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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - यमिनी छन्दः - अतिशक्वरीगर्भा चतुष्पदातिजगती सूक्तम् - पशुपोषण सूक्त
    1

    एकै॑कयै॒षा सृष्ट्या॒ सं ब॑भूव॒ यत्र॒ गा असृ॑जन्त भूत॒कृतो॑ वि॒श्वरू॑पाः। यत्र॑ वि॒जाय॑ते य॒मिन्य॑प॒र्तुः सा प॒शून्क्षि॑णाति रिफ॒ती रुश॑ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽएकया । ए॒षा । सृष्ट्या॑ । सम् । ब॒भू॒व॒ । यत्र॑ । गा: । असृ॑जन्त । भू॒त॒ऽकृत॑: । वि॒श्वऽरू॑पा: । यत्र॑ । वि॒ऽजाय॑ते । य॒मिनी॑ । अ॒प॒ऽऋ॒तु: । सा । प॒शून् । क्षि॒णा॒ति॒ । रि॒फ॒ती । रुश॑ती॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकैकयैषा सृष्ट्या सं बभूव यत्र गा असृजन्त भूतकृतो विश्वरूपाः। यत्र विजायते यमिन्यपर्तुः सा पशून्क्षिणाति रिफती रुशती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽएकया । एषा । सृष्ट्या । सम् । बभूव । यत्र । गा: । असृजन्त । भूतऽकृत: । विश्वऽरूपा: । यत्र । विऽजायते । यमिनी । अपऽऋतु: । सा । पशून् । क्षिणाति । रिफती । रुशती॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    उत्तम नियम से सुख होता है।

    पदार्थ

    (एषा) यह [साधारणी सृष्टि] (एकैकया) एक एक (सृष्ट्या) सृष्टि [सृष्टि के परमाणु] से (सम्=संभूय) मिलकर (बभूव) हुई है, (यत्र) जिसमें (भूतकृतः) पृथ्वी आदि भूतों से बनानेवाले (विश्वरूपाः) नाना रूपवाले [ईश्वर गुणों] ने (गाः) भूमि, सूर्य आदि लोकों को (असृजन्त) सृजा है। (यत्र) जहाँ पर (यमिनी) उत्तम नियमवाली [बुद्धि] (अपर्तुः) ऋतु अर्थात् क्रम वा व्यवस्था से विरुद्ध (विजायते) हो जाती है [वहाँ] (सा) वह [व्यवस्था विरुद्ध बुद्धि] (रिफती) पीड़ा देती हुई और (रुशती) सताती हुई (पशून्) व्यक्त वाणीवाले और अव्यक्त वाणीवाले जीवों को (क्षिणाति) नष्ट कर देती है ॥१॥

    भावार्थ

    ईश्वर ने अपनी सर्वशक्तिमत्ता से एक-एक परमाणु के संयोग से नियमानुसार यह इतनी बड़ी सृष्टि रची है। जो प्राणी ईश्वरीय नियम तोड़ता है, वह दुःख उठाता है ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(एकैकया) भिन्नभिन्नया। व्यष्टिरूपया (सृष्ट्या) सृज विसर्गे-क्तिन्। सृजमानया (एषा) समष्टिरूपा सृष्टिः (सम्) संभूय (यत्र) यस्मिन् स्थाने। (गाः) गौः, पृथिवी-निघ० १।१। गौरिति पृथिव्या नामधेयं यद् दूरङ्गता भवति यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति-निरु० २।५। गौरित्यादित्यो भवति गमयति रसान् गच्छत्यन्तरिक्षे-निरु० २।१४। भूमिसूर्यादीन् लोकान् (असृजन्त) उदपादयन् (भूतकृतः) डुकृञ् करणे-क्विप्। पृथिवीजलतेजोवायुगमनभूतैर्निर्मातारः (विश्वरूपाः) नानारूपाः परमेश्वरगुणाः (विजायते) विविधं प्रादुर्भवति। (यमिनी) अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति यम-इनि। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति ङीप्। भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने। संबन्धेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः। वा० पा० ५।२।९४। प्रशस्तव्रतयुक्ता, सृष्टिः प्रजा बुद्धिर्वा (अपर्तुः) अपगतो वर्जित ऋतुर्नियमितकालः क्रमो व्यवस्था यस्याः सा तथाभूता (सा) अपर्तुर्बुद्धिः (पशून्) पशवो व्यक्तवाचश्चाप्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। मनुष्यगवादीन् जीवान् (क्षिणाति) क्षि हिंसायाम्। नाशयति। (रिफनी) रिफ हिंसायाम्-शतृ। पीडां कुर्वती (रुशती) रुश हिंसायाम्-शतृ। दुःखं प्रापयन्ती ॥

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    विषय

    वेदवाणी का महत्त्व

    पदार्थ

    २. (एषा) = यह ब्रह्मा से जानी जानेवाली वेदवाणी (एकैकया) = प्रत्येक (सष्टया) = सृष्टि के साथ (संबभूव) = सम्यक् प्रादुर्भूत होती है। सृष्टि के प्रारम्भ में इसका ज्ञान 'अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिरा' के द्वारा ब्रह्मा में स्थापित किया जाता है। (यत्र) = जिस वेदवाणी में (भूतकृतः) = [भूत-Wall. being, welfare] शुभ, मङ्गल व स्वास्थ्य देनेवाली (गा:) = वाणियाँ (असृजन्त) = विसृष्ट होती हैं। ये वाणियाँ (विश्वरूपा:) = सब पदार्थों का निरूपण करनेवाली हैं, सब पदार्थों का ज्ञान देकर ही वस्तुतः ये हमारा मङ्गल करती हैं। २. (यत्र) = इन वेदवाणियों का स्वाध्याय करनेवाला व्यक्ति संयत बुद्धि को प्राप्त करता है, उस बुद्धि को जोकि मन का शासन करनेवाली होती है, नकि मन से शासित होती है। ३. वेदवाणियों के ज्ञान की वाणियों के अध्ययन के अभाव में जब वह बुद्धि (अपर्तुः) = [जायते]-ऋतु-क्रम-नियमित गति से रहित, उच्छखल-सी हो जाती है तब (सा) = वह (पशून्) = पशुओं को (क्षिणाति) = हिंसित करती है, मांसाहार ब शिकार की ओर झुकती है। मन से शासित होकर यह ठीक सोच ही नहीं पाती। यह (रिफती) = कड़वे शब्दों का उच्चारण [to utter a rough grunting sound] करती है और (रुशती) = औरों को तंग करती है [to tease]| ज्ञान की ओर झुकाव न होने पर मनुष्य शिकार [मांसाहार] में प्रवृत्त होता है, कड़वी वाणी बोलता है तथा औरों को तंग करने में स्वाद लेता है।

    भावार्थ

    प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में वेद ज्ञान देते हैं। यह वेदवाणी सब पदार्थों का निरूपण करती हुई हमारा शुभ करती है। इसके अध्ययन से बुद्धि संयत बनती है, अन्यथा मनुष्य शिकार में, कड़वे शब्द बोलने में व औरों को तंग करने में लगा रहता है।

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    भाषार्थ

    (एषा) यह सृष्टि (एकैकया) एक-एक से (सृष्ट्या) सर्जन द्वारा अर्थात् क्रमशः (सम्बभूव) निर्मित हुई है, (यत्र) जिस सृष्टि में (भूतकृतः) भूतसृष्टि के सदश उत्पन्न करनेवालों ने (विश्वरूपाः) विश्व का निरूपण करनेवाली (गाः) वेदवाणियों का (असृजन्त) सर्जन किया। (यत्र) जहाँ (यमिती) यम नियमों का उपदेश करनेवाली वेदवाणी (अपर्तुः१) ऋतु अर्थात समय को अपगत करके (विजायते) विधिविरुद्ध रूप में प्रकट की जाती है, तो (सा) वह वेदवाणी मानो (रिफती२, रुशती) हिंसित होती हुई तथा विनष्ट होती हुई (पशून्) पञ्चविध पशुओं का (क्षिणाति) क्षय कर देती है।[वेदोक्त कर्मों से रहित पुरुष भी पशुसदृश हैं।]

    टिप्पणी

    [गा:= गौ: वाङ्नाम (निघं० १।११)। गाः बहुवचन में है। वेदवाणियाँ चार हैं, ऋक्, यजुः साम, अथर्व। भूतकृतः=भूतकाल की सृष्टियों के सदृश वेदवाणियों को आविर्भूत करनेवाले अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा है चार ऋषि। विश्वरूपाः=वेदवाणियाँ विश्व के घटकों का निरूपण करती हैं, यतः उनमें सब विद्याएँ मूलरूप में विद्यमान हैं। एकैकया= एक-एक करके, अर्थात् क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, युगपत् नहीं। पहिले विराट् पैदा हुआ, उसके अतिविरेचन से तारा-नक्षत्र पैदा हुए, तदनन्तर आदित्य, आदित्य परिवार, पृथिवी, और प्राणिजगत् पैदा हुआ। पशून्=तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः (अथर्व० १०।२।९)।] [१. अपर्तु:= ऋतु अर्थात् शिष्यों के आयु:-काल अर्थात् योग्यताकाल का विचार न करके दी गई यमिनी अर्थात् आध्यात्मिक वेदवाणी स्वयं भी विनष्ट होती है, निष्फला होती है, और ग्रहण करनेवालों और उनकी सम्पत्तियों को भी नष्ट कर देती है। यथा–विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि। असूयकायानृजवेऽयताय न मा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम्। (निरुक्त २।१।४)। इस उद्धरण में कहा है कि विद्या ब्राह्मण की निधि है, इसका प्रदान ब्राह्मण अर्थात् वेदवेत्ता और ब्रह्मवेत्ता उसे प्रदान न करे जो कि निन्दक है, कुटिल है, और संयमी नहीं है। २. रिफ हिंसायाम् (तुदादि:) रूश हिंसायाम् (तुदादि:)। अपात्रों और कुपात्रों को दी गई पमिनी वेदवाणी उनके लिए क्रव्याद हो जाती है (मन्त्र २)।]

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    विषय

    ‘यमिनी’ राजसभा और गृहिणी के कर्तव्यों का उपदेश।

    भावार्थ

    (एकैकया) एक एक ही (सृष्ट्या) सृष्टि=सर्जन-व्यवस्था, रचना के नियम (Organisation) से (एषा) यह जगत् की रचना (संबभूव) एकत्र होकर बनी है। (यत्र) जिसमें (भूतकृतः) प्राणियों को उत्पन्न करने वाली (विश्वरूपाः) नाना प्रकार की (गाः) गतियां आश्रयरूप भूमियां, शक्तियां (असृजन्त) बनी हैं। (यत्र) और जहां (यमिनी) वह नियमकारिणी अथवा नियामक परमेश्वरी शक्ति, तत्स्थानीय राजशक्ति (अपर्तुः) विना नियत ऋतु अर्थात् उचित काल के (विजायते) विपरीत, एक दूसरे को विरोधी रूप में होने लगती हैं (सा) वह अव्यवस्था (पशून्) पशुओं को, जीवों को (रिफती) विनाश करती हुई, (रुशती) और मारती हुई, कष्ट देती हुई (क्षिणाति) उनका विध्वंस कर देती है। अथवा, जिस प्रकार बिना ऋतु के, बेमौसम (यमिनी) जोड़ा जनने वाली गाय विपरीत नियम से जोड़े बच्चे पैदा करती है वह पशुओं के विनाशसूचक होती है उसी प्रकार एक ही व्यवस्था जीवों को सुख देती, विरुद्ध या विपरीत अनवसर-व्यवस्था जीवों का नाश करती है। अथवा—एक परमात्मा से संगत एक प्रकृतिरूप (सृष्टि) सर्जन शक्तिः=‘प्रधान’ जब (सं बभूव) उचित रीति से व्यक्त रूप में प्रकट हुई तब (विश्वरूपाः) नानारूप धारण करने वाली (भूतकृतः) पञ्च भूतों को पैदा करने वाली (गाः असृजन्त) नाना विकृतियां बनीं (यत्र) जब (यमिनी) प्रकृति (अपर्तुः) ऋतु-सत्य ज्ञानस्वरूप ब्रह्म के ज्ञान या सत्यमय स्वभाव से शून्य होकर (विजायते) विपरीत—रजः तमः रूप में विकृत होती हैं तब (सा) वह (रिफती रुशती) राजस और तामस भावों से गर्भस्थ बालकों का नाश करती हुई (पशून् क्षिणोति) जीवों के विनाश का कारण होती है । अथवा – (एकाऽएकया एषा सृष्ट्या सं बभव) यह समस्त लोक प्रजावर्ग एक पुरुष, एक नर, इस प्रकार एक के साथ एक सृष्टि-सर्जन शक्ति के संयोग से उत्पन्न हुआ। (यत्र) जिस लोक में (विश्वरूपां भूतकृतः गाः असृजन्त) नाना प्रकार की गौएं, भूमियां, योनियां, माताएं, स्त्रियें जीव गर्भ-धारक क्षेत्र बनाये गये हैं। (सा यमिनी) जोड़ा बनी, अपनी नरशक्ति से, संगत मादा प्रकृति नारी, यदि (अपर्तुः) ऋतुकाल के बिना ही (यमिनी) दूसरी उत्पादक नरशक्ति पुरुष से संगत होकर (विजायते) विरुद्ध प्रजा उत्पन्न करे तो (सा) वह स्त्री (रिफती रुशती) हिंसाशील, क्रोधपरायण होकर (पशून् क्षिणाति) उन बीजरूप जीवों का नाश करती है ।

    टिप्पणी

    ‘रुषती’, ‘रुष्यती’ इति ह्विटनिकामितः पाठः। ( प्र०) ‘एकैक-येषां’, ‘सृष्ट्वा’ इति क्वचित् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पशुपोषणकामो ब्रह्मा ऋषिः। यमिनी देवता। १ अतिशाक्वरगर्भा चतुष्पदा अति-जगती, ४ यवमध्या विराट्-ककुप, ५ त्रिष्टुप्, ६ विराडगर्भा प्रस्तारपंक्तिः। २,३ अनुष्टुभौ। षडृर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Observance of Divine Law

    Meaning

    Yamini is the law and process of life’s evolution. Where the law and the process are violated, progress stops, the movement turns downwards. There is a time and season for every thing in nature, violate the time and season and the thing ends up in nothing. This universe has come into existence by the creation and evolution of things one by one. In here, the creator of things has created all things and forms through the process of the law of universal evolution. Where the process is disturbed, it goes against the law, violates the time and season, and the violation leads to destruction, hurting and injuring humans and animals alike. (This mantra is a warning against the human violation of the earth and its environment.)

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    Subject

    Yaminī

    Translation

    This cow herself has been born in a single baby manner (eka ekayā) where the breeders breed cows of all descriptions.” Where a cow bears twins (Yaminī) against the natural order, charging (riphatī) and attacking (rušati) she ruins the cattle.

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    Translation

    [N.B. Yamini is the subject-matter of this hymn. The term bas been used here comprehensively by meaning the cow giving birth to twins. This cow destroys the species as the twins born to one female animal are dangerous for the survival of their mother and for themselves. If such cases are rampant the whole kine family may face ruin. Secondly the term means destruction or dissolution. More clearly it is the night of the world’s dissolution.] A. This creation in which the various elementary causes undergoing the processes of creation bring into being the Sun, earth and other objects, come into existence through the integrating process of one element combined by one element or atom. If and when the night of destruction or dis-solution which is contrary to constructive Process, comes into active Operation, it destroys all the living creatures and non living objects disturbing and disordering the whole wordly structure. B. The kine Kingdom flourishes into existence by bringing forth offspring singly, through the causes of the creation give birth to cows of various colors. If and when the cow produces twins in spite of order (or abnormally) she harms the growth of cattle troubling and disturbing them.

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    Translation

    This world has been created by the combination of one atom with the other. Various sorts of divine forces have been set free in the universe for creating living beings. Where Divine and temporal forces go out of order, and clash with each other, that chaos degrades torments and ruins the souls.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(एकैकया) भिन्नभिन्नया। व्यष्टिरूपया (सृष्ट्या) सृज विसर्गे-क्तिन्। सृजमानया (एषा) समष्टिरूपा सृष्टिः (सम्) संभूय (यत्र) यस्मिन् स्थाने। (गाः) गौः, पृथिवी-निघ० १।१। गौरिति पृथिव्या नामधेयं यद् दूरङ्गता भवति यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति-निरु० २।५। गौरित्यादित्यो भवति गमयति रसान् गच्छत्यन्तरिक्षे-निरु० २।१४। भूमिसूर्यादीन् लोकान् (असृजन्त) उदपादयन् (भूतकृतः) डुकृञ् करणे-क्विप्। पृथिवीजलतेजोवायुगमनभूतैर्निर्मातारः (विश्वरूपाः) नानारूपाः परमेश्वरगुणाः (विजायते) विविधं प्रादुर्भवति। (यमिनी) अत इनिठनौ। पा० ५।२।११५। इति यम-इनि। ऋन्नेभ्यो ङीप्। पा० ४।१।५। इति ङीप्। भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने। संबन्धेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः। वा० पा० ५।२।९४। प्रशस्तव्रतयुक्ता, सृष्टिः प्रजा बुद्धिर्वा (अपर्तुः) अपगतो वर्जित ऋतुर्नियमितकालः क्रमो व्यवस्था यस्याः सा तथाभूता (सा) अपर्तुर्बुद्धिः (पशून्) पशवो व्यक्तवाचश्चाप्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। मनुष्यगवादीन् जीवान् (क्षिणाति) क्षि हिंसायाम्। नाशयति। (रिफनी) रिफ हिंसायाम्-शतृ। पीडां कुर्वती (रुशती) रुश हिंसायाम्-शतृ। दुःखं प्रापयन्ती ॥

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    बंगाली (3)

    পদার্থ

     

    একৈকযৈষা সৃষ্ট্যা সং বভুব যত্র গা অসৃজন্ত ভূতকৃতো বিশ্বরূপাঃ। 

    যত্র বিজায়তে যমিন্যপর্তুঃ সা পশুন্‌ক্ষিণাতি রিফতী রুশতী।।৪৪।।

    (অথর্ব ৩।২৮।১)

    পদার্থঃ (এষা একৈকয) একে একে ধাপে ধাপে যে নিয়মের সাথে (সং বভুব) সকল অণু পরমাণু সমূহের সম্মেলনের ফলে (যত্র) যে জগতের (সৃষ্ট্যা) সৃষ্টি হয়েছে, (বিশ্বরূপাঃ) বিশ্বের স্রষ্টা, (ভূতকৃতঃ) পৃথিবী সহ সকল গ্রহ নক্ষত্রের কর্তা, (গাঃ) সেই সমস্ত লোকের (অসৃজন্ত) সৃজন করেছেন। (যত্র) যেখানে (যমিনী) এই সকল উত্তম নিয়মকানুনের (অপর্তুঃ) ক্রমভঙ্গ (বিজায়তে) হয়, (সা) তা (রিফতী) ধ্বংসের কারণ হয় (রুশতী) এবং তা শৃঙ্খলা নষ্ট করে (পশুন্) সমস্ত প্রাণিজগতের (ক্ষিণাতি) ক্ষতিসাধন করে। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ এই বিশ্বজগত ধাপে ধাপে বিবর্তনের মাধ্যমে অণু-পরমাণুর সম্মেলন পরমেশ্বর সৃজন কর্তৃত্বের মাধ্যমে সৃষ্টি হয়েছে। এই জগতের কিছু উত্তম শুভ নিয়ম তিনি ঠিক করে দিয়েছেন। সেই নিয়ম ভঙ্গ করে মানুষ, প্রাণী বা প্রকৃতির ক্ষতি করলে তা আমাদেরই ধ্বংস ডেকে আনে ।।৪৪।।

     

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    भाषार्थ

    (এষা) এই সৃষ্টি (একৈকয়া) এক-একটি (সৃষ্ট্যা), সৃষ্টি/সৃজন দ্বারা অর্থাৎ ক্রমশ (সম্বভূব) নির্মিত হয়েছে, (যত্র) যে সৃষ্টিতে (ভূতকৃতঃ) ভূত/অতীতের সৃষ্টির সদৃশ উৎপন্নকারীগণ (বিশ্বরূপাঃ) বিশ্বের নিরূপণকারী (গাঃ) বেদবাণী-সমূহের (অসৃজন্ত) সৃষ্টি করেছেন। (যত্র) যেখানে (যমিনী) যম-নিয়মের উপদেশকারী বেদবাণী (অপর্তুঃ১) ঋতু অর্থাৎ সময়কে অপগত করে (বিজায়তে) বিধিবিরুদ্ধ রূপে প্রকট করা হয়, তাহলে (সা) সেই বেদবাণী (রিফতী২, রুশতী) হিংসিত হয়ে এবং বিনষ্ট হয়ে (পশূন্) পঞ্চবিধ পশুদের (ক্ষিণাতি) ক্ষয় করে দেয়। [বেদোক্ত কর্মরহিত পুরুষও পশুর সমান।]

    टिप्पणी

    [গাঃ= গৌঃ বাঙ্নাম (নিঘং ১।১১)। গাঃ বহুবচনে আছে। বেদ চারটি, ঋক্, যজুঃ, সাম, অথর্ব। ভূতকৃতঃ= অতীত কালের সৃষ্টির সদৃশ চারটি বেদ বাণীর আবির্ভূতকারী অগ্নি, বায়ু, আদিত্য, অঙ্গিরা হলেন চারজন ঋষি। বিশ্বরূপাঃ= বেদবাণী বিশ্বের উপাদানগুলির নিরূপণ করে, যতঃ বেদের মধ্যে সমস্ত বিদ্যা মূলরূপে বিদ্যমান। একৈকয়া= একের পর এক, অর্থাৎ ক্রমশ সৃষ্টির উৎপত্তি হয়েছে, একসাথে নয়। প্রথমে, বিরাট্ উৎপন্ন হয়েছে, তার অতিবিরেচন দ্বারা তারা-নক্ষত্র উৎপন্ন হয়েছে, তদনন্তর আদিত্য, আদিত্য পরিবার, পৃথিবী এবং প্রাণীজগৎ উৎপন্ন হয়েছে। পশূন্= তবেমে পঞ্চ পশবো বিভক্তা গাবো অশ্বাঃ পুরুষা অজাবয়ঃ (অথর্ব০ ১১।২।৯)] [১. অপর্তূঃ= ঋতু অর্থাৎ শিষ্যদের আয়ুঃ-কাল অর্থাৎ যোগ্যতাকাল বিচার না করে প্রদত্ত যমিনী অর্থাৎ আধ্যাত্মিক বেদবাণী স্বয়ং বিনষ্ট হয়, নিষ্ফল হয়ে যায়, এবং গ্ৰহণকারীকে এবং তাঁদের সম্পত্তিও নষ্ট করে দেয়। যথা - বিদ্যা হ বৈ ব্রাহ্মণমাজগাম গোপায় মা শেবধিষ্টেঽমস্মি।অসূয়কায়ানৃজবেঽয়তায় ন মা ব্রূয়া বীর্যবতী তথা স্যাম্।। (নিরুক্ত ২।১।৪)। এখানে বলা হয়েছে যে, বিদ্যা হলো ব্রাহ্মণের নিধি/সম্পদ, এর প্রদান ব্রাহ্মণ অর্থাৎ বেদবেত্তা এবং ব্রহ্মবেত্তা তাঁকে যেন না করে যে নিন্দুক, কুটিল এবং অসংযত। ২. রিফ হিংসায়াম্ (তুদাদিঃ) রুশ হিংসায়াম্ (তুদাদিঃ)। অযোগ্য ও কুপাত্রদের প্রদত্ত যমিনী বেদবাণী তাঁদের জন্য ক্রব্যাদ্ হয়ে যায় (মন্ত্র ২)।]

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    मन्त्र विषय

    সুনিয়মেন সুখং ভবতি

    भाषार्थ

    (এষা) এই [সাধারণী সৃষ্টি] (একৈকয়া) এক এক (সৃষ্ট্যা) সৃষ্টি [সৃষ্টির পরমাণু] সাথে (সম্=সংভূয়) মিলিত হয়ে (বভূব) হয়েছে, (যত্র) যার মধ্যে (ভূতকৃতঃ) পৃথিবী আদি ভূতের নির্মাতা (বিশ্বরূপাঃ) নানা রূপবিশিষ্ট [ঈশ্বর গুণ-সমূহ] (গাঃ) ভূমি, সূর্যাদি লোকসমূহকে (অসৃজন্ত) সৃজন/সৃষ্টি করেছে। (যত্র) যেখানে (যমিনী) উত্তম নিয়মযুক্তা [বুদ্ধি] (অপর্তুঃ) ঋতু অর্থাৎ ক্রম বা ব্যবস্থা বিরুদ্ধ (বিজায়তে) হয়ে যায়, [সেখানে] (সা) তা [ব্যবস্থা বিরুদ্ধ বুদ্ধি] (রিফতী) পীড়া দিয়ে এবং (রুশতী) উৎপীড়িত করে (পশূন্) ব্যক্ত এবং অব্যক্ত বাণীর জীবেদের (ক্ষিণাতি) নষ্ট করে দেয়॥১॥

    भावार्थ

    ঈশ্বর নিজের সর্বশক্তিমত্তা দ্বারা এক এক পরমাণুর সংযোগে নিয়মানুসারে এই এত বৃহৎ সৃষ্টি রচনা করেছেন। যে প্রাণী ঈশ্বরীয় নিয়ম ভঙ্গ করে, সেই দুঃখ ভোগ করে ॥১॥

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