्राप्ति
पदार्थ
१. (ब्रह्मयुजा) = ब्रह्म से इस शरीर-रथ में युक्त किये गये हे प्रभो! (ते हरी) = आपके इन इन्द्रियाश्वों को (ब्राह्मणा) = ज्ञान से (युनज्मि) = युक्त करता हूँ। ये इन्द्रियाश्व ही सखाया मेरे मित्र हैं और (सधमादे) = इस जीवन-संग्राम में (आशु) = व्याप्त होनेवाले हैं। इनके द्वारा ही मैंने जीवन संग्राम को लड़ना है और विजय पाकर आपके साथ आनन्द का अनुभव करना है। 'सधमाद' शब्द का अर्थ संग्राम भी है-वहाँ वीर सैनिक एकत्र होकर हर्ष का अनुभव करते हैं और अन्तत: मोक्षलोक भी 'सधमाद' है, इसमें आत्मा परमात्मा के साथ आनन्द का अनुभव करता है। ३. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तु (स्थिरम्) = इस स्थिर-दृढ़ अंगोंवाले (सुखम्) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले [सु+ख] (रथम् अधितिष्ठन्) = शरीर-रथ पर स्थित होता हुआ, (प्रजानन्) = संसार के स्वरूप को ठीक से समझता हुआ, (विद्वान्) = उस आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करनेवाला तू (सोमम् उपयाहि) = शान्त प्रभु को समीपता से प्राप्त होनेवाला है।
भावार्थ
इन्द्रियाश्वों को शरीर-रथ में ठीक से जोतकर, जीवन-संग्राम में विजय करते हुए हम ज्ञानी बनकर प्रभु को प्रास हों। वह जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त करनेवाला व्यक्ति 'वसिष्ठ' बनता है और कहता है -
भाषार्थ
(ब्रह्मयुजा) ब्रह्म के साथ सम्बन्ध जोड़नेवाले, (ते ब्रह्मणा) ब्रह्मप्रतिपादक आपके मन्त्रों द्वारा, (युनज्मि) मैं अपने आप को आप के साथ योगयुक्त करता हूँ। (हरी) प्रत्याहार-सम्पन्न मेरी दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ, (सखाया) अब मेरे साथ सखा का वर्ताव करने लग गई हैं। वे मानो अब सखा बन कर (सधमादे) मेरे और आप के सम्मिलित आनन्द में (आशू) मुझे शीघ्र प्रेरित कर रही हैं। (इन्द्र) हे परमेश्वर! अब मेरे (स्थिरम्) चञ्चलतारहित, अतः (सुखम्) सुखप्रद, (रथम्) शरीर-रथ के आप (अधितिष्ठन्) अधिष्ठाता बन कर, (प्रजानन्) मेरी आकांक्षाओं को जानते हुए, और (विद्वान्) पहिचानते हुए, (सोमम्) मेरे भक्तिरस के (उप) समीप (याहि) प्राप्त हूजिए।
इंग्लिश (4)
Subject
India Devata
Meaning
By word I yoke the horse powers which sense and obey the word of command. Friendly they are, extremely fast to reach the yajnic destination. Indra, lord of knowledge and power, riding the chariot which is steady and comfortable, knowing and discovering further, go close to the moon and bring the nectar of magical powers.
Translation
I, the mystic in the state of communion with God unite with God your mind and intellect (Hari) which are friend, swift and yocked with knowledge. O Indra, the master of body and limbs, you mounting this comfortable firm chariot of body and knowing all its aspect as celebrated one in knowledge you attain God, who is the creator of all.
Translation
I, the mystic in the state of communion with God unite with God your mind and intellect (Hari) which arc friend, swift and yocked with knowledge. O Indra, the master of body and limbs, you mounting this comfortable firm chariot of body and knowing all its aspect as celebrated one in knowledge you attain God, who is the creator of all.
Translation
This verse appears to be addressed from a perfect yogi to his disciple-yogi: O soul, desirous of effacing all evil and wicked propensities of the spirit, I (i.e., the preceptor Yogi) tie in unison with the mighty Brahm, thy swift, friendly horses in the form of the vital breaths, Pran and Apan, fit to be united with Brahm in the blissful state of perfect smadhi. Keeping thy body steady, in a comfortable posture (Asan) and having developed special spiritual light and knowledge, finally approach the highest state of perfect beatitude.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र ऋग्वेद में है-३।३।४ और इसका अर्थ महर्षि दयानन्द के भाष्य के आधार पर किया गया है। निरुक्त ३।१३। में (सुख) शब्द का अर्थ [अच्छा हितकारी इन्द्रियों के लिये] है ॥ १−(ब्रह्मणा) अन्नेन (ते) तुभ्यम् (ब्रह्मयुजा) धनस्य संयोजकौ संग्रामकौ (युनज्मि) संयोजयामि (हरी) जलाग्नी (सखाया) सुहृदाविव (सधमादे) समानस्थाने (आशू) शीघ्रगामिनौ (स्थिरम्) दृढम् (रथम्) यानविमानसमूहम् (सुखम्) सुखं कस्मात् सुहितं खेभ्यः खं पुनः खनतेः-निरु० ३।१३। इन्द्रियेभ्यो हितं सुखप्रदम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (अधितिष्ठन्) आरोहन् (प्रजानन्) बहु बुध्यमानः (विद्वान्) (उप) (याहि) प्राप्नुहि (सोमम्) ऐश्वर्यम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান্ মনুষ্য] (তে) তোমার জন্য (ব্রহ্মণা) অন্নের সহিত (ব্রহ্ময়ুজা) ধন সংগ্রহকারী, (আশূ) শীঘ্র গমনকারী, (হরী) জল ও অগ্নিকে (সখায়া) দুই মিত্রের সমতুল্য (সধমাদে) সমতল স্থানে (যুনজ্মি) আমি সংযুক্ত করেছি, (স্থিরম্) দৃঢ়, (সুখম্) সুখ প্রদানকারী [ইন্দ্রিয় সমূহের জন্য হিতকারী] (রথম্) রথে (অধিতিষ্ঠন্) আরোহন পূর্বক (প্রজানন্) বড় চতুর (বিদ্বান্) বিদ্বান্ তুমি (সোমম্) ঐশ্বর্য (উপ যাহি) প্রাপ্ত হও ॥১॥
भावार्थ
মনুষ্যগণের উচিত, জল, অগ্নি আদি পদার্থ-সমূহ দ্বারা রথ অর্থাৎ যান-বিমানের মাধ্যমে দেশ-দেশান্তরে গমন করে বিদ্যা ও ধর্মের মাধ্যমে ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করা ॥১॥ এই মন্ত্র ঋগ্বেদেও আছে -৩।৩৫।৪ এবং এর অর্থ মহর্ষি দয়ানন্দের ভাষ্যের আধারে করা হয়েছে। নিরুক্ত ৩।১৩। এ- (সুখ) শব্দের অর্থ [ইন্দ্রিয় সমূহের জন্য উত্তম হিতকারী] ॥
भाषार्थ
(ব্রহ্ময়ুজা) ব্রহ্মের সাথে সম্বন্ধ সংযোগকারী, (তে ব্রহ্মণা) ব্রহ্মপ্রতিপাদক আপনার মন্ত্রগুলোর দ্বারা, (যুনজ্মি) আমি নিজেকে আপনার সাথে যোগযুক্ত করি। (হরী) প্রত্যাহার-সম্পন্ন আমার দুই প্রকারের ইন্দ্রিয় জ্ঞানেন্দ্রিয় এবং কর্মেন্দ্রিয়, (সখায়া) এখন আমার সাথে সখার আচরণ করে। তা মানো এখন সখা হয়ে (সধমাদে) আমার এবং আপনার সম্মিলিত আনন্দে (আশূ) আমাকে শীঘ্র প্রেরিত করছে। (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! এখন আমার (স্থিরম্) চঞ্চলতারহিত, অতঃ (সুখম্) সুখপ্রদ, (রথম্) শরীর-রথের আপনি (অধিতিষ্ঠন্) অধিষ্ঠাতা হয়ে, (প্রজানন্) আমার আকাঙ্ক্ষা জ্ঞাত হয়ে, এবং (বিদ্বান্) নিরূপণ করে, (সোমম্) আমার ভক্তিরসের (উপ) সমীপে (যাহি) প্রাপ্ত হন।
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