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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
    1

    अ॒यं ते॒ योनि॑रृ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तो अरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ आ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ते॒ । योनि॑: । ऋ॒त्विय॑: । यत॑: । जा॒त: । अरो॑चथा: । तम् । जा॒नन् । अ॒ग्ने॒ । आ । रो॒ह॒ । अध॑ । न॒: । व॒र्ध॒य॒ । र॒यिम् ॥२०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं ते योनिरृत्वियो यतो जातो अरोचथाः। तं जानन्नग्न आ रोहाथा नो वर्धया रयिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ते । योनि: । ऋत्विय: । यत: । जात: । अरोचथा: । तम् । जानन् । अग्ने । आ । रोह । अध । न: । वर्धय । रयिम् ॥२०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (अयम्) यह [सर्वव्यापी परमेश्वर] (ते) तेरा (ऋत्वियः) सब ऋतुओं [कालों] में मिलनेवाला (योनिः) कारण है, (यतः) जिससे (जातः) प्रकट होकर (अरोचनाः) तू प्रकाशमान हुआ है, (तम्) उस [योनि] को (जानन्) पहिचानकर (आ रोह) ऊँचा चढ़, (अथ) और (नः) हमारे लिये (रयिम्) धन (वर्धय) बढ़ा ॥१॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने अपनी सर्वशक्तिमत्ता और सर्वव्यापकता से हमें बड़ा समर्थ और उपकारी मनुष्य देह दिया है, ऐसा जानकर हम अपना ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद ३।२९।१०। और यजुर्वेद ३।१४ और १२।५२ एवं १५।५६। में है ॥

    टिप्पणी

    १−(अयम्) सर्वत्र दृश्यमानः। (ते) तव। (योनिः) अ० १।११।३। कारणम्। (ऋत्वियः) अर्त्तेश्च तुः। उ०। ऋ गतौ-तु, चकारात् कित्। छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। इति ऋतुशब्दात् तस्य प्राप्तमित्यर्थे घस्। इयादेशः। सर्वेषु ऋतुषु कालेषु प्राप्तः। (यतः) यस्माद् योनेः। (जातः) उत्पन्नः। प्रकटः सन्। (अरोचथाः) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च लङ्। त्वम् अदीप्यथाः। दीप्तोऽभवः। (तम्) योनिम्। (जानन्) अवगच्छन्। (अग्ने) अगि गतौ-नि। हे विद्वन्। (आ रोह) उन्नतिं प्राप्नुहि। (अथ) अनन्तरम्। (नः) अस्मभ्यम्। (वर्धय) समर्धय। (रयिम्) धनम्। ऐश्वर्यम् ॥

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    विषय

    अयं ते योनिः

    पदार्थ

    १. उपासक प्रभु की आराधना करता हुआ कहता है कि (अयम्) = यह मैं ते आपका (ऋत्वियः) = प्रत्येक ऋतु में होनेवाला (योनि:) = गृह व उत्पत्ति-स्थान हूँ। मैं सदा आपके स्मरण का प्रयत्न करता हूँ। (यतः) = जिससे (जात:) = प्रादुर्भूत हुए-हुए आप (अरोचथा:) = दीप्त हो उठते हो। मैं हृदय में आपके प्रकाश को देखता हूँ। २. (तम्) = उस मुझे (जानन्) = जानते हुए-मेरा ध्यान [देख भाल] करते हुए (अग्ने) = हे प्रभो! आप (आरोह) = मेरे हृदय में प्रादुर्भूत होओ [रुह प्रादुर्भावे] (अध) = और (न:) = हमारे (रयिम्) = ऐश्वर्य को (वर्धय) = बढ़ाइए।

    भावार्थ

    हम प्रभु का स्मरण करें, उसके प्रकाश को हृदय में देखें, वे हमारे ऐश्वर्य को बढ़ाएँगे।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्निनामक परमेश्वर! (अयम् ते योनिः) यह [हृदय] तेरा घर है, (ऋत्वियः) जिसेकि ऋतु अर्थात् काल प्राप्त हो गया है, (यतः जातः) जहाँ से प्रकट हुआ तू (अरोचथाः) प्रदीप्त होता है। (जानन्१) जानता हुआ (तम्) उस पर (आरोह२) तू आरोहण कर, (अध) तदनन्तर (नः रयिम्) हमारी सम्पत्ति को (वर्धय) बढ़ा।

    टिप्पणी

    [परमेश्वर का नाम है अग्नि, वह अग्नि के सदृश प्रकाशित होता है (यजु:० ३२।१), हृदय-गृह में। योनिः गृहनाम (निघं० ३।४)। प्रार्थी परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि मेरे हृदय-गृह में तेरे प्रदीप्त होने का काल हो गया है, अत: तू प्रकाशित हो, और प्रकाशित होकर हम योगियों की अध्यात्मसम्पत्तियों को बड़ा] [१. "जानन्" द्वारा अग्नि को चेतन कहा है, अतः अग्नि प्राकृतिक अर्थात् जड़ नहीं। २. आरोहण का अर्थ है चढ़ना। वेद में चार पैरों पर खड़ी हस्तिनी के सदृश, चार स्तम्भों पर निर्मित शाला का कथन हुआ है (अथर्व० ९।३।१७), जिस पर आरोहण सीढ़ी द्वारा हो सकता है। इसलिए हृदय गृह पर परमेश्वर का आरोहण कहा है।]

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    विषय

    ईश्वर से उत्तम ऐश्वर्य और सद्गुणों की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    ऋग्वेदे विश्वामित्र ऋषिः। अग्निर्देवता। हे (अग्ने) ज्ञानवन् आत्मन् ! (ऋत्वियः योनिः) ऋतुकाल में जिस प्रकार उत्पादक अंग से शरीर देह को उत्पन्न करता है उसी प्रकार (ते) तेरा (अयं) यह परमात्मा वा आचार्य ही (ऋत्वियः) ऋतु अर्थात् काल और सत्य ज्ञान से उत्पन्न करने वाला (योनिः) उत्पत्ति स्थान है अथवा (ऋत्वियः योनिः) सर्व ऋतुओं में सुख देने वाले गृह के समान सर्वदा सुखप्रद शरण है। (यतः) जिससे (जातः) विद्यादि गुणों सहित प्रकट होकर तू (अरोचथाः) तू खूब प्रकाशित और तेज से प्रदीप्त होता है। हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! तू (तं जानन्) उस परमात्मा को जान कर ही (आरोह) आगे बढ़, उस परमात्मा तक पहुंच (अध) और (नः) हमारे (रयिम्) ऐश्वर्य की (वर्धय) वृद्धि कर।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘असीदयाः’ (च०) ‘वधया गिरः’ ऋ० यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्वा मन्त्रोक्ता नाना देवताः। १-५, ७, ९, १० अनुष्टुभः। ६ पथ्या पंक्तिः। ८ विराड्जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Man’s Self-development

    Meaning

    Hey Agni, O man, this home, this world of Prakrti, this teacher’s home, this vedi, is your origin, your place of birth according to the time and season of growth and development. Born of here and as you grow, you shine. Knowing the place of origin and the stage of growth, you rise and advance and thus create and increase the wealth of life for us.

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    Subject

    Agni -

    Translation

    O fire divine, this is your regular abode , born out of which you shiņe, forth. Knowing that, may you ascend to it. Thereafter may you increase our riches.

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    Translation

    O’ learned person; this teacher’s home is your place of maturity whence you spring up celebrated and shine with effulgence of knowledge. O learned one; you, knowing this rise to ascendency cause our riches increase.

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    Translation

    O soul, this God is thy ordered place of birth, whence sprung to life thou shinest forth. O learned soul, knowing God, go forward unto Him, and cause our riches to increase!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अयम्) सर्वत्र दृश्यमानः। (ते) तव। (योनिः) अ० १।११।३। कारणम्। (ऋत्वियः) अर्त्तेश्च तुः। उ०। ऋ गतौ-तु, चकारात् कित्। छन्दसि घस्। पा० ५।१।१०६। इति ऋतुशब्दात् तस्य प्राप्तमित्यर्थे घस्। इयादेशः। सर्वेषु ऋतुषु कालेषु प्राप्तः। (यतः) यस्माद् योनेः। (जातः) उत्पन्नः। प्रकटः सन्। (अरोचथाः) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च लङ्। त्वम् अदीप्यथाः। दीप्तोऽभवः। (तम्) योनिम्। (जानन्) अवगच्छन्। (अग्ने) अगि गतौ-नि। हे विद्वन्। (आ रोह) उन्नतिं प्राप्नुहि। (अथ) अनन्तरम्। (नः) अस्मभ्यम्। (वर्धय) समर्धय। (रयिम्) धनम्। ऐश्वर्यम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে অগ্নিনামক পরমেশ্বর! (অয়ম্ তে যোনিঃ) এই [হৃদয়] হলো তোমার ঘর, (ঋত্বিয়ঃ) যাকে ঋতু অর্থাৎ কাল প্রাপ্ত হয়েছে, (যতঃ জাতঃ) যেখান থেকে প্রকট হয়ে/প্রকটিত তুমি (অরোচথাঃ) প্রদীপ্ত হও। (জানন্১) জেনে (তম্) তার ওপর (আরোহ) তুমি আরোহণ২ করো, (অধ) তদনন্তর (নঃ রয়িম্) আমাদের সম্পত্তি (বর্ধয়) বৃদ্ধি করো।

    टिप्पणी

    [পরমেশ্বরের নাম অগ্নি, তিনি অগ্নির সদৃশ প্রকাশিত হন (যজুঃ০ ৩২।১), হৃদয়-গৃহে। যোনিঃ গৃহনাম (নিঘং০ ৩।৪)। প্রার্থী পরমেশ্বরের প্রতি প্রার্থনা করে যে, আমার হৃদয়-গৃহে তোমার প্রদীপ্ত হওয়ার সময় হয়েছে, অতঃ তুমি প্রকাশিত হও, এবং প্রকাশিত হয়ে আমাদের যোগীদের আধ্যাত্মসম্পত্তিকে বৃদ্ধি করো।] [১. "জানন্" দ্বারা অগ্নিকে চেতনা বলা হয়েছে, অতঃ অগ্নি প্রাকৃতিক অর্থাৎ জড় নয়। ২. আরোহণ এর অর্থ চড়াই করা। বেদে চার পায়ে দাঁড়িয়ে থাকা হস্তিনীর সদৃশ, চারটি স্তম্ভের ওপর নির্মিত গৃহের কথন হয়েছে (অথর্ব০ ৯।৩।১৭), যার ওপর আরোহণ সিঁড়ি দ্বারা হতে পারে। এইজন্য হৃদয়-গৃহে পরমেশ্বরের আরোহণ বলা হয়েছে।]

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    मन्त्र विषय

    ব্রহ্মজ্ঞানোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে বিদ্বান্ পুরুষ ! (অয়ম্) ইনি [সর্বব্যাপী পরমেশ্বর] (তে) তোমার (ঋত্বিয়ঃ) সকল ঋতুতে [কালে] প্রাপ্তির (যোনিঃ) কারণ, (যতঃ) যার থেকে (জাতঃ) প্রকট হয়ে (অরোচনাঃ) তুমি প্রকাশমান হয়েছো, (তম্) সেই [যোনি] কে (জানন্) জেনে (আ রোহ) আরোহণ করো, (অথ) এবং (নঃ) আমাদের জন্য (রয়িম্) ধন (বর্ধয়) বৃদ্ধি করো ॥১॥

    भावार्थ

    পরমাত্মা নিজের সর্বশক্তিমত্তা ও সর্বব্যাপকতা দ্বারা আমাদের সমর্থ ও উপকারী মনুষ্য দেহ প্রদান করেছেন। এমনটা জেনেই আমরা নিজেদের ঐশ্বর্য বৃদ্ধি করি ॥১॥ এই মন্ত্র কিছু ভেদে ঋগ্বেদ ৩।২৯।১০। এবং যজুর্বেদ ৩।১৪ ও ১২।৫২ এবং ১৫।৫৬। এ আছে ॥

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