अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
सीरा॑ युञ्जन्ति क॒वयो॑ यु॒गा वि त॑न्वते॒ पृथ॑क्। धीरा॑ दे॒वेषु॑ सुम्न॒यौ ॥
स्वर सहित पद पाठसीरा॑ । यु॒ञ्ज॒न्ति॒ । क॒वय॑: । यु॒गा । वि । त॒न्व॒ते॒ । पृथ॑क् । धीरा॑: । दे॒वेषु॑ । सु॒म्न॒ऽयौ ॥१७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुम्नयौ ॥
स्वर रहित पद पाठसीरा । युञ्जन्ति । कवय: । युगा । वि । तन्वते । पृथक् । धीरा: । देवेषु । सुम्नऽयौ ॥१७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
खेती की विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(धीराः) धीर (कवयः) बुद्धिमान् [किसान] लोग (देवेषु) व्यवहारी पुरुषों पर [सुम्नयौ] सुख पाने [की आशा] में (सीरा=सीराणि) हलों को (युञ्जन्ति) जोड़ते हैं, और (युगा=युगानि) जुओं को (पृथक्) अलग-अलग करके [दोनों ओर] (वि तन्वते) फैलाते हैं ॥१॥
भावार्थ
जैसे किसान लोग खेती करके अन्य पुरुषों को सुख पहुँचाते और आप सुखी रहते हैं, इसी प्रकार सब मनुष्यों को परस्पर उपकारी होकर सुख भोगना चाहिये ॥१॥
टिप्पणी
१−(सीरा) शुसिचिमीनां दीर्घश्च। उ० २।२५। इति षिञ् बन्धने-क्रन्। दीर्घश्च। सीराणि लाङ्गलानि। (युञ्जन्ति) योजयन्ति कर्षणार्थम्। (कवयः) मेधाविनः-निघ० ३।१५। कुशलाः कृषीवलाः। (युगा) उञ्छादीनां च। पा० ६।१।१६०। इति युज संयमे, युतौ-घञ्। अगुणत्वं निपातनात्। युगानि। रथहलादेरङ्गभेदान्। (वि तन्वते) प्रसारयन्ति। (पृथक्) प्रथेः कित् सम्प्रसारणं च। उ० १।१३७। इति प्रथ ख्यातौ-अजि। भिन्नभिन्ने स्कन्धदेशे। (धीराः) अ० २।३५।३। ध्यानवन्तः। (देवेषु) विद्वत्सु। व्यवहारिषु पुरुषेषु। (सुम्नयौ) रास्नासास्ना०। उ० ३।१५। इति सु+म्ना अभ्यासे, वा मा माने-न प्रत्ययः। निपातनात् सिद्धिः। सुम्नं सुखम्-निघ० ३।६। मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति सुम्न+या गतौ प्रापणे च भावे कु। सुखस्य गतौ प्राप्तौ प्रापणे वा ॥
विषय
हल, जुआ, बैल
पदार्थ
१. (कवयः) = मेधावी लोग (सीरा) = हलों को (युञ्जन्ति) = कर्षण के लिए जोड़ते हैं। (धीरा:) = धीमान् बुद्धिमान ये लोग (युगा) = जुओं को (पृथक वितन्वते) = बैलों के कन्धों पर फैलाते हैं। २. ये बुद्धिमान कवि (देवेषु) = देवों के विषय में (सुम्नयौ) = [सुम्नं सुखकर हविलक्षणमन्नं यातः प्रापयतः] सुखकर अन्नों को प्राप्त करानेवाले बैलों को [युञ्जन्ति] जोतते हैं।
भावार्थ
बुद्धिमान् पुरुष हलों को जोतते हैं, जुओं को बैलों के कन्धों पर डालते हैं, बैलों को जोतकर यज्ञार्थ अन्नों को प्राप्त करते हैं।
भाषार्थ
(कवयः) बुद्धिमान् (सीराः) हलों को (युञ्जन्ति) युक्त करते हैं, और (पृथक्) पृथक्-पृथक् बैलों में (युगा=युगानि) जुआओं का (वि तन्वन्ति) विस्तार करते हैं। (धीराः) बुद्धिमान् (देवेषु) देवकार्यों के निमित्त (सुम्नयौ) सुख प्राप्त करानेवाले दो बैलों को [हल में] युक्त करते हैं।
टिप्पणी
[हलों को युक्त करना, बैलों के साथ। तथा प्रत्येक बैल पर जुआ लगाना। देवकार्य हैं यज्ञादि; तथा अतिथिदेव आदि का सत्कार। कृषि से उत्पन्न अन्न द्वारा इनका सत्कार भी देवकार्य है। कृषिकर्म बुद्धिमानों का काम है, जोकि वंशपरम्परा में जारी रहता है। नौकरी तो कुछ काल के लिए होती है, और कृषिकर्म एक स्थिर कार्य है। कवयः=कविः मेधाविनाम (निघं० ३।१५)। धीरा:= धी+रा: (मत्वर्थीयः)। सुम्नयौ१=सुम्नं सुखनाम (निघं० ३।६)+या प्रापणे। हल के साथ दो बैलों को जोतना चाहिए, भूमिकर्षण में एक बैल का जोतना उसके लिए कष्टदायक होता है।] [१. सुमन्यौ बलीवर्दौ (सायण), याते: "आतो मनिन्" इति विच् (सायण)।]
विषय
कृषि और अध्यात्म योग का उपदेश ।
भावार्थ
कृषिविद्या के उपदेश के साथ २ योग द्वारा ब्रह्मप्राप्ति का उपदेश करते हैं। (देवेषु) विद्वान् पुरुषों में (सुम्न्यौ) सुख के प्राप्त करने वाले आत्मारूप क्षेत्र में (कवयः) विद्वान् दूरदर्शी लोग (सीराः) प्राणरूप हलों को (युञ्जन्ति) युक्त करते हैं और (धीराः) धीर बुद्धिमान् पुरुष (युगा) योग के अङ्गोंरूप जुओं को (पृथक्) पृथक् २ (वि तन्वते) प्राणरूप बैलों के कन्धों पर रखते हैं अर्थात् उनका पृथक् २ अभ्यास करते हैं । उसी प्रकार हे पुरुषो ! तुम भी करो । महर्षि दयानन्द ने योग समाधिपक्ष में इस प्रकार लगाया है—(कवयः) विद्वान्, क्रान्तदर्शी, क्रान्तप्रज्ञ और (धीराः) ध्यान वाले योगी जन (पृथक्) अलग २ (सीराः) योगाभ्यास द्वारा ब्रह्म की उपासना करने के लिये सीरा=नाडियों में अपने चित्त को लगाते हैं अर्थात् परमात्मा का ज्ञान करने का यत्न करते हैं । और जो (युगा) योगयुक्त कर्मों को (वितन्वते) करते हैं वे (देवेषु) विद्वान् जनों में (सुम्नया) सुख से रह कर परमानन्द को प्राप्त करते हैं । (देखो ऋग्वेदादिभाष्य, उपासना-विषय) अथवा—जिस प्रकार किसान सीर अर्थात् हलों को जोतते और पृथक् २ बैलों पर जुआ लगाते हैं, धीर लोग सीराः प्राणों को योगाभ्यास से वश करते हैं और पृथक उनपर योग की क्रियाओं का अभ्यास करते हैं । और वे धीर=ध्यानी जन (देवेषु) इन्द्रिय गणों पर सुम्नयु=सुख को प्राप्त कराने वाली सुषुम्ना नाड़ी में भी योगाभ्यास करते हैं। शतपथ में इन मन्त्रों की अध्यात्म व्याख्या करते हुए यह विशेष लिखा है—“सवा आत्मानमेव वि कृपति। एतद्वा अस्मिन् देवाः संस्करिष्यन्तः पुरस्तात्प्राणान् अदधुः तथैवाऽस्मिन्नयमेतत् संस्करिष्यन् पुरस्तात्प्राणान् दधाति । लेखा भवन्ति लेखासु हि इमे प्राणाः। ” फलतः—आत्मा ही क्षेत्र है उसमें प्राण ही लेखा है जो उनकी नाना वृत्तियों द्वारा उसमें पृथक् २ वर्त्तमान है। वे जोड़े हैं, दो नाक, दो कान, दो आंख, प्राण-अपान, व्यान, उदान। इन सब देवों में सुम्नयु=सुख के संचारकरूप आत्मा में ही धीर पुरुष अपनी समस्त चित्तवृत्ति का निरोध अर्थात् योग करते हैं ।
टिप्पणी
(वृ०) ‘सुम्नया’ इति ऋ०, यजु०। ऋग्वेदे (१,२) अनयोर्बुधः सौम्य ऋषिः । विश्वेदेवा ऋत्विजो वा देवताः। तत्रैव (३-९) एतासां वामदेव ऋषिः । शुनासीरौ सीता च देवता ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः सीता देवता । १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुभः । ३ पथ्या-पंक्तिः । ७ विराट् पुरोष्णिक् । ८, निचृत् । ३, ४, ६ अनुष्टुभः । नवर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Farming
Meaning
Men of vision and creativity use the plough and the yoke. Men of constancy among the brilliant and generous separately as well as together expand the beauty and graces of life devoutly thus for peace and well being.
Subject
Sita - Furrow
Translation
The wise farmers (kavayaļ) hamess the ploughs (sira); they extend severally the yokes (yuga)- they the wise ones | (dhira), with a longing for favour (sumnayau) towards the enlightened experts (devesu). (also Rv. X. 101.4)
Translation
The men of wisdom and firm attitude bind plough fast and harness the Yokes on the side to attain the wealth of grains among the men of learning’s.
Translation
The learned, contemplative yogis, individually, concentrate their mindon the arteries, for worshipping God through yoga. They perform yogic exercises. Living in the midst of the wise with ease, they attain to final beatitude.
Footnote
See Rig, 10-10-14, and Yajur, 12-67. This hymn is generally applied to agriculture, but Maharshi Dayananda has given it a spiritual interpretation in the Rigveda Adi BhashyaBhumika, which I have followed.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(सीरा) शुसिचिमीनां दीर्घश्च। उ० २।२५। इति षिञ् बन्धने-क्रन्। दीर्घश्च। सीराणि लाङ्गलानि। (युञ्जन्ति) योजयन्ति कर्षणार्थम्। (कवयः) मेधाविनः-निघ० ३।१५। कुशलाः कृषीवलाः। (युगा) उञ्छादीनां च। पा० ६।१।१६०। इति युज संयमे, युतौ-घञ्। अगुणत्वं निपातनात्। युगानि। रथहलादेरङ्गभेदान्। (वि तन्वते) प्रसारयन्ति। (पृथक्) प्रथेः कित् सम्प्रसारणं च। उ० १।१३७। इति प्रथ ख्यातौ-अजि। भिन्नभिन्ने स्कन्धदेशे। (धीराः) अ० २।३५।३। ध्यानवन्तः। (देवेषु) विद्वत्सु। व्यवहारिषु पुरुषेषु। (सुम्नयौ) रास्नासास्ना०। उ० ३।१५। इति सु+म्ना अभ्यासे, वा मा माने-न प्रत्ययः। निपातनात् सिद्धिः। सुम्नं सुखम्-निघ० ३।६। मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति सुम्न+या गतौ प्रापणे च भावे कु। सुखस्य गतौ प्राप्तौ प्रापणे वा ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(কবয়ঃ) বুদ্ধিমান্ (সীরাঃ) হাল/লাঙ্গল (যুঞ্জন্তি) যুক্ত করে, এবং (পৃথক্) পৃথক্-পৃথক্ বলদের মধ্যে (যুগা=যুগানি) জোয়াল (বি তন্বন্তি) বিস্তার করে। (ধীরাঃ) বুদ্ধিমান্ (দেবেষু) দেবকার্যের নিমিত্ত/জন্য (সুম্নয়ৌ) সুখ প্রাপ্তিতে সহায়ক দুটি বলদকে [লাঙলের সাথে] যুক্ত করে।
टिप्पणी
[লাঙ্গল যুক্ত করা, বলদদের সাথে। এবং প্রত্যেক বলদের ওপর জোয়াল রাখা/স্থাপন করা। দেবকার্য হলো যজ্ঞাদি; ও অতিথিদেব আদির সৎকার। কৃষি থেকে উৎপন্ন অন্ন দ্বারা এঁদের সৎকারও দেবকার্য। কৃষিকর্ম বুদ্ধিমানদের কাজ, যা বংশপরম্পরায় অবিরত থাকে। চাকরি তো কিছু কালের জন্য, এবং কৃষিকর্ম একটি স্থির কার্য। কবয়ঃ= কবিঃ মেধাবিনাম (নিঘং০ ৩।১৫)। ধীরাঃ=ধী+রাঃ (মত্বর্থীয়)। সুম্নয়ৌ১= সুম্নং সুখনাম (নিঘং০ ৩।৬)+যা প্রাপণে। লাঙলের সাথে দুটি বলদকে যুক্ত করা উচিৎ, ভূমিকর্ষণে একটি বলদকে যোগ করা তার জন্য কষ্টদায়ক।] [১. সুম্নয়ৌ বলীবর্দৌ (সায়ণ), যাতেঃ "আতো মনিন্" ইতি বিচ (সায়ণ)।]
मन्त्र विषय
কৃষিবিদ্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(ধীরাঃ) ধীর (কবয়ঃ) বুদ্ধিমান্ [কৃষক] (দেবেষু) ব্যবহার-কুশল পুরুষদের প্রতি (সুম্নয়ৌ) সুখ প্রাপ্তির [আশায়] (সীরা=সীরাণি) লাঙল (যুঞ্জন্তি) যুক্ত করে, এবং (যুগা=যুগানি) জোয়ালকে (পৃথক্) আলাদা আলাদা করে [দুই দিকে] (বি তন্বতে) বিস্তৃত করে ॥১॥
भावार्थ
যেমন কৃষকেরা কৃষিকাজ করে অন্য পুরুষদের সুখ প্রদান করে এবং নিজে সুখী থাকে, তেমনই সকল মনুষ্যদের পরস্পর উপকারী হয়ে সুখ ভোগ করা উচিত॥১॥
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