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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८७
    3

    अध्व॑र्यवोऽरु॒णं दु॒ग्धमं॒शुं जु॒होत॑न वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम्। गौ॒राद्वेदी॑याँ अव॒पान॒मिन्द्रो॑ वि॒श्वाहेद्या॑ति सु॒तसो॑ममि॒च्छन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध्व॑र्यव: । अ॒रु॒णम् । दु॒ग्धम् । अं॒शुम् । जु॒होत॑न । वृ॒ष॒भाय॑ । क्षि॒ती॒नाम् ॥ गौ॒रात् । वेदी॑यान् । अ॒वऽपान॑म् । इन्द्र॑: । वि॒श्वाहा॑ । इत् । या॒ति॒ । सु॒तऽसो॑मम् । इ॒च्छन् ॥८७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्यवोऽरुणं दुग्धमंशुं जुहोतन वृषभाय क्षितीनाम्। गौराद्वेदीयाँ अवपानमिन्द्रो विश्वाहेद्याति सुतसोममिच्छन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्यव: । अरुणम् । दुग्धम् । अंशुम् । जुहोतन । वृषभाय । क्षितीनाम् ॥ गौरात् । वेदीयान् । अवऽपानम् । इन्द्र: । विश्वाहा । इत् । याति । सुतऽसोमम् । इच्छन् ॥८७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    पुरुषार्थी के लक्षण का उपदेश।

    पदार्थ

    (अध्वर्यवः) हे हिंसा न चाहनेवाले पुरुषो ! (अरुणम्) प्राप्ति योग्य, (दुग्धम्) पूरे किये हुए (अंशुम्) भाग को (क्षितीनाम्) मनुष्यों में (वृषभाय) बलवान् के लिये (जुहोतन) दान करो। (अवपानम्) रक्षा साधन को (गौरात्) गौर [हरिण विशेष] से (वेदीयान्) अधिक जाननेवाला (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला पुरुष] (विश्वाहा) सब दिनों (इत्) ही (सुतसोमम्) तत्त्वरस सिद्ध करनेवाले पुरुष को (इच्छन्) चाहता हुआ (याति) चलता है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि बलवान् पुरुष को आदरपूर्वक ग्रहण करें, वह चतुर मनुष्य रक्षासाधनों को औरों से अधिक जानता है, जैसे हरिण व्याधाओं से बचने के उपाय को जानता है ॥१॥

    टिप्पणी

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-७।९८।१-७ ॥ १−(अध्वर्यवः) अ० ७।७३।। अहिंसामिच्छवः। याजकाः (अरुणम्) ऋ गतिप्रापणयोः-उनन्। प्रापणीयम् (दुग्धम्) प्रपूर्णम् (अंशुम्) अंशू विभाजने-कु। विभागम् (जुहोतन) दत्त (वृषभाय) श्रेष्ठाय बलयुक्ताय (क्षितीनाम्) क्षितयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्याणां मध्ये (गौरात्) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। गुङ् अव्यक्तशब्दे-रन्। यद्वा। हलश्च। पा० ३।३।१२१। गुरी उद्यमने-घञ्, वृद्धिः पृषोदरादित्वात्। हरिणविशेषात् (वेदीयान्) तुश्छन्दसि। पा० ।३।९। वेतृ-ईयसुन्। तुरिष्ठेमेयःसु। पा० ६।४।१४। तृलोपः। वेतृतरः। विद्वत्तरः (अवपानम्) रक्षासाधनम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (विश्वाहा) विश्वान्यहानि (इत्) एव (याति) गच्छति (सुतसोमम्) सुतः संस्कृतः सोमस्तत्त्वरसो येन तम् (इच्छन्) कामयमानः ॥

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    विषय

    सुतसोम का प्रिय' प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (अध्वर्यव:) = यज्ञशील पुरुषो। (क्षितीनाम्) = मनुष्यों पर (वृषभाय) = सुखों का सेचन करनेवाले प्रभु के लिए प्रभु की प्राप्ति के लिए इस (अरुणम्) = तेजस्वी (दुग्धम्) = ओषधियों से छोड़े गये भोजन के रूप में सेवित ओषधियों से प्राप्त कराये गये (अंशम्) = सोम को (जुहोतन) = अपने जीवन में आहुत करो। इस सोम को अपने अन्दर ही सुरक्षित करने का प्रयत्न करो। २. (गौरात्) = [Pure] पवित्र जीवनवाले पुरुष से (अवपानम्) = शरीर के अन्दर ही सोम के पान को (वेदीयान्) = अतिशयेन प्राप्त करनेवाला (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (सुतसोमम् इच्छन्) = सुतसोम पुरुष को चाहता हुआ (विश्वाहा इत्) = सदा ही (याति) = प्राप्त होता है। पवित्र जीवनवाला व्यक्ति सोम को अपने अन्दर सुरक्षित करता है। इस सोमरक्षक को ही प्रभु प्राप्त होते हैं।

    भावार्थ

    हे यज्ञशील पुरुषो। प्रभु-प्राप्ति के लिए सोम का रक्षण करो। सोमरक्षक पुरुष को ही प्रभु प्राप्त होते हैं।

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    भाषार्थ

    (अध्वर्यवः) अहिंसामय उपासना-यज्ञ के हे ऋत्विजो! (अरुणम्) लाल अर्थात् राजस कर्मों, और (दुग्धम्) दूध के समान शुभ्र सात्त्विक कर्मों, तथा (अंशुम्) अर्थात् प्रकाशमय विवेकजज्ञान को, (क्षितीनाम्) मनुष्यों के प्रति (वृषभाय) सुखों की वर्षा करनेवाले परमेश्वर के प्रति, (जुहोतन) आहुतिरूप में समर्पित कर दो। (इन्द्रः) परमेश्वर (गौरात्) सात्त्विक व्यक्ति से (अवपानम्) उसके हृदय में अवतरण कर भक्तिरस पान को (वेदीयान्) प्राप्त करता है। परमेश्वर (सुतसोमम्) निष्पन्न भक्तिरस को (इच्छन्) चाहता हुआ (विश्वा अहा इत्) सर्वदा (याति) उपासक को प्राप्त होता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    O devotees of creative yajna, at the dawn of the fiery sun, offer refined and energised soma and milk into the fire of yajna in honour of Indra, generous omnipotent ruler of the worlds. Having received exhilarating soma inspiration from the sacred vedi of light, Indra, the ruler, the scholar, the human soul, proceeds to the day’s activity with passion for consecrated action every new day.

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    Translation

    O Ye priests you offer the milked out available share of juice to the strongest one of the subjects. The mighty ruler who knows every thing more then the doer at every day desiring the Soma, pressing man comes to him.

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    Translation

    O Ye priests you offer the milked out available share of juice to the strongest one of the subjects. The mighty ruler who knows everything more then the doer at every day desiring the Soma, pressing man comes to him.

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    Translation

    O learned persons of non-violent sacrifices, offer libations, consisting of radiant essence of herbs to the life-infusing soul, amongst the body-sustaining vital breaths. The soul, more powerful than the vital breaths reveling amidst the sense-organs, desirous of drinking deep the divine Bliss, constantly moves on to the final destination.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह सूक्त ऋग्वेद में है-७।९८।१-७ ॥ १−(अध्वर्यवः) अ० ७।७३।। अहिंसामिच्छवः। याजकाः (अरुणम्) ऋ गतिप्रापणयोः-उनन्। प्रापणीयम् (दुग्धम्) प्रपूर्णम् (अंशुम्) अंशू विभाजने-कु। विभागम् (जुहोतन) दत्त (वृषभाय) श्रेष्ठाय बलयुक्ताय (क्षितीनाम्) क्षितयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्याणां मध्ये (गौरात्) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। गुङ् अव्यक्तशब्दे-रन्। यद्वा। हलश्च। पा० ३।३।१२१। गुरी उद्यमने-घञ्, वृद्धिः पृषोदरादित्वात्। हरिणविशेषात् (वेदीयान्) तुश्छन्दसि। पा० ।३।९। वेतृ-ईयसुन्। तुरिष्ठेमेयःसु। पा० ६।४।१४। तृलोपः। वेतृतरः। विद्वत्तरः (अवपानम्) रक्षासाधनम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (विश्वाहा) विश्वान्यहानि (इत्) एव (याति) गच्छति (सुतसोमम्) सुतः संस्कृतः सोमस्तत्त्वरसो येन तम् (इच्छन्) कामयमानः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পুরুষার্থিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অধ্বর্যবঃ) হে অহিংসা কামনাকরী পুরুষগণ ! (অরুণম্) প্রাপ্তি যোগ্য, (দুগ্ধম্) পূরিপূর্ণ কৃত (অংশুম্) অংশকে (ক্ষিতীনাম্) মনুষ্যগণের মধ্যে (বৃষভায়) বলবানের জন্য (জুহোতন) দান করো। (অবপানম্) আত্মরক্ষার উপায় (গৌরাৎ) গৌর [হরিণ বিশেষ] হতে (বেদীয়ান্) অধিক জ্ঞাতা (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত পুরুষ] (বিশ্বাহা) সকল দিবসে (ইৎ) নিশ্চিতরূপে (সুতসোমম্) তত্ত্বরস সিদ্ধকারী পুরুষকে (ইচ্ছন্) কামনা করে (যাতি) চলেন ॥১॥

    भावार्थ

    মনুষ্যগণের উচিত, বলবান্ পুরুষকে আদরপূর্বক গ্রহণ করা, কারণ সেই চতুর পুরুষ রক্ষাসাধন অন্য মনুষ্যদের থেকে অধিক জানেন, যেমন হরিণ ব্যাধ থেকে আত্মরক্ষার উপায় জানে ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদ -৭।৯৮।১-৭ ॥ এ বিদ্যমান।

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    भाषार्थ

    (অধ্বর্যবঃ) অহিংসাময় উপাসনা-যজ্ঞের হে ঋত্বিকগণ! (অরুণম্) লাল অর্থাৎ রাজসিক কর্ম, এবং (দুগ্ধম্) দুগ্ধের সমান শুভ্র সাত্ত্বিক কর্ম, তথা (অংশুম্) অর্থাৎ প্রকাশময় বিবেকজজ্ঞানকে, (ক্ষিতীনাম্) মনুষ্যদের প্রতি (বৃষভায়) সুখ বর্ষণকারী পরমেশ্বরের প্রতি, (জুহোতন) আহুতিরূপে সমর্পিত করো। (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (গৌরাৎ) সাত্ত্বিক ব্যক্তি দ্বারা (অবপানম্) তাঁর হৃদয়ে অবতরণ করে ভক্তিরস পান (বেদীয়ান্) প্রাপ্ত করে। পরমেশ্বর (সুতসোমম্) নিষ্পন্ন ভক্তিরস (ইচ্ছন্) কামনা করে (বিশ্বা অহা ইৎ) সর্বদা (যাতি) উপাসককে প্রাপ্ত হন।

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