अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सुक्त
1
ह॑स्तिवर्च॒सं प्र॑थतां बृ॒हद्यशो॒ अदि॑त्या॒ यत्त॒न्वः॑ संब॒भूव॑। तत्स॑र्वे॒ सम॑दु॒र्मह्य॑मे॒तद्विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः स॒जोषाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठह॒स्ति॒ऽव॒र्च॒सम् । प्र॒थ॒ता॒म् । बृ॒हत् । यश॑: । अदि॑त्या: । यत् । त॒न्व᳡: । स॒म्ऽब॒भूव॑ । तत् । सर्वे॑ । सम् । अ॒दु॒: । मह्य॑म् । ए॒तत् । विश्वे॑ । दे॒वा: । अदि॑ति: । रा॒ऽजोषा॑: ॥२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
हस्तिवर्चसं प्रथतां बृहद्यशो अदित्या यत्तन्वः संबभूव। तत्सर्वे समदुर्मह्यमेतद्विश्वे देवा अदितिः सजोषाः ॥
स्वर रहित पद पाठहस्तिऽवर्चसम् । प्रथताम् । बृहत् । यश: । अदित्या: । यत् । तन्व: । सम्ऽबभूव । तत् । सर्वे । सम् । अदु: । मह्यम् । एतत् । विश्वे । देवा: । अदिति: । राऽजोषा: ॥२२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कीर्ति पाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(हस्तिवर्चसम्) हाथी के बल से युक्त (बृहत्) बड़ा (यशः) यश (प्रथताम्) फैले, (यत्) जो (अदित्याः) अदीन वेदवाणी वा प्रकृति के (तन्वः) विस्तार से (संबभूव) उत्पन्न हुआ है, (तत्) सो (एतत्) यह [यश] (मह्यम्) मुझको (सजोषाः) समान प्रीतिवाली (अदितिः) अखण्ड वेदवाणी वा प्रकृति और (विश्वे) सब (देवाः) प्रकाशमान गुणों ने (सर्वे) सर्वव्यापक विष्णु भगवान् में (सम्) ठीक प्रकार से (अदुः) दिया है ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य वेदविद्या और प्रकृति के यथावत् ज्ञान से (जिस सबका केन्द्र परमेश्वर है) हाथी आदि का सामर्थ्य पाकर यशस्वी होता है। म० ६ देखो ॥१॥ भगवान् पतञ्जलि का वचन है−बलेषु हस्तिबलादीनि ॥ यो० द० ३।२३ ॥ बलों में [संयम करने से] हाथी के से बल हो जाते हैं ॥
टिप्पणी
१−(हस्तिवर्चसम्) हस्ताज्जातौ। पा० ५।२।१३३। इति हस्त-इनि। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति वर्चस्-अच् मत्वर्थे। गजस्य बलयुक्तम्। (प्रथताम्) प्रथ प्रख्याने-लोट्। प्रख्यातं भवतु। (बृहत्) महत्। (यशः) कीर्त्तिः। (अदित्याः)। अ० २।२८।४। अदितिः, वाक्-निघ० १।११। अदीनाया वेदवाण्याः प्रकृतेर्वा। (यत्) यशः। (तन्वः) अ० १।१।१।१। शरीरात्। विस्तृतेः। (संबभूव) उत्पन्नमभवत्। (सर्वे) सर्वनिघृष्व०। उ० १।१५३। इति सृ गतौ-वन्, यद्वा। सर्व गतौ-अच्। सरति सर्वति वा गच्छति व्याप्नोतीति सर्वः, शिवः, विष्णुः। तस्मिन् व्यापके परमेश्वरे। (सम्) सम्यक्। (अदुः) दाञो लुङ्। दत्तवन्तः। (मह्यम्) मदर्थम्। (विश्वे) सर्वे। (देवाः) दिव्यगुणाः। (अदितिः) अदीना, अखण्डिता वा वेदवाणी प्रकृतिर्वा। (सजोषाः) समान+जुषी प्रीतिसेवनयोः-असुन्। समानप्रीतिः ॥
विषय
हस्तिवर्चसम्
पदार्थ
१. मुझमें (हस्तिवर्चसम्) = हाथी का बल (बृहद्यश:) = महान् यश को (प्रथताम्) = विस्तृत करे, अर्थात् मैं हाथी के समान बल प्राप्त करूँ, परन्तु मेरा वह बल मुझे यशस्वी बनानेवाला हो। मुझे वह बल प्राप्त हो (यत्) = जोकि (अदित्या:) = प्रकृति के, अदीना देवमाता [सूर्यादि का निर्माण करनेवाली प्रकृति] के (तन्व:) = शरीर से (संबभूव) = उत्पन्न हुआ है। जीवन जितना प्राकृतिक प्रकृति के अनुकूल-स्वाभाविक होगा, उतना ही शरीर का बल बढ़ेगा। २. (तत् एतत्)= प्रसिद्ध इस बल को (विश्वेदेवा:) = सूर्य आदि सब देव और (सजोष:) = उनके साथ समान प्रीतिवाली (अदितिः) = उनकी माता प्रकृति-ये (सर्वे) = सब (सम्) = मिलकर (महाम्) = मेरे लिए (अदुः) = देते हैं।
भावार्थ
जितना-जितना हमारा जीवन स्वाभाविक होगा, उतना-उतना ही हम शक्तिशाली बनेंगे। अदिति [प्रकृति] व सूर्य आदि सब देव हमें बल प्राप्त कराएंगे।
भाषार्थ
(हस्तिवर्चसम्) हाथी के तेज जैसा तेज (प्रथताम्) राष्ट्र में फैले, (बृहद् यशः) यह तेज महायशरूप है [यश का उत्पादक है], (यत्) जो तेज कि (अदित्याः) अदीना अर्थात् न क्षीण होनेवाली प्रकृति की (तन्व:) तनु१ से (सं बभूव) सम्पन्न हुआ है। (विश्वे देवा:) प्रकृतिजन्य सब प्राकृतिक दिव्य शक्तियों ने तथा (सजोषाः अदितिः) प्रेमवाली प्रकृति ने, (सर्वे) इन सबने, (तत् एतत्) प्रसिद्ध इस तेज को (मह्यम्) मुझे (सम्, अदुः) परस्पर मिल कर दिया है।
टिप्पणी
[हस्तिवर्चस है महाबलरूपी तेज। सजोषा:=प्रकृति प्रेममयी माता रूप है, जिसने कि हमें शरीर, इन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि तथा खाद्य-पेय अन्न प्रदान किया है और हमारी रक्षा के लिए पृथ्वी, वायु तथा आदित्य आदि प्रदान किये हैं।] [हाथी महाकाय है, उसकी उत्पादक-माता भी महाकाया होनी चाहिए। प्रकृति विस्तार में महाकाया है। इसे द्योतित करने के लिए "तनू" का प्रयोग हुआ है, तनु विस्तारे (तनादि:)]
विषय
तेजस्वी होने की प्रार्थना ।
भावार्थ
(हस्ति-वर्चसं) हस्त = मारने के साधन हथियारों से सम्पन्न अथवा हस्ती के समान बलवान्, शस्त्र-योद्धा, राजा और बलशाली सेनापति का ‘वर्चः’ तेज या हाथी के समान सर्वोपमर्दक बल या हाथियों की सेना का वैभव और (बृहत् यशः) बड़ा भारी यश (यत्) जो (अदितेः) न खंडित होने वाली अखण्ड और अदीन, स्वतन्त्र राष्ट्र प्रजा के (तन्वः) शरीर से (संबभूव) उत्पन्न हो वह (प्रथताम्) समस्त संसार में फैले । (सर्वे) सब ही (तत्) उस लोकयश और ख्याति को (मह्यम्) मुझ राष्ट्र-पालक के लिये (सम् अदुः) प्रदान करते हैं। और (विश्वेदेवाः) सर्व राष्ट्र के शासक गण और (अदितिः) स्वतन्त्र, अखंडित अधिकार वाली राष्ट्र प्रजा भी (स-जोषाः) सप्रेम मुझे वह यश और मान प्रदान करते हैं। राजा किस प्रकार अपना यश प्राप्त करे इसके उत्तर में वेद कहता है कि स्वतन्त्र स्वायत्त शासन और अधिकारप्राप्त प्रजा ही राजा के मान का कारण है । पराधीन पंगु प्रजा राजा के मान की वृद्धि नहीं कर सकती ।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘आदित्यायम्’ इति क्वचित् । (तृ०) ‘विश्वेदेवासः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशिष्ठ ऋषिः । वर्चो देवता । बृहस्पतिरुत विश्वेदेवाः । १ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिपदा परानुष्टुप् विराड्जगती । ४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती । २, ५, ६ अनुष्टुभः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Lustre of Life
Meaning
Let the honour and lustre of life, strong and graceful as the vigour and splendour of the elephant, which is born of Mother Nature, grow and expand without bounds. May all the divinities of nature and brilliancies of humanity in unison, Mother Nature and the divine voice of Veda in love and accord with me vest me with that vigour, honour and splendour.
Subject
Visvedevah, Brhaspatih ; Varcah
Translation
May the elephantine vigour of great renown,that is born out of Aditi’s (earth’s) body, be famed far and wide. May all of them, all the bounties of Nature and the accordant Aditi, bestow that vigour on me.
Translation
Widely spread out, like the vigor of elephant, the great glory which gets rise from the structure of the primordial matter, all the physical forces concordant with matter give this to me.
Translation
May the vast glory, born out of the body-politic, possessed by the commander-in-Chief, strong like an elephant, speared in the whole world. All officials and subjects accordant well, give that to me.
Footnote
Body-politic: Subjects of the king. Me: King; That: Glory.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(हस्तिवर्चसम्) हस्ताज्जातौ। पा० ५।२।१३३। इति हस्त-इनि। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति वर्चस्-अच् मत्वर्थे। गजस्य बलयुक्तम्। (प्रथताम्) प्रथ प्रख्याने-लोट्। प्रख्यातं भवतु। (बृहत्) महत्। (यशः) कीर्त्तिः। (अदित्याः)। अ० २।२८।४। अदितिः, वाक्-निघ० १।११। अदीनाया वेदवाण्याः प्रकृतेर्वा। (यत्) यशः। (तन्वः) अ० १।१।१।१। शरीरात्। विस्तृतेः। (संबभूव) उत्पन्नमभवत्। (सर्वे) सर्वनिघृष्व०। उ० १।१५३। इति सृ गतौ-वन्, यद्वा। सर्व गतौ-अच्। सरति सर्वति वा गच्छति व्याप्नोतीति सर्वः, शिवः, विष्णुः। तस्मिन् व्यापके परमेश्वरे। (सम्) सम्यक्। (अदुः) दाञो लुङ्। दत्तवन्तः। (मह्यम्) मदर्थम्। (विश्वे) सर्वे। (देवाः) दिव्यगुणाः। (अदितिः) अदीना, अखण्डिता वा वेदवाणी प्रकृतिर्वा। (सजोषाः) समान+जुषी प्रीतिसेवनयोः-असुन्। समानप्रीतिः ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(হস্তিবর্চসম্) হাতির তেজের সমান তেজ (প্রথতাম্) রাষ্ট্রে ছড়িয়ে পড়ুক/বিস্তৃত হোক, (বৃহদ্ যশঃ) এই তেজ মহাযশরূপ [যশের উৎপাদক], (যৎ) যে তেজ (আদিত্যঃ) অদীনা অর্থাৎ না ক্ষীণ হওয়া প্রকৃতির (তন্বঃ) তনু১ দ্বারা (সং বভূব) সম্পন্ন হয়েছে। (বিশ্বে দেবাঃ) প্রকৃতির সমস্ত প্রাকৃতিক দিব্য শক্তি এবং (সজোষাঃ অদিতিঃ) প্রেমময়ী প্রকৃতি, (সর্বে) এই সবকিছু (তৎ এতৎ) প্রসিদ্ধ এই তেজকে (মহ্যম্) আমাকে (সম্, অদুঃ) একসাথে মিলে/পরস্পর মিলিতভাবে দিয়েছে/প্রদান করেছে।
टिप्पणी
[হস্তিবর্চস হল মহাবলরূপী তেজ। সজোষাঃ=প্রকৃতি প্রেমময়ী মায়ের মতো, যা আমাদের শরীর, ইন্দ্রিয় ও মন, বুদ্ধি এবং খাদ্য-পানীয় অন্ন প্রদান করেছে এবং আমাদের রক্ষার জন্য পৃথিবী, বায়ু ও আদিত্য আদি প্রদান করেছে।] [১. হাতি মহাকায়, তার উৎপাদক-মাতাও মহাকায়া হওয়া উচিত। প্রকৃতি বিস্তারে মহাকায়া। তা দ্যোতিত করার জন্য "তনু"-এর প্রয়োগ হয়েছে, তনু বিস্তারে (তনাদিঃ)।]
मन्त्र विषय
কীর্তিপ্রাপ্ত্যুপদেশঃ
भाषार्थ
(হস্তিবর্চসম্) হাতির বলযুক্ত (বৃহৎ) বৃহৎ/মহৎ (যশঃ) যশ (প্রথতাম্) বিস্তৃত/প্রখ্যাত হোক, (যৎ) যা (অদিত্যাঃ) অদীন বেদ বাণী বা প্রকৃতির (তন্বঃ) বিস্তার থেকে (সংবভূব) উৎপন্ন হয়েছে, (তৎ) সুতরাং (এতৎ) এই [যশ] (মহ্যম্) আমাকে (সজোষাঃ) সমান প্রীতিসম্পন্ন (অদিতিঃ) অখণ্ড বেদবাণী বা প্রকৃতি এবং (বিশ্বে) সকল (দেবাঃ) প্রকাশমান গুণ-সমূহ (সর্বে) সর্বব্যাপক বিষ্ণু ভগবানের মধ্যে (সম্) সঠিকভাবে (অদুঃ) দিয়েছে॥১॥
भावार्थ
মনুষ্য বেদ বিদ্যা ও প্রকৃতির যথাবৎ জ্ঞান থেকে (সবকিছুর কেন্দ্র পরমেশ্বর) হাতি আদির সামর্থ্য প্রাপ্ত করে যশস্বী হয়। ম০ ৬ দেখো ॥১॥ ভগবান্ পতঞ্জলির বচন - বলেষু হস্তিবলাদীনি ॥ যো০ দ০ ৩।২৩ ॥ বলের [সংযম করলে] হাতির মতো বল/শক্তি হয়ে যায়॥
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