अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
यस्त॒स्तम्भ॒ सह॑सा॒ वि ज्मो अन्ता॒न्बृह॒स्पति॑स्त्रिषध॒स्थो रवे॑ण। तं प्र॒त्नास॒ ऋष॑यो॒ दीध्या॑नाः पु॒रो विप्रा॑ दधिरे म॒न्द्रजि॑ह्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । त॒स्तम्भ॑ । सह॑सा । वि । ज्म: । अन्ता॑न् । बृह॒स्पति॑: । त्रि॒ऽस॒ध॒स्थ: । रवे॑ण ॥ तम् । प्र॒त्नास॑: । ऋष॑य: । दीध्या॑ना: । पु॒र: । विप्रा॑ । द॒धि॒रे॒ । म॒न्द्रऽजि॑ह्वम् ॥८८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्तस्तम्भ सहसा वि ज्मो अन्तान्बृहस्पतिस्त्रिषधस्थो रवेण। तं प्रत्नास ऋषयो दीध्यानाः पुरो विप्रा दधिरे मन्द्रजिह्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । तस्तम्भ । सहसा । वि । ज्म: । अन्तान् । बृहस्पति: । त्रिऽसधस्थ: । रवेण ॥ तम् । प्रत्नास: । ऋषय: । दीध्याना: । पुर: । विप्रा । दधिरे । मन्द्रऽजिह्वम् ॥८८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जिस (त्रिषधस्थः) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] के साथ स्थित (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी वेदविद्याओं के रक्षक पुरुष] ने (सहसा) अपने बल से और (रवेण) उपदेश से (ज्मः) पृथिवी के (अन्तान्) अन्तों [सीमाओं] को (वि) विविध प्रकार (तस्तम्भ) दृढ़ किया है। (तम्) उस (मन्द्रजिह्वम्) आनन्द देनेवाली जिह्वावाले विद्वान् को (प्रत्नासः) प्राचीन, (दीध्यानाः) प्रकाशमान [तेजस्वी], (विप्राः) बुद्धिमान् (ऋषयः) ऋषियों [वेदों के अर्थ जाननेवालों] ने (पुरः) आगे (दधिरे) धरा है ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य कर्म, उपासना, ज्ञान में तत्पर होकर पृथिवी भर को आनन्द देता है, ऋषि लोग उस सत्यवादी को मुखिया करते हैं ॥१॥
टिप्पणी
यह सूक्त ऋग्वेद में है-४।०।१-६ ॥ १−(यः) विद्वान् दृढीकृतवान् (सहसा) बलेन (वि) विविधम् (ज्मः) जमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्। उ० १।१९। जमु अदने गतौ च-कनिन्, अकारलोपः। डाबुभाभ्यामन्यतस्याम्। पा० ४।१।१३। इति ङीप्। ज्मा पृथिवीनाम-निघ० १।१-निरु० १२।४३। आतो धातोः। पा० ६।४।१४०। इत्यत्र आत इति योगविभागादाकारलोपः। पृथिव्याः (अन्तान्) सीमाः। दिग्देशान् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः पुरुषः (त्रिषधस्थः) त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः सह स्थितः (रवेण) उपदेशेन (तम्) (प्रत्नासः) प्राचीनाः (ऋषयः) वेदार्थवेत्तारः (दीध्यानाः) अ० २।३४।३। दीधीङ् दीप्तिदेवनयोः-शानच्। दीप्यमानाः (पुरः) पुरस्तात्। अग्रे (विप्राः) मेधाविनः (दधिरे) धारितवन्तः (मन्द्रजिह्वम्) आनन्दप्रदजिह्वायुक्तम् ॥
विषय
ऋषयः-दीध्याना:-विप्राः
पदार्थ
१. (यः) = जो (ज्मः अन्तान्) = पृथिवी के अन्तों को-दसों दिशाओं को सहसा शक्ति से (वितस्तम्भ) = थामता है, (बृहस्पतिः) = जो ब्रह्मणस्पति है-सब ज्ञानों का स्वामी है। (रवेण) = ज्ञान-कर्म व उपासना की वाणियों से (विषधस्थः) = पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक में स्थित है, अर्थात् सर्वत्र इन वाणियों का प्रसार कर रहा है। २. (तम्) = उस (मन्द्रजिह्वम्) = अत्यन्त मधुर जिहावाले–मधुरता से ज्ञानोपदेश करनेवाले प्रभु को (पुरस्दधिरे) = अपने सामने धारण करते हैं। प्रभु को आदर्श के रूप में अपने सामने स्थापित करके तदनुसार अपने जीवन को बनाने का प्रयत्न करते हैं। एक तो (प्रत्नास: ऋषय:) = पुराणे, अर्थात् बड़ी आयु के तत्त्वज्ञानी पुरुष; दूसरे (दीध्याना:) = ज्ञानदीप्ति से दीस होनेवाले पुरुष तथा (विप्राः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले पुरुष, उस प्रभु को ही अपने सामने स्थापित करते हैं उसके अनुसार ही अपने जीवन को बनाने का यत्न करते हैं।
भावार्थ
ऋषि, ध्यानी व विन प्रभु को अपने सामने स्थापित करते हैं। उसे अपने जीवन में धारण करने के लिए यत्नशील होते हैं।
भाषार्थ
(त्रिषधस्थः) तीन लोकों में स्थित (यः) जिस (बृहस्पतिः) महाब्रह्माण्ड के पति ने, (सहसा) निज स्वाभाविक बल के कारण, (रवेण) केवलमात्र अपनी आज्ञा द्वारा, (ज्मः अन्तान्) पृथिवी के भूपृष्ठों को (वि तस्तम्भ) विशेष सुदृढ़ कर दिया है। (प्रत्नासः) अनादिकाल के (ऋषयः विप्राः) ऋषि और मेधावी उपासक, (मन्द्रजिह्वम्) हर्षप्रदायिनी वेदवाणीवाले (तम्) उस परमेश्वर का (दीध्यानाः) सतत ध्यान करते हुए, (पुरः) सदा उसे अपने समक्ष (दधिरे) रखते हैं।
टिप्पणी
[तस्तम्भ=पृथिवी किसी काल में सूर्यवत् आग्नेय थी, कालान्तर में द्रवरूप हुई, जो कि अब पृष्ट भाग पर कठोर हुई-हुई है। इस सब में परमेश्वरीय इच्छा या उसकी मूक-आज्ञा काम कर रही है। (मन्द्रजिह्वम्=मन्द्र हर्षप्रदायिनी)+जिह्वा (वाक् निघं০ १.११)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Brhaspati Devata
Meaning
Brhaspati, the sun, which, positioned in the midst of the three regions of earth, skies and heaven, sustains the earth and other planets to the ends with its force and its rays of light and gravitation; Or, the Lord of mighty universe who is omnipresent in the worlds of earth, skies and the heavens of light and rules the universe to the ends of it with his omnipotence and Word of revelation; Or, the ruler, who, self-established in knowledge, action, and prayer, rules the world to the ends of the earth with his power and word and force of law; Or, the eminent scholar, who, master of the three realms of knowledge, Divinity, Prakrti, and the soul with the word of the Veda, rules the heart and intellect of the people to the ends of the earth with his knowledge that is power and his word: Him, lord of sweet voice and vibrations of communication and gravitation, the ancient seers, shining since the first moments of human existence, vibrant with living knowledge and holy desire, sing, celebrate and advance in human consciousness.
Translation
The seers possessing maturity in understanding, illuminating, others with knowledge, celebrated with acumen set in front, that fire which has beautiful tongues of flame and which abiding in three localities (the earth, firmament and heaven) as Brihaspati, the preserver of sun through the thundering props, the ends of the earth with its powers.
Translation
The seers possessing maturity in understanding, illuminating, others with knowledge, celebrated with acumen set in front, that fire which has beautiful tongues of flame and which abiding in three localities (the earth, firmament and heaven) as Brihaspati, the preserver of sun through the thundering props, the ends of the earth with its powers.
Translation
O Mighty Lord of the vast universe, the Vedic Lore, and the great nation, (king, commander or the learned person) whoever amongst us, capable of making the rival forces tremble and cheering up the friendly ones, spread all around the glory of Thee of supreme knowledge and splendor? O Mighty Protector, (king, commander or the learned person) letest Thee protect the shelter or Vedic lore of this group of ours, full of bounties, vast, invincible, and great.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह सूक्त ऋग्वेद में है-४।०।१-६ ॥ १−(यः) विद्वान् दृढीकृतवान् (सहसा) बलेन (वि) विविधम् (ज्मः) जमतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। श्वन्नुक्षन्पूषन्प्लीहन्। उ० १।१९। जमु अदने गतौ च-कनिन्, अकारलोपः। डाबुभाभ्यामन्यतस्याम्। पा० ४।१।१३। इति ङीप्। ज्मा पृथिवीनाम-निघ० १।१-निरु० १२।४३। आतो धातोः। पा० ६।४।१४०। इत्यत्र आत इति योगविभागादाकारलोपः। पृथिव्याः (अन्तान्) सीमाः। दिग्देशान् (बृहस्पतिः) बृहतीनां विद्यानां पालकः पुरुषः (त्रिषधस्थः) त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः सह स्थितः (रवेण) उपदेशेन (तम्) (प्रत्नासः) प्राचीनाः (ऋषयः) वेदार्थवेत्तारः (दीध्यानाः) अ० २।३४।३। दीधीङ् दीप्तिदेवनयोः-शानच्। दीप्यमानाः (पुरः) पुरस्तात्। अग्रे (विप्राः) मेधाविनः (दधिरे) धारितवन्तः (मन्द्रजिह्वम्) आनन्दप्रदजिह्वायुक्तम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(যঃ) যে (ত্রিষধস্থঃ) ত্রিষধস্থ [কর্ম, উপাসনা, জ্ঞান] সহ স্থিত (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি [মহান বেদবিদ্যার রক্ষক পুরুষ] (সহসা) নিজ বল এবং (রবেণ) উপদেশ দ্বারা (জ্মঃ) পৃথিবীর (অন্তান্) অন্ত [দিকসমূহ] পর্যন্ত (বি) বিবিধ প্রকারে (তস্তম্ভ) দৃঢ় করেছেন, (তম্) সেই প্রসিদ্ধ (মন্দ্রজিহ্বম্) আনন্দ প্রদায়ী জিহ্বাযুক্ত বিদ্বানকে (প্রত্নাসঃ) প্রাচীন, (দীধ্যানাঃ) প্রকাশমান [তেজস্বী], (বিপ্রাঃ) বুদ্ধিমান্ (ঋষয়ঃ) ঋষিগণ [বেদার্থ জ্ঞাতাগণ] (পুরঃ) সম্মুখে (দধিরে) ধারণ করেছেন ॥১॥
भावार्थ
যে মনুষ্য কর্ম, উপাসনা ও জ্ঞানে তৎপর হয়ে সম্পূর্ণ পৃথিবীকে আনন্দ প্রদান করে, ঋষিগণ সেই সত্যবাদীকে মূখ্যস্থান, মূখ্য পদ প্রদান করেন ॥১॥ এই সূক্ত ঋগ্বেদে -৪।৫০।১-৬ ॥ আছে।
भाषार्थ
(ত্রিষধস্থঃ) ত্রিলোকে স্থিত (যঃ) যে (বৃহস্পতিঃ) মহাব্রহ্মাণ্ডের পতি, (সহসা) নিজ স্বাভাবিক বলের কারণে, (রবেণ) কেবলমাত্র নিজের আজ্ঞা দ্বারা, (জ্মঃ অন্তান্) পৃথিবীর ভূপৃষ্ঠকে (বি তস্তম্ভ) বিশেষ সুদৃঢ় করেছেন। (প্রত্নাসঃ) অনাদিকালের (ঋষয়ঃ বিপ্রাঃ) ঋষি এবং মেধাবী উপাসক, (মন্দ্রজিহ্বম্) হর্ষপ্রদায়িনী বেদবাণীযুক্ত (তম্) সেই পরমেশ্বরের (দীধ্যানাঃ) সতত ধ্যান করে, (পুরঃ) সদা উনাকে নিজের সম্মুখে (দধিরে) ধারণ করে।
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