अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अग्निः, इन्द्रः, मित्रावरुणौ, भगः, पूषा, सोमः
छन्दः - आर्षी जगती
सूक्तम् - कल्याणार्थप्रार्थना
2
प्रा॒तर॒ग्निं प्रा॒तरिन्द्रं॑ हवामहे प्रा॒तर्मि॒त्रावरु॑णा प्रा॒तर॒श्विना॑। प्रा॒तर्भगं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॑ प्रा॒तः सोम॑मु॒त रु॒द्रं ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒त: । अ॒ग्निम् । प्रा॒त: । इन्द्र॑म् । ह॒वा॒म॒हे॒ । प्रा॒त: । मि॒त्रावरु॑णा । प्रा॒त: । अ॒श्विना॑ । प्रा॒त: । भग॑म् । पू॒षण॑म् । ब्रह्म॑ण: । पति॑म् । प्रा॒त: । सोम॑म् । उ॒त । रु॒द्रम् । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥१६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना। प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातः सोममुत रुद्रं हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठप्रात: । अग्निम् । प्रात: । इन्द्रम् । हवामहे । प्रात: । मित्रावरुणा । प्रात: । अश्विना । प्रात: । भगम् । पूषणम् । ब्रह्मण: । पतिम् । प्रात: । सोमम् । उत । रुद्रम् । हवामहे ॥१६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बुद्धि बढ़ाने के लिये प्रभात गीत।
पदार्थ
(प्रातः) प्रातःकाल (अग्निम्) [पार्थिव] अग्नि को, (प्रातः) प्रातःकाल (इन्द्रम्) बिजुली वा सूर्य को, (प्रातः) प्रातःकाल (मित्रावरुणा=०-णौ) प्राण और अपान को, (प्रातः) प्रातःकाल (अश्विना) कामों में व्याप्ति रखनेवाले माता पिता को (हवामहे) हम बुलाते हैं। (प्रातः) प्रातःकाल (भगम्) ऐश्वर्यवान्, (पूषणम्) पोषण करनेवाले (ब्रह्मणः) वेद, ब्रह्माण्ड, अन्न वा धन के (पतिम्) पति, परमेश्वर को, (प्रातः) प्रातःकाल (सोमम्) ऐश्वर्य करानेवाले वा मनन किये हुए पदार्थ वा आत्मा [अपने बल] वा अमृत [मोक्ष, वा अन्न, दुग्ध, घृतादि] को (उत) और (रुद्रम्) दुःखनाशक वा ज्ञानदाता आचार्य को (हवामहे) हम बुलाते हैं ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य प्रातःकाल [सूर्य निकलने से छः घड़ी पहिले] परमेश्वर का ध्यान करता हुआ, मन्त्र में वर्णित पार्थिव और सौर अग्नि के प्रयोग आदि अन्य आवश्यक कर्मों का विचार करके आत्मा को बढ़ाता हुआ अपने कर्त्तव्य में लगे ॥१॥ यह पूरा सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद ७।४१।१-७ और यजुर्वेद अध्याय ३४ मन्त्र ३४-५० में है ॥
टिप्पणी
१−(प्रातः) प्राततेररन्। उ० ५।५९। इति प्र+अत सातत्यमगने-अरन्। सूर्योदयादधित्रिमुहूर्त्तकाले। प्रभातकाले। (अग्निम्) पार्थिवाग्निम्। (इन्द्रम्) विद्युतं सूर्यं वा। (हवामहे) आह्वयामः। (मित्रावरुणा) अ० १।२०।३। प्राणापानौ। (अश्विना अ० २।२९।६। अश्वो व्याप्तिः-इनि। कार्येषु व्याप्तिमन्तौ मातापितरौ। (भगम्) अ० १।१४।१। भगो धनम्, ततो अर्शे-आद्यच्। ऐश्वर्यवन्तम्। (पूषणम्) अ० १।९।१। सर्वपोषकम्। (ब्रह्मणः) अ० १।८।४। वेदस्य। ब्रह्माण्डस्य। अन्नस्य-निघ० २।७। धनस्य-निघ० २।१०। (पतिम्) रक्षकम्। स्वामिनम्। (सोमम्) अ० १।६।२। षु प्रसवैश्वर्ययोः, यद्वा, षुञ् अभिषवे-मन्। सोमः सूर्यः प्रसवनात्......सोम आत्माप्येतस्मादेवेन्द्रियाणां जनितेत्यर्थः- निरु० १४।२५। ऐश्वर्यवन्तम्। अभिषुतं मथितम्। आत्मानम्। अमृतम्। (उत) अपि च। (रुद्रम्) अ० २।२७।६। रुत्+र। दुःखनाशकं ज्ञानदातारं वाचार्यम् ॥
विषय
कैसा जीवन?
पदार्थ
१. जीवन के प्रभात में हम (अग्रिम) = अग्रणी प्रभु को (हवामहे) = पुकारते हैं, अपने अन्दर प्रगति की भावना को भरते हैं। (प्रात:) = प्रात:काल में (इन्द्रम्) = जितेन्द्रियता की भावना को अपने में भरते हैं। सारी प्रगति जितेन्द्रियता पर ही निर्भर है। २. (प्रात:) = प्रात:काल हम (मित्रावरुणा) = स्रहे व निषता की देवता को पुकारते हैं और (प्रात:) = इस प्रात:काल में (अश्विना) = प्राणापान को पुकारते हैं। प्राण-साधना ही हमें ढेष से दूर करके नेहवाला बनाती है। ३. (प्रात:) = प्रात:काल हम (भगम्) = ऐश्वर्य की देवता को पुकारते हैं जो (पूषणम्) = हमारा पोषण करनेवाली है तथा (ब्रह्मणस्पतिम्) = ज्ञान का रक्षण करनेवाली है। ४. (प्रातः) = प्रात:काल में हम (सोमम्) = सौम्यता व विनीतता के देवता को (हवामहे) = पुकारते हैं (उत) = और रुद्रम् [हवामहे]-रुद्र की अराधना करते हैं, शत्रुओं के लिए रुद्र बनते हैं।
भावार्थ
हम प्रात:काल जितेन्द्रियता, द्वेषशून्यता, स्नेहशीलता, सौम्य व रुद्र भावनाओं को अपने जीवन में धारण करते हैं।
भाषार्थ
(प्रात:) प्रातःकाल [की उपासना में] (अग्निम्) पापदाहक परमेश्वर का, (प्रातः इन्द्रम्) प्रात:काल परमैश्वर्यवान् परमेश्वर का, (प्रातः) प्रात:काल (मित्रावरुणा) सर्वस्नेही अतः वरण करने योग्य परमेश्वर का, (प्रातः) प्रात:काल (अश्विनौ) प्राणायाम द्वारा प्राणापान अर्थात् श्वास-प्रश्वास का, (प्रातः) प्रातःकाल (भगम्) भगों से सम्पन्न भजन परमेश्वर का, (प्रातः) प्रात:काल (पूषणम्) पोषक परमेश्वर का, तथा (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्ड तथा वेद के पति परमेश्वर का, (प्रातः) प्रात:काल (सोमम्) सौम्य स्वभाववाले परमेश्वर का, (उत) तथा (रुद्रम्) हमारे कर्मानुसार रौद्र फलप्रद स्वभाववाले परमेश्वर का (हवामहे) हम आह्वान करते हैं।
टिप्पणी
[मन्त्रोक्त नाम परमेश्वर के हैं और परमेश्वर के भिन्न- भिन्न गुण-कर्मों का प्रतिपादन करते हैं। अग्नि सर्वदाहक है, परमेश्वर भी सब दुरितों का दाहक है। मित्र:=ञिमिदा स्नेहने (भ्वादिः); वरुणः व्रियते वाऽसौ वरुणः (उणा० ३।५३, दयानन्द) (अश्विनौ नासत्यौ, नासाप्रभवौ इति वा, (निरुक्त ६।३।१३; पद ५०, ५१)। सोमम्, रुद्रम्=परमेश्वर है तो सौम्य स्वभाववाला, परन्तु हमारे दुष्कर्मों का उग्रफल देने में वह रुद्ररूप है, रुलाता भी है, ताकि मनुष्य दुष्कर्मों से विरत हो जाए। इस प्रकार रौद्ररूप में भी वह सौम्य स्वभावाला है। भगम्=समग्रैश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य-ये ६ भग हैं, तथा भग=भजनीय, भज सेवायाम् (भ्वादिः)। आह्वान=ध्यान में ध्याता के चित्त में उपस्थित होना प्रकट होना, हवामहे द्वारा परमेश्वर का आह्वान है।]
विषय
नित्य प्रातः ईश्वरस्तुति का उपदेश ।
भावार्थ
नित्य प्रातःकाल ईश्वर स्तुति करने का उपदेश करते हैं । हम लोग (प्रातः) प्रभातवेला में (अग्निं) उस प्रकाशस्वरूप परमेश्वर की, (प्रातः) और प्रभातवेला में ही उस (इन्द्रं) परमैश्वर्यवान्, परमेश्वर की और (प्रातः) प्रातःकाल के अवसर में ही (मित्रावरुणा) प्राण और उदान इन दोनों के समान सर्वस्नेही, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की और (प्रातः) प्रभातकाल में ही (अश्विना) गुरु और उपदेशक माता और पिता दोनों की (हवामहे) उपासना करें, आदर करें व्यवस्थित करें और नमस्कार करें । (प्रातः) प्रभातकाल में ही (भगं) भजन करने योग्य, (पूषणम्) सब के पोषक, (ब्रह्मणस्पतिं) वेद और ब्रह्माण्ड के स्वामी प्रभु की और (प्रातः) प्रभातकाल में ही उस (सोमं) अन्तर्यामी प्रेरक (उत रुद्रं) और पापियों को रुलाने हारे, सर्वरोगनाशक जगदीश्वर की (हवामहे) उपासना करें ।
टिप्पणी
ऋग्वेद वसिष्ठ ऋषिः । लिङ्गोक्ता देवताः । ‘रुद्रं हुवेम’, इति पाठभेदः, ऋ पैप्प० सं०। ‘भगमुग्रं हुवेम’ इति पाठभेदः ऋ०, पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । बृहस्पत्यादयो नाना देवताः । १ आर्षी जगती । ४ भुरिक् पंक्तिः । २, ३, ५-७ त्रिष्टुभः । सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Morning Prayer
Meaning
Early morning we invoke Agni, lord of light, light the holy fire, and pray for the light of life. Early morning we invoke Indra and pray for honour and power. Early morning we invoke Mitra and Varuna and pray for the energy of prana and udana. Early morning we invoke Bhaga and pray for strength, prosperity and life’s glory. We invoke Pusha and pray for health and nourishment. We invoke Brahmanaspati, lord omni¬ scient and infinite, and pray for knowledge and vision of divine grandeur. Early morning we invoke Soma and pray for peace and joy. Early morning we invoke Rudra and pray for love, justice and spiritual courage.
Subject
Agni - Indra Pair
Translation
We invoke at the morning the fire - divine; at dawn, the Lord of Light and Plasma; at dawn, the pair Of twin divines; at dawn, the Lord of riches and nourishment; and. universal ` priest at the morning , the Lord of Bliss and Vitality.(Cf.Rv. VII.41.1)( A morning invocation to divine Lord and Nature’s bounties; agni,indra,mitra,varuņa,ašvinau, bhaga, pisan, brahmanaspati, soma and rudra)
Translation
At dawn we invoke Agni, Self-refulgent, God, at dawn we invoke Indra, God of Supreme power, at dawn we invoke Mitra, God, the friend of all, Varuna, God, the only object of our choice and at dawn we invoke Ashvinau, the Creator of the Sun and moon. At dawn we invoke Bhaga-God the only Being to be served, at dawn we invoke Pasan, God. the nourisher of the universe and Brahmanaspati, God, the Lord of Mighty object, at dawn we invoke Som, All-impelling God and at dawn we invoke Rudra, God, the chastiser of evil-doers.
Translation
Agni at dawn, and Indra we invoke at dawn, and Varuna and Mitra, and the Asvins twain; Bhaga at dawn, Pushan and Brahmanaspati, Soma at dawn, and Rudra we invoke at dawn.
Footnote
(a) Agni is Refulgent God. (b) Indra is Powerful. Supreme God. (c) Mitra, Varuna: Both the words refer to Gad, who is dear to all like breaths, and is omnipotent. (d) Aswins refer to preceptor and preacher, or father and mother. (e) Bhaga is Adorable God. (f) Pushan is All-sustaining God. (g) Brahmanaspati is God, the Master or the Vedas and the universe. (h) Soma is Omnipresent God. (i) Rudra is God, the chastiser of the sinners. See Rig., 9, 47, 1-7 and Yajur, chapter 34 and verses 34-50.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(प्रातः) प्राततेररन्। उ० ५।५९। इति प्र+अत सातत्यमगने-अरन्। सूर्योदयादधित्रिमुहूर्त्तकाले। प्रभातकाले। (अग्निम्) पार्थिवाग्निम्। (इन्द्रम्) विद्युतं सूर्यं वा। (हवामहे) आह्वयामः। (मित्रावरुणा) अ० १।२०।३। प्राणापानौ। (अश्विना अ० २।२९।६। अश्वो व्याप्तिः-इनि। कार्येषु व्याप्तिमन्तौ मातापितरौ। (भगम्) अ० १।१४।१। भगो धनम्, ततो अर्शे-आद्यच्। ऐश्वर्यवन्तम्। (पूषणम्) अ० १।९।१। सर्वपोषकम्। (ब्रह्मणः) अ० १।८।४। वेदस्य। ब्रह्माण्डस्य। अन्नस्य-निघ० २।७। धनस्य-निघ० २।१०। (पतिम्) रक्षकम्। स्वामिनम्। (सोमम्) अ० १।६।२। षु प्रसवैश्वर्ययोः, यद्वा, षुञ् अभिषवे-मन्। सोमः सूर्यः प्रसवनात्......सोम आत्माप्येतस्मादेवेन्द्रियाणां जनितेत्यर्थः- निरु० १४।२५। ऐश्वर्यवन्तम्। अभिषुतं मथितम्। आत्मानम्। अमृतम्। (उत) अपि च। (रुद्रम्) अ० २।२७।६। रुत्+र। दुःखनाशकं ज्ञानदातारं वाचार्यम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(প্রাতঃ) প্রাতঃকাল [এর উপাসনায়] (অগ্নিম্) পাপদাহক পরমেশ্বরের (প্রাতঃ ইন্দ্রম্) প্রাতঃকাল পরমৈশ্বর্যবান্ পরমেশ্বরের, (প্রাতঃ) প্রাতঃকাল (মিত্রাবরুণা) সর্বস্নেহী অতঃ বরণযোগ্য পরমেশ্বরের, (প্রাতঃ) প্রাতঃকাল (অশ্বিনৌ) প্রাণায়াম দ্বারা প্রাণাপান অর্থাৎ শ্বাস-প্রশ্বাসের (প্রাতঃ) প্রাতঃকাল (ভগম্) ভগসম্পন্ন ভজনীয় পরমেশ্বরের, (প্রাতঃ) প্রাতঃকাল (পূষণম্) পোষক পরমেশ্বরের, এবং (ব্রহ্মণস্পতিম্) ব্রহ্মাণ্ড ও বেদের পতি পরমেশ্বরের, (প্রাতঃ) প্রাতঃকাল (সোমম্) সৌম্য স্বভাবসম্পন্ন পরমেশ্বরের, (উত) এবং (রুদ্রম্) আমাদের কর্মানুসারে রৌদ্র ফলপ্রদ স্বভাবযুক্ত পরমেশ্বরের (হবামহে) আমরা আহ্বান করছি/করি।
टिप्पणी
[মন্ত্রোক্ত নাম পরমেশ্বরের এবং পরমেশ্বরের ভিন্ন-ভিন্ন গুণ কর্মের প্রতিপাদন করে। অগ্নি হলো সর্বদাহক, পরমেশ্বরও সমস্ত পাপের দাহক। মিত্রঃ= ঞিমিদা স্নেহনে (ভ্বাদিঃ); বরুণঃ= ব্রিয়তে বাঽসৌ বরুণঃ (উণা০ ৩।৫৩, দয়ানন্দ) (অশ্বিনৌ নাসত্যো নাসাপ্রভবৌ ইতি বা, (নিরুক্ত ৬।৩।১৩; পদ ৫০, ৫১)। সোমম্, রুদ্রম্ = পরমেশ্বর যদিও সৌম্য স্বভাবযুক্ত, কিন্তু আমাদের দুষ্কর্মগুলির উগ্রফল প্রদান করতে তিনি রুদ্ররূপ, কাঁদায়, যাতে মনুষ্য দুষ্কর্ম-সমূহ থেকে বীরত হয়ে যায়। এইভাবে রৌদ্ররূপেও তিনি সৌম্য স্বভাবযুক্ত। ভগম্=সমগ্রৈশ্বর্য, ধর্ম, যশ, শ্রী, জ্ঞান, বৈরাগ্য- এই ৬ ভগ রয়েছে, এবং ভগ= ভজনীয়, ভজ সেবায়াম্ (ভ্বাদিঃ)। আহ্বান= ধ্যানে, ধ্যাতা-এর চিত্তে উপস্থিত হওয়া, প্রকট হওয়া, হবামহে দ্বারা পরমেশ্বরের আহ্বান করা হয়েছে।]
मन्त्र विषय
বুদ্ধিবর্ধনায় প্রভাতগীতিঃ
भाषार्थ
(প্রাতঃ) প্রাতঃকালে (অগ্নিম্) [পার্থিব] অগ্নিকে, (প্রাতঃ) প্রাতঃকালে (ইন্দ্রম্) বিদ্যুৎ বা সূর্যকে, (প্রাতঃ) প্রাতঃকালে (মিত্রাবরুণা=০-ণৌ) প্রাণ ও অপান-কে, (প্রাতঃ) প্রাতঃকালে (অশ্বিনা) কার্যে ব্যাপ্ত মাতা-পিতাকে (হবামহে) আমরা আহ্বান করি। (প্রাতঃ) প্রাতঃকালে (ভগম্) ঐশ্বর্যবান্, (পূষণম্) পোষণকারী (ব্রহ্মণঃ) বেদ, ব্রহ্মাণ্ড, অন্ন বা ধন-সম্পদের (পতিম্) পতি, পরমেশ্বরকে, (প্রাতঃ) প্রাতঃকালে (সোমম্) ঐশ্বর্য প্রদানকারী বা মন্থিত পদার্থ বা আত্মা [নিজের বল/শক্তি] বা অমৃত [মোক্ষ, বা অন্ন, দুগ্ধ, ঘৃতাদি]কে (উত) এবং (রুদ্রম্) দুঃখনাশক বা জ্ঞানদাতা আচার্যকে (হবামহে) আমরা আহ্বান করি ॥১॥
भावार्थ
মনুষ্য প্রাতঃকাল [সূর্য উদিত হওয়ার প্রায় আড়াই ঘন্টা আগে] পরমেশ্বরের ধ্যান করে, মন্ত্রে বর্ণিত পার্থিব ও সৌর অগ্নি এর প্রয়োগ আদি অন্য আবশ্যক কর্মের বিচার করে আত্মাকে সমৃদ্ধ করে নিজের কর্ত্তব্যে নিয়োজিত হোক ॥১॥ এই সম্পূর্ণ সূক্ত কিছুটা আলাদাভাবে ঋগ্বেদ ৭।৪১।১-৭ এবং যজুর্বেদ অধ্যায় ৩৪ মন্ত্র ৩৪-৫০ এ রয়েছে।
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