अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सोमः, पर्णमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त
1
आयम॑गन्पर्णम॒णिर्ब॒ली बले॑न प्रमृ॒णन्त्स॒पत्ना॑न्। ओजो॑ दे॒वानां॒ पय॒ ओष॑धीनां॒ वर्च॑सा मा जिन्व॒त्वप्र॑यावन् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒यम् । अ॒ग॒न् । प॒र्ण॒ऽम॒णि: । ब॒ली । बले॑न । प्र॒ऽमृ॒णन् । स॒ऽपत्ना॑न् । ओज॑: । दे॒वाना॑म् । पय॑: । ओष॑धीनाम् । वर्च॑सा । मा॒ । जि॒न्व॒तु॒ । अप्र॑ऽयावन् ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आयमगन्पर्णमणिर्बली बलेन प्रमृणन्त्सपत्नान्। ओजो देवानां पय ओषधीनां वर्चसा मा जिन्वत्वप्रयावन् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अयम् । अगन् । पर्णऽमणि: । बली । बलेन । प्रऽमृणन् । सऽपत्नान् । ओज: । देवानाम् । पय: । ओषधीनाम् । वर्चसा । मा । जिन्वतु । अप्रऽयावन् ॥५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
तेज, बल, आयु, धनादि बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ
(अयम्) यह (बली) बली (पर्णमणिः) पालन करनेवालों में प्रशंसनीय [परमेश्वर] (बलेन) अपने बल से (सपत्नान्) हमारे वैरियों को (प्रमृणन्) विध्वंस करता हुआ (आ अगन्) प्राप्त हुआ है (देवानाम्) इन्द्रियों का (ओजः) बल और (ओषधीनाम्) अन्नादि औषधों का (पयः) रस, (अप्रयावन्=०−वा) भूल न करनेवाला वह (मा) मुझको (वर्चसा) तेज से (जिन्वतु) सन्तुष्ट करे ॥१॥
भावार्थ
जैसे अन्तर्यामी परम कारण परमेश्वर अपने सामर्थ्य से हमारे विघ्नों को हटाकर हमें ओजस्वी इन्द्रियाँ और पुष्टिकारक अन्नादि पदार्थ देकर उपकार करता है, वैसे ही हम ओजस्वी, पराक्रमी होकर परस्पर उपकार करते रहें ॥१॥
टिप्पणी
१−(अयम्)। सर्वत्र वर्तमानः। (आ, अगन्)। गमेर्लुङ्। आगतवान्। प्राप्तवान्। (पर्णमणिः)। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पृ पालने पूर्त्तौ च न। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति। मण शब्दे-इन्। मण्यते स्तूयते स मणिः। पालकेषु स्तुत्यः। (बली)। शक्तिमान्। (बलेन)। शक्त्या। (प्रमृणन्)। विनाशयन्। (सपत्नान्)। शत्रून्। (ओजः)। सामर्थ्यम्। (देवानाम्)। इन्द्रियाणाम्। (पयः)। दुग्धम्। जलम्। रसः। सारः। (ओषधीनाम्)। अ० १।२३।१। ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः। मनु० १।४६। व्रीहियवादीनाम्। रोगनाशकद्रव्यानाम्। (वर्चसा)। तेजसा। (मा)। माम्। (जिन्वतु)। जिवि प्रीणने। इदित्त्वाद्नुम्। प्रीणयतु। तर्पयतु। (अप्रयावन्)। यातेर्वनिप्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति सोर्लुक्। नलोपाभावश्छान्दसः। अप्रयावा। अप्रगन्ता। अनपगन्ता अप्रमाशीलः सन् ॥
विषय
पर्णमणि
पदार्थ
१. (अयम्) = यह (पर्णमणि:) = पालक व पूरक तथा वानस्पतिक पदार्थों से उत्पन्न मणि [सोम] (मा) = मुझे (आ अगन्) = प्राप्त हुई है, (बली) = यह प्रशस्त बलोंवाली है। (बलेन) = बल से (सपत्नान्) = रोगरूप शत्रुओं को (प्रमृणन्) = मसल देनेवाली है। २. यह (देवानां ओजः) = देवों का ओज है। इस सोम रक्षण से ही देव औजस्वी बनते हैं। यह (ओषधीनाम्) = ओषधियों का-वानस्पतिक पदार्थों का (पयः) = वीर्य [Semen virile] है। यह (अप्रयावन्) = [मां विहाय अनपगन्ता सन्] मुझे छोड़कर न जाता हुआ-मुझमें ही सुरक्षित होता हुआ (मा) = मुझे (वर्चसा) = तेज से (जिन्वतु) = प्रीणित करे। यह मुझे तेजस्वी बनाए।
भावार्थ
शरीर में वानस्पतिक पदार्थों के सेवन से उत्पन्न सोम शरीर में ही सुरक्षित होता हुआ हमारे रोगरूप शत्रुओं का संहार करता है और हमें वर्चस्वी बनाता है।
भाषार्थ
(अयम्) यह (पर्णमणि:) मणिरूप पर्ण अर्थात पालक (आ अगन्) आया है, (बली) बलवान् वह (बल) बल द्वारा (शत्रुन्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) मारता हुआ। (देवानाम् ओजः) यह देवों का ओज रूप है, (ओषधीनां पयः) ओषधियों के सार के सदृश है, (अप्रयावन्१) छोड़कर न जानेवाला (मा) मुझे (वर्चसा) दीप्ति के साथ (जिन्वत्) प्रीणित करे, तृप्त करे।
टिप्पणी
(पर्णमणि =पर्ण है पालन करने वाला मणि अर्थात् रत्नरूप, सेना पति१। पर्ण= पृ पालनपूरणयोः (जुहोत्यादिः)। यह बली है और शत्रुओं को मारता है, अत: क्षत्रिय है। देवानाम् = विजिगीषुणाम् ("दिवु क्रीडाविजिगीषा...") (दिवादिः)। ओषधीनाम् सार:= ओषधियों के रस के सदृश राष्ट्रशरीर का रसरूप है। जिन्वतु=जिवि प्रीणनार्थः (भ्वादिः)।] [१. अप्रयावन्=अ + प्र+या+ वनिप्= मां विहाय अनपगम्ता।]
विषय
‘पर्णमणि’ के रूप में प्रधान पुरुषों का वर्णन ।
भावार्थ
(अयं) यह (पर्णमणिः) उत्तम ज्ञानवान्, पालन करने हारा शिरोमणि पुरुष राष्ट्र में (आ अगन्) आता हैं जो (बली) बलवान् होकर (बलेन) अपने बल से (सपत्नान्) शत्रुओं को (प्रमृणन्) विनाश करता है। वही (देवानां) समस्त दिव्य शक्तियों या राष्ट्र के देवों के (ओजः) तेज और बल का साक्षात् रूप है और (ओषधीनां) समस्त ओषधियों का (पयः) रस जिस प्रकार सब रोगों को दूर करता है उसी प्रकार वह राष्ट्र की सब त्रुटियों को दूर करता है । वही (अप्रयावन्) विना प्रयाण किये, अथवा विना प्रमाद के (मा) मुझे, राष्ट्र के कार्य करने हारे पुरुष को (वर्चसा) अपने तेजः सामर्थ्य से (जिन्वतु) ठीक २ मार्ग में प्रेरित करे ।
टिप्पणी
(च०) ‘ मयि राष्ट्रं जिन्वत्वप्रयुच्छन्’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । सोमो देवता । पुरोनुष्टुप् । त्रिष्टुप् । विराड् उरोबृहती । २-७ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Makers of Men and Rashtra
Meaning
It is come, the Parnamani, strong and virile, which, destroys the adversaries with its strength. It is the vitality of divinities, essence of herbs, which would, without fail, inspire me with vigour and splendour. (Parnamani, literally a jewel-crystal of leaves, has been explained as a preparation of palasha and other leaves, as the highest giver of vigour and life which is Parameshvara, and as a man of the top quality of strength, intelligence and brilliance such as the makers of a nation are.)
Subject
Somah - Parņa-Maņih
Translation
This parna jewel (ampoule or capsule), full of power has come to mē, ruining my rivals with its power. Vigour of the bounties of Nature, and essence of the medicinal plants, may this fill me with lustre constantly.(Parņa-maņih = a medicinal tablet prepared from the extract of the parna leaf. "These maņis are to be used by ‘patients in the form of a tablet or capsule.)
Translation
[N.B. In this context Parnamani is a herbaceous plant. It is neither Amulet nor any kind of stone.] This Parnamanih, the herbaceous plant bearing this name is effective and destroying the diseases with its strength, let it come to our availability. This is the power of wonderful medicines and is the essence of the various herbs. Let it incite me with vigor ceaselessly.
Translation
This nice, learned king has come to rule over us. Being strong, he destroys the rivals with his power. He is the embodiment of the power of all thevital forces of the country. He removes all the weaknesses of the country, asthe juice of the medicine removes all diseases. Free froth sloth, he leads me,through his splendor, on the right path.
Footnote
Me: he who works for the welfare of the country.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अयम्)। सर्वत्र वर्तमानः। (आ, अगन्)। गमेर्लुङ्। आगतवान्। प्राप्तवान्। (पर्णमणिः)। धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति पृ पालने पूर्त्तौ च न। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति। मण शब्दे-इन्। मण्यते स्तूयते स मणिः। पालकेषु स्तुत्यः। (बली)। शक्तिमान्। (बलेन)। शक्त्या। (प्रमृणन्)। विनाशयन्। (सपत्नान्)। शत्रून्। (ओजः)। सामर्थ्यम्। (देवानाम्)। इन्द्रियाणाम्। (पयः)। दुग्धम्। जलम्। रसः। सारः। (ओषधीनाम्)। अ० १।२३।१। ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः। मनु० १।४६। व्रीहियवादीनाम्। रोगनाशकद्रव्यानाम्। (वर्चसा)। तेजसा। (मा)। माम्। (जिन्वतु)। जिवि प्रीणने। इदित्त्वाद्नुम्। प्रीणयतु। तर्पयतु। (अप्रयावन्)। यातेर्वनिप्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति सोर्लुक्। नलोपाभावश्छान्दसः। अप्रयावा। अप्रगन्ता। अनपगन्ता अप्रमाशीलः सन् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অয়ম্) এই (পর্ণমণিঃ) মণিরূপ পর্ণ অর্থাৎ পালক (আ অগন্) এসেছে, (বলী) বলবান্ তিনি (বলেন) বল দ্বারা (সপত্নান্) শত্রুদের (প্রমৃণন্) বিধ্বংস করে। (দেবানাম্ ওজঃ) ইনি দেবতাদের তেজ রূপ, (ওষধীনাং পয়ঃ) ঔষধির সারের সদৃশ, (অপ্রয়াবন্১) না ত্যাগ করে গমনকারী (মা) আমাকে (বর্চসা) দীপ্তির সাথে (জিন্বৎ) প্রীণিত করে/করুক, তৃপ্ত করে/করুক।
टिप्पणी
(পর্ণমণি= পর্ণ হলো পালনকর্তা, মণি অর্থাৎ রত্নরূপ, সেনাপতি১। পর্ণ=পৄ পালনপূরণয়োঃ (জুহোত্যাদিঃ)। ইনি বলী/বলশালী এবং শত্রুদের ধ্বংস করে, অতঃ ক্ষত্রিয়। দেবানাম্=বিজিগীষূণাম্ ("দিবু ক্রীডাবিজিগীষা....") (দিবাদিঃ)। ওষধীনাম্ সারঃ=ঔষধি-সমূহের রসের সদৃশ রাষ্ট্রশরীরের রসরূপ। জিন্বতু=জিবি প্রীণনার্থঃ (ভ্বাদিঃ)।] [১. অপ্রয়াবন্=অ+প্র+যা বনিপ্=মাং বিহায় অনপগন্তা।]
मन्त्र विषय
তেজোবলায়ুর্ধনাদিপুষ্ট্যুপদেশঃ
भाषार्थ
(অয়ম্) এই (বলী) বলবান (পর্ণমণিঃ) পালনকারীদের মধ্যে প্রশংসনীয় [পরমেশ্বর] (বলেন) নিজের বল/শক্তি দ্বারা (সপত্নান্) আমাদের শত্রুদের (প্রমৃণন্) বিধ্বংস করে (আ অগন্) প্রাপ্ত হয়েছে (দেবানাম্) ইন্দ্রিয়-সমূহের (ওজঃ) বল এবং (ওষধীনাম্) অন্নাদি ঔষধিসমূহের (পয়ঃ) রস, (অপ্রয়াবন্=০−বা) ভুল করেন না, তিনি (মা) আমাকে (বর্চসা) তেজ দ্বারা (জিন্বতু) সন্তুষ্ট করুক॥১॥
भावार्थ
যেমন অন্তর্যামী পরম কারণ পরমেশ্বর নিজের সামর্থ্যের দ্বারা আমাদের বিঘ্নসমূহ দূর করে আমাদের তেজস্বী ইন্দ্রিয়-সমূহ এবং পুষ্টিকারক অন্নাদি পদার্থ দ্বারা উপকার করেন তেমনই আমরাও যেন তেজস্বী, পরাক্রমশালী হয়ে পরস্পর উপকার করতে থাকি ॥১॥
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