अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
इन्द्र॑म॒हं व॒णिजं॑ चोदयामि॒ स न॒ ऐतु॑ पुरए॒ता नो॑ अस्तु। नु॒दन्नरा॑तिं परिप॒न्थिनं॑ मृ॒गं स ईशा॑नो धन॒दा अ॑स्तु॒ मह्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । अ॒हम् । व॒णिज॑म् । चो॒द॒या॒मि॒ । स: । न॒: । आ । ए॒तु॒ । पु॒र॒:ऽए॒ता । न॒: । अ॒स्तु॒ । नु॒दन् । अरा॑तिम् । प॒रि॒ऽप॒न्थिन॑म् । मृ॒गम् । स: । ई॒शा॑न: । ध॒न॒ऽदा: । अ॒स्तु॒ । मह्य॑म् ॥१५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमहं वणिजं चोदयामि स न ऐतु पुरएता नो अस्तु। नुदन्नरातिं परिपन्थिनं मृगं स ईशानो धनदा अस्तु मह्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । अहम् । वणिजम् । चोदयामि । स: । न: । आ । एतु । पुर:ऽएता । न: । अस्तु । नुदन् । अरातिम् । परिऽपन्थिनम् । मृगम् । स: । ईशान: । धनऽदा: । अस्तु । मह्यम् ॥१५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्यापार के लाभ का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैं (इन्द्रम्) बड़े ऐश्वर्यवाले (वणिजम्) वणिक् को (चोदयामि) आगे बढ़ाता हूँ, (सः) वह (नः) हममें (एतु) आवे और (नः) हमारा (पुरएता) अगुआ (अस्तु) होवे। (अरातिम्) वैरी, (परिपन्थिनम्) डाकू और (मृगम्) वनैले पशु को (नुदन्) रगेदता हुआ (सः) वह (ईशानः) समर्थ पुरुष (मह्यम्) मुझे (धनदाः) धन देनेवाला (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य व्यापारकुशल पुरुष को अपना मुखिया बनाकर वाणिज्य और मार्ग की ऊँच-नीच समझकर वाणिज्य में धन लगाने से लाभ उठाते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तं पुरुषम्। (वणिजम्)। षणेरिज्यादेश्च वः। उ० २।७०। इति षण व्यवहारे-इजि, षस्य वः। व्यापारिणम्। (चोदयामि)। प्रेरयामि। प्रवर्तयामि। (नः)। अस्मान्। (ऐतु)। आगच्छतु। (पुरएता)। पुरस्+इण् गतौ-तृच्। पुरोगन्ता। अग्रगामी। (नः)। अस्माकम्। (नुदन्)। णुद प्रेरणे-शतृ। प्रेरयन्। अपगमयन्। (अरातिम्)। अ० १।१८।१। शत्रुम्। (परिपन्थिनम्)। अ० १।२७।१। पर्यवस्थातारं मार्गनिरोधकं चोरम्। (मृगम्)। मृग अन्वेषणे-क। मृगयते अन्वेषयति तृणादिकम् पशुम्। वन्यपशुम्। (ईशानः)। ईश ऐश्वर्ये-शानच्। ईश्वरः। नियन्ता। (धनदाः)। आतो मनिन्क्वनि०। पा० ३।२।७४। इति धन+ददातेः-विच्। वाणिज्यलाभरूपधनप्रदाता। (मह्यम्)। वणिजे ॥
विषय
'महान् वणिक'इन्द्र
पदार्थ
१. (अहम्) = मैं (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली (बणिजम्) = महान् वाणिज्यकर्ता प्रभु को [देहि मे ददामि ते०-यजुः०] (चोदयामि) - इस बात के लिए प्रेरित करता हूँ कि (सः) = वह (न:) = हमें (ऐतु) = प्राप्त हो और प्राप्त होकर हमारा (पुरः एता) = आगे चलनेवाला-पथ-प्रदर्शक हो। हम अपने सब व्यवहार प्रभु-स्मरणपूर्वक करें। २. (अरातिम्-वाणिज्य) = विघातक शत्रुओं को (परिपन्थिनम्) = मार्गनिरोधक चोरों को और (मृगम्) = व्याघ्र आदि को भी (नुदन्) = हमारे मार्ग से दूर करते हुए ये (ईशान:) = नियन्ता ईश्वर (महाम्) = मेरे लिए (धनदाः,अस्तु) = वाणिज्यलाभरूप धनों के प्रदाता हों। ३. प्रभु सबसे बड़े वणिक हैं। जैसा हम कर्म करते हैं, वैसा ही वे फल देते हैं-न कम, न अधिक। इस प्रभु का स्मरण हमें वाणिज्य में सफल करनेवाला हो। यदि हम प्रभु-स्मरण करेंगे तो कुटिलता व छल-छिद्र से दूर रहेंगे।
भावार्थ
हम प्रभु-स्मरणपूर्वक व्यापार करें, प्रभु ही हमारे पथ-प्रदर्शक हों। हमारे मार्ग में 'अराति, परिपन्थी व मृग' विघातक न हों।
भाषार्थ
(अहम्) मैं [राष्ट्रपति राजा] (वणिजम्) वाणिज्य अर्थात् व्यापार के कर्त्ता (इन्द्रम्) ऐश्वर्यशाली को (चोदयामि) प्रेरित करता हूँ, (सः) वह (नः) हमें (ऐतु) प्राप्त हो, (नः) हमारा (पुरः एता) अग्रगामी, अग्रणी (अस्तु) हो। (अरातिम्) अदाता को, (परिपन्थिनम्) मत्प्रदर्शित पथ के विरोधी को (मृगम्) मृग सदृश कृषिविनाशक को (नुदन्) धकेलता हुआ, (सः) वह (ईशानः) धनेश्वर इन्द्र (मह्यम्) मुझे (धनदा:) धनदाता (अस्तु) हो।
टिप्पणी
[राजा, व्यापारज्ञ वणिक् को, व्यापाराध्यक्ष नियत करता है। उसे कहता है कि मैंने व्यापार की जो नीति निर्धारित की है, उसके विरोधी को तू धकेल दे और वन्यमृगों को भी धकेल दे, जो कि समीपस्थ ग्रामीण-कृषि का विनाश करते हैं। मन्त्र आधिभौतिक अर्थ को परिपुष्ट करता है 'इन्द्र' को वणिक् कहकर।]
विषय
वणिग्-व्यापार का उपदेश ।
भावार्थ
व्यापार करने का उपदेश करते हैं । (अहं) मैं व्यापार-व्यवसाय की वृद्धि चाहने वाला पुरुष (इन्द्रम्) ऐश्वर्यशाली धनी, (वणिजम्) व्यवहार-व्यापार में कुशल पुरुष को (चोदयामि) प्रेरणा करता हूं कि (सः नः एतु) वह हमारे पास आवे और (नः पुरः-एता अस्तु) हमारे आगे २ चलने हारा, मुख्य पुरुष होकर रहे । वह (अरातिं) दान न करने या कर न देने हारे शत्रु को (परिपन्थिनं) व्यापार के मार्ग और व्यवस्था के उल्लंघन करने वाले, या व्यापार के मार्ग में लूट और चोरी करने वाले, (मृगं) चोर पुरुष को (नुदत्) पीड़ित, दण्डित करता हुआ (सः ईशानः) वह सब का स्वामी होकर (मह्यम्) मुझे (धनदाः) धन का देने वाला (अस्तु) हो ।
टिप्पणी
‘इन्द्रं वयं वणिजं हवामहे स नस्त्राता पुर एतु प्रजानन्’ इति पैप्प० सं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पण्यकामोऽथर्वा ऋषिः। विश्वेदेवाः उत इन्द्राग्नी देवताः। १ भुरिक्, ४ त्र्यवसाना बृहतीगर्भा विराड् अत्यष्टिः । ५ विराड् जगती । ७ अनुष्टुप् । ८ निचृत् । २, ३, ६ त्रिष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Business and Finance
Meaning
I stir up and exhort Indra, master spirit and centre pin of the business world, that he may come forward to us and be our leader and pioneer, giving incentive to the dullard, shaking up the niggardly non-giver, correcting the misappropriator and punishing the cruel grabber of other’s share of wealth in the process of business. Ruling, controlling and organising, he should indeed be the giver and provider, not the grabber of wealth, for us.
Subject
Indra
Translation
I urge the resplendent one (Indra), the trader. May he come to us and be our leader. Slaying the defaulter (who does not . Pay our dues), the highway man and the wild beast, may he become the master as well as bestower of riches for me.(Paripanthinam- highway man; the thief or robber)
Translation
I encourage the rich businessman, may he approach us and be our guide and leader, May he chastising ill-will, anti-business rober and having Control over others, be giver of riches for us.
Translation
I stir and animate the wealthy merchant; may he approach us and be our guide and leader. Chasing ill-will, wild beast, and highway robber, may he who hath the power give me riches.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तं पुरुषम्। (वणिजम्)। षणेरिज्यादेश्च वः। उ० २।७०। इति षण व्यवहारे-इजि, षस्य वः। व्यापारिणम्। (चोदयामि)। प्रेरयामि। प्रवर्तयामि। (नः)। अस्मान्। (ऐतु)। आगच्छतु। (पुरएता)। पुरस्+इण् गतौ-तृच्। पुरोगन्ता। अग्रगामी। (नः)। अस्माकम्। (नुदन्)। णुद प्रेरणे-शतृ। प्रेरयन्। अपगमयन्। (अरातिम्)। अ० १।१८।१। शत्रुम्। (परिपन्थिनम्)। अ० १।२७।१। पर्यवस्थातारं मार्गनिरोधकं चोरम्। (मृगम्)। मृग अन्वेषणे-क। मृगयते अन्वेषयति तृणादिकम् पशुम्। वन्यपशुम्। (ईशानः)। ईश ऐश्वर्ये-शानच्। ईश्वरः। नियन्ता। (धनदाः)। आतो मनिन्क्वनि०। पा० ३।२।७४। इति धन+ददातेः-विच्। वाणिज्यलाभरूपधनप्रदाता। (मह्यम्)। वणिजे ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অহম্) আমি [রাষ্ট্রপতি রাজা] (বণিজম্) বাণিজ্য অর্থাৎ ব্যবসার কর্তা (ইন্দ্রম্) ঐশ্বর্যশালীকে (চোদয়ামি) প্রেরিত করছি/করি, (সঃ) তিনি (নঃ) আমাদের (এতু) প্রাপ্ত হোক, (নঃ) আমাদের (পুরঃ এতা) অগ্রগামী, অগ্রণী (অস্তু) হোক। (অরাতিম) অদাতাকে, (পরিপন্থিনম্) মৎপ্রদর্শিত পথের-বিরোধীকে (মৃগম্) মৃগ সদৃশ কৃষিবিনাশককে (নুদন্) ধাক্কা দিয়ে/অপসারিত করে, (সঃ) সেই (ঈশানঃ) ধনেশ্বর ইন্দ্র (মহ্যম্) আমাকে (ধনদাঃ) ধনদাতা (অস্তু) হোক।
टिप्पणी
[রাজা, বাণিজ্য সম্পর্কে অভিজ্ঞ বণিককে, বাণিজ্যাধ্যক্ষ হিসেবে নিয়ত করে। তাঁকে বলে যে, আমি বাণিজ্যের যে নীতি নির্ধারিত করেছি, তার বিরোধীকে তুমি সরিয়ে দাও/অপসারিত করো এবং বন্যমৃগদেরও সরিয়ে দাও/অপসারিত করো, যে সমীপস্থ গ্রামীণ-কৃষির বিনাশ করে। 'ইন্দ্র' কে বণিক্ সম্বোধনের মাধ্যমে মন্ত্র আধিভৌতিক অর্থ পরিপুষ্ট করে।]
मन्त्र विषय
ব্যাপারলাভোপদেশঃ
भाषार्थ
(অহম্) আমি (ইন্দ্রম্) পরম ঐশ্বর্যবান (বণিজম্) বণিককে (চোদয়ামি) অগ্ৰগামী/প্রেরণ করি, (সঃ) তিনি (নঃ) আমাদের মধ্যে (এতু) আসবেন/আগমন করুক/আসুক এবং (নঃ) আমাদের (পুরএতা) প্রমুখ/অগ্রণী (অস্তু) হবেন/হোক। (অরাতিম্) শত্রু, (পরিপন্থিনম্) ডাকাত ও (মৃগম্) বন্য পশুকে (নুদন্) দূর/অপসারিত করে (সঃ) সেই (ঈশানঃ) সমর্থ পুরুষ (মহ্যম্) আমাকে (ধনদাঃ) ধন প্রদানকারী (অস্তু) হবেন/হোক ॥১॥
भावार्थ
মনুষ্য বানিজ্যকুশল পুরুষকে নিজেদের প্রধান/অগ্রণী করে বাণিজ্য ও মার্গের উন্নতি-ক্ষতি বুঝে বাণিজ্যে ধন প্রয়োগ করে লাভ করে॥১॥
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