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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - पृथिवी, वरुणः, वायुः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रधारण सूक्त
    5

    आ या॑तु मि॒त्र ऋ॒तुभिः॒ कल्प॑मानः संवे॒शय॑न्पृथि॒वीमु॒स्रिया॑भिः। अथा॒स्मभ्यं॒ वरु॑णो वा॒युर॒ग्निर्बृ॒हद्रा॒ष्ट्रं सं॑वे॒श्यं॑ दधातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒तु॒ । मि॒त्र: । ऋ॒तुऽभि॑: । कल्प॑मान: । स॒म्ऽवे॒शय॑न् । पृ॒थि॒वीम् । उ॒स्रिया॑भि: । अथ॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । वरु॑ण: । वा॒यु: । अ॒ग्नि: । बृहत् । रा॒ष्ट्रम् । स॒म्ऽवे॒श्य᳡म् । द॒धा॒तु॒ ॥८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ यातु मित्र ऋतुभिः कल्पमानः संवेशयन्पृथिवीमुस्रियाभिः। अथास्मभ्यं वरुणो वायुरग्निर्बृहद्राष्ट्रं संवेश्यं दधातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । यातु । मित्र: । ऋतुऽभि: । कल्पमान: । सम्ऽवेशयन् । पृथिवीम् । उस्रियाभि: । अथ । अस्मभ्यम् । वरुण: । वायु: । अग्नि: । बृहत् । राष्ट्रम् । सम्ऽवेश्यम् । दधातु ॥८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रीति उत्पन्न करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋतुभिः) ऋतुओं से (कल्पमानः) समर्थ होता हुआ और (उस्रियाभिः) किरणों से (पृथिवीम्) पृथिवी को (संवेशयन्) सुखी करता हुआ (मित्रः) मरण से बचानेवाला वा लोकों का चलानेवाला सूर्य (आयातु) आवे। (अथ) और (वरुणः) वृष्टि आदि का जल (वायुः) पवन और (अग्निः) अग्नि (अस्मभ्यम्) हमारेलिए (बृहत्) विशाल (संवेश्यम्) शान्तिदायक (राष्ट्रम्) राज्य को (दधातु) स्थिर करे ॥१॥

    भावार्थ

    राजा प्रयत्न करे कि उसके प्रजागण सब ऋतुओं से पृथिवी पर भानुताप [सूर्य की किरणों को कांच के दर्पणों से खींचने का यन्त्र] आदि यन्त्रों द्वारा सूर्य से, जलचक्र, जलनाली आदि द्वारा जल से, पवनचक्रादि द्वारा पवन से और आग्नेय अस्त्र-शस्त्र द्वारा अग्नि से, विमान, अग्निरथ, नौका आदि में अनेक विधि से उपकार लेकर राज्य की उन्नति करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(आयातु)। आगच्छतु। दीप्यतामित्यर्थः। (मित्रः)। अ० १।३।२। मित्रः प्रमीतेस्त्रायते संमिन्वानो द्रवतीति वा मेदयतेर्वा-निरु० १०।२१। सुपि स्थः। पा० ३।२।४। इति प्रमीति+त्रैङ् रक्षणे-क, प्रमीतिशब्दस्य च मिद्भावः। यद्वा, डुमिञ् प्रक्षेपणे-क्त्र। यद्वा, ञिमिदा स्नेहने क्त्र। प्रमीतेर्मरणात् त्राता रक्षको वृष्टिदानेन। लोकान् सम्मिन्वानः प्रक्षिपन् प्रेरयन् आकर्षणेन। शस्यानि स्नेहयति जलेन। यद्वा, मित्रवद् उपकारकः। सूर्यः। (ऋतुभिः)। वसन्ताद्यैः। (कल्पमानः)। कृपू सामर्थ्ये-लटः शानच्। कृपो रो लः पा० ८।२।१८। इति लत्वम्। उपकाराय समर्थः सन्। (संवेशयन्)। संपूर्वाद् विश सुखीकरणो, णिच्, शतृ। सुखीकुर्वन्। (पृथिवीम्)। विस्तीर्णां भूमिम्। (उस्रियाभिः)। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वस निवासे रक्, टाप्। इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानम्। वा० पा० ७।१।३९। इति विभक्तौ डियाच्, भिस् इति च छान्दसः प्रयोगः। वसन्त्यत्र रसाः। उस्रैः किरणैः। (अथ)। अपि च। (अस्मभ्यम्)। अस्मदर्थम्। (वरुणः)। वरणीयं जलम्। (वायुः)। पवनः। (अग्निः)। पावकः। (बृहत्)। महत्। (राष्ट्रम्)। अ० १।२६।१। राज्यम्। (संवेश्यम्)। संपूर्वाद् विश सुखीकरणे-अर्हार्थे यत्। (सुखीकरणम्)। योग्यम्। शान्तिदायकम्। (दधातु)। धरतु। विदधातु। करोतु। स्थापयतु। प्रत्येकापेक्षयैकवचनम् ॥

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    विषय

    मित्र, वरुण, वायु, अग्नि की अनुकूलता

    पदार्थ

    १. (मित्रः) = रोगों से रक्षा करनेवाला यह सूर्य (आयातु) = हमें प्राप्त हो। (ऋतुभि:) = वसन्त आदि ऋतुओं के क्रमश: आने से (कल्पमान:) = हमारी आयु को दीर्घ करने में समर्थ होता हुआ तथा (उस्त्रियाभि:) = अपनी किरणों से (पृथिवीम्) = इस विस्तीर्ण भूमि को (संवेशयन्)-व्याप्त करता हुआ यह सूर्य आये। २. (अथ) = अब (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (वरुणः) = जलों का अधिष्ठातृदेव वरुण, (वायु:) = अन्तरिक्षस्थ देवों का मुखिया वायु और (अग्नि:) = पृथिवीस्थ देवों का अग्रणी यह अग्नि (संवेश्यम्) = सम्यक् अवस्थान के योग्य (बृहत्) = विशाल (राष्ट्रम्) = राष्ट्र को (दधातु) = धारण करे । सब देवों की अनुकूलता से यह राष्ट्र आधिदैविक आपत्तियों से शून्य हो।

    भावार्थ

    हमारे राष्ट्र में सूर्य की किरणे पृथिवी को व्याप्त करती हुई सब ऋतुओं को ठीक से लानेवाली हौं। यहाँ वरुण, वायु व अग्निदेवों की अनुकूलता हो और हमारा राष्ट्र आधिदैविक आपत्तियों से शून्य हो।

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    भाषार्थ

    (मित्रः) जैसे बर्षा द्वारा स्निग्ध करनेवाला (ऋतुभिः) ऋतुओं के कारण (कल्पमानः) सामर्थ्य-सम्पन्न हुआ [सूर्य], (पृथ्वी) भूमण्डल को (उस्रियाभिः) रश्मियों द्वारा (संवेशयन्) सब के लिये प्रवेशयोग्य करता है, वैसे मित्र अर्थात् सबका मित्र अधिकारी (आ यातु) भूमण्डल के शासन के लिये आए। (अथ) तदनन्तर (वरुणः) राष्ट्रपति, (वायुः) अन्तरिक्ष का अधिपति, (अग्रणीः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (अस्मभ्यम्) हम सब के लिये (बृहद्रराष्ट्रम) महाराष्ट्र को (संवेश्यम्) सबके लिये प्रवेशयोग्य (दधातु) विदधातु, अर्थात् करे।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में सूर्य और भूमंडल के प्रधानमन्त्री का संश्लिष्ट वर्णन है। सूर्य को और प्रधानमंत्री को मित्र कहा है। सूर्य ऋतुओं के परिवर्तन द्वारा सामर्थ्यसम्पन्न होता रहता है, शीतऋतु से ग्रीष्म ऋतु में आते हुए सूर्य का सामर्थ्य बढ़ता जाता है। इसी प्रकार भूमण्डल के प्रधानमन्त्री की शक्ति भी दिनोदिन बढ़ती जाती है। वृहद-राष्ट्र है भूमण्डलीयरूपी-राष्ट्र। जब भूमण्डल एक महान्-राष्ट्र में परिणत हो जाता है तब समग्र भूमण्डल, सब के लिये प्रवेश१ योग्य हो जाता है (संवेश्य), कहीं भी प्रवेश के लिये permit और visa२ को आवश्यकता नहीं रहती। उस्रियाभिः गोभिः, किरणैरित्यर्थः (सायण)। दधातु=प्रत्येकापेक्षा एकवचनम् (सायण)] [१. क्योंकि एक महाराष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति समग्र पृथिवी को अपनी माता अर्थात् मातृभूमि जानने लगता है, अतः समग्र पृथिवी को बह निजगृह समझता है। यथा "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। पर्जन्यः पिता स उ नः पिपर्तु" (अथर्व ११।१।१२) २. निज देश से परदेश जाने के लिए निज सरकार द्वारा प्राप्त स्वीकृति Permit, और विदेश में प्रवेश के लिए विदेशी सरकार द्वारा प्राप्त स्वीकृति Visa है।]

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    विषय

    राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    (मित्र:) सूर्य जिस प्रकार (ऋतुभिः) छहों ऋतुओं द्वारा नाना प्रकार के सामर्थ्य को प्रकट करता हुआ (उस्त्रियाभिः) अपनी किरणों द्वारा (पृथिवीं) पृथिवी को (संवेशयन्) आच्छादित करता हुआ समस्त प्राणिगणों से बसा देता है । और समस्त देश को (वरुणः) जल, (वायुः) वायु और (अग्निः) अग्नि भी प्राणियों को बसाते हैं उसी प्रकार राजा (मित्रः) प्रजा को विनष्ट होने से बचाने वाला और अपनों के प्रति सदा स्नेहवान् होकर (ऋतुभिः) सत्य धर्मों, कर्मों और शिल्पों से (कल्पमानः) स्वयं समर्थ होकर (पृथिवीम्) इस पृथिवी राष्ट्र को (उस्नियाभिः) उन्नतिशील प्रजाओं से (संवेशयन्) बसाता हुआ स्वयं, (अथ) और (वरुणः) राष्ट्र का रक्षक, राष्ट्र में सबसे श्रेष्ठ प्रजा के स्वयं वरण करने योग्य (वायुः) सब का प्रेरक, (अग्निः) सबका नेता होकर (बृहत्) बढ़े भारी और (अस्मभ्यं) हम प्रजा गण के (संवेष्यं) बसने योग्य (राष्ट्र) राष्ट्र को सुसम्पन्न सुव्यवस्थित बना कर (दधातु) पालन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मित्रो विश्वेदेवा वा देवता । २, ६ जगत्यौ । ४ चतुष्पदा विराड् बृहतीगर्भा । त्रिष्टुप् । ५ अनुष्टुप् । १, ३ त्रिष्टुभौ । षडृचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rashtra Unity

    Meaning

    May Mitra, the sun, rise and shine, joining and energising the earth with its rays and proper order of the seasons, and may a harmonious equation of Varuna, water, Vayu, air and wind, and Agni, temperature, create and maintain climatic and environmental conditions for a vast and great world order worth living in with peace and comfort. (This divine voice enjoins the world powers to work for and maintain the proper environmental order which is urgently required at the present time of global warming and green house gases. If they don’t, the warning is: peace and comfort would not be possible.)

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    Subject

    Mitra and other Divinities

    Translation

    May the Sun come enabling us to live long with (changing) seasons and pervading the earth with ruddy rays. Thereafter, may the venerable (Varuna) Lord, the omnipresent (Vayu) Lord and the adorable (Agni) Lord grant us a land large enough to live amicably in. (Rāstra = country; empire, land)

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    Translation

    Let the sun rise UP creating the seasons and covering the earth with its rays. Let the water, air and fire make our great dominion tranquil and exalted for our sake.

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    Translation

    Let the Sun come equipped with seasons, lulling the Earth to rest withgleams of splendor. And so let rainy water, air and fire make our dominiontranquil and exalted.

    Footnote

    A king should strive to improve the dignity and status of his country by the use of watery, airy and fiery instruments, i.e., Jal-Astra, Vayu Astra, and Agneya Astra.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(आयातु)। आगच्छतु। दीप्यतामित्यर्थः। (मित्रः)। अ० १।३।२। मित्रः प्रमीतेस्त्रायते संमिन्वानो द्रवतीति वा मेदयतेर्वा-निरु० १०।२१। सुपि स्थः। पा० ३।२।४। इति प्रमीति+त्रैङ् रक्षणे-क, प्रमीतिशब्दस्य च मिद्भावः। यद्वा, डुमिञ् प्रक्षेपणे-क्त्र। यद्वा, ञिमिदा स्नेहने क्त्र। प्रमीतेर्मरणात् त्राता रक्षको वृष्टिदानेन। लोकान् सम्मिन्वानः प्रक्षिपन् प्रेरयन् आकर्षणेन। शस्यानि स्नेहयति जलेन। यद्वा, मित्रवद् उपकारकः। सूर्यः। (ऋतुभिः)। वसन्ताद्यैः। (कल्पमानः)। कृपू सामर्थ्ये-लटः शानच्। कृपो रो लः पा० ८।२।१८। इति लत्वम्। उपकाराय समर्थः सन्। (संवेशयन्)। संपूर्वाद् विश सुखीकरणो, णिच्, शतृ। सुखीकुर्वन्। (पृथिवीम्)। विस्तीर्णां भूमिम्। (उस्रियाभिः)। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वस निवासे रक्, टाप्। इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानम्। वा० पा० ७।१।३९। इति विभक्तौ डियाच्, भिस् इति च छान्दसः प्रयोगः। वसन्त्यत्र रसाः। उस्रैः किरणैः। (अथ)। अपि च। (अस्मभ्यम्)। अस्मदर्थम्। (वरुणः)। वरणीयं जलम्। (वायुः)। पवनः। (अग्निः)। पावकः। (बृहत्)। महत्। (राष्ट्रम्)। अ० १।२६।१। राज्यम्। (संवेश्यम्)। संपूर्वाद् विश सुखीकरणे-अर्हार्थे यत्। (सुखीकरणम्)। योग्यम्। शान्तिदायकम्। (दधातु)। धरतु। विदधातु। करोतु। स्थापयतु। प्रत्येकापेक्षयैकवचनम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (মিত্রঃ) যেমন বর্ষা দ্বারা স্নিগ্ধকারী, (ঋতুভিঃ) ঋতু-সমূহের কারণে (কল্পমানঃ) সামর্থ্য-সম্পন্ন হওয়া [সূর্য], (পৃথিবীম্) ভূমণ্ডলকে (উস্রিয়াভিঃ) রশ্মির দ্বারা (সংবেশয়ন্) সকলের জন্য প্রবেশযোগ্য করে, তেমনই মিত্র অর্থাৎ সকলের মিত্র অধিকারী (আ যাতু) ভূমণ্ডলের শাসনের জন্য আগমন করুক। (অথ) তদনন্তর (বরুণঃ) রাষ্ট্রপতি, (বায়ুঃ) অন্তরিক্ষের অধিপতি, (অগ্রণীঃ) অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী (অস্মভ্যম্) আমাদের সকলের জন্য (বৃহদ্রাষ্ট্রম) বৃহৎ রাষ্ট্রকে (সংবেশ্যম্) সকলের জন্য প্রবেশযোগ্য (দধাতু) বিদধাতু, অর্থাৎ করুক।

    टिप्पणी

    [মন্ত্রে সূর্য এবং ভূমণ্ডলের প্রধানমন্ত্রীর সংশ্লিষ্ট বর্ণনা রয়েছে। সূর্যকে এবং প্রধানমন্ত্রীকে মিত্র বলা হয়েছে। সূর্য ঋতুর পরিবর্তন দ্বারা সামর্থ্যযুক্ত হতে থাকে, শীত ঋতু থেকে গ্রীষ্ম ঋতুতে আগমনকালে সূর্যের সামর্থ্য বাড়তে/বৃদ্ধি হতে থাকে। এইভাবে ভূমণ্ডলের প্রধানমন্ত্রীর শক্তিও দিনের পর দিন বাড়তে থাকে। বৃহৎ-রাষ্ট্র হলো ভূমণ্ডলরূপী-রাষ্ট্র। যখন ভূমণ্ডল একটি মহান্-রাষ্ট্রে পরিণত হয়ে যায় তখন সমগ্র ভূমণ্ডল, সকলের জন্য প্রবেশ১ যোগ্য হয়ে যায় (সংবেশ্য), কোথাও প্রবেশের জন্য permit এবং visa ২ এর আবশ্যকতা থাকে না। উস্রিয়াভিঃ গোভিঃ, কিরণৈরিত্যর্থঃ (সায়ণ)। দধাতুঃ= প্রত্যেকাপেক্ষয়া একবচনম্ (সায়ণ)।] [১. কারণ একটি বৃহৎ রাষ্ট্রে প্রত্যেক ব্যক্তি সমগ্র পৃথিবীকে নিজের মাতা অর্থাৎ মাতৃভূমি বলে জানতে শুরু করে, অতঃ সমগ্র পৃথিবীকে সে নিজগৃহ মনে করে। যথা "মাতা ভূমিঃ পুত্রোঽহং পৃথিব্যাঃ। পর্জন্যঃ পিতা স উ নঃ পীপর্তু" (অথর্ব০ ১১।১।১২)। ২. নিজ দেশ থেকে পরদেশে যাওয়ার জন্য নিজ সরকার দ্বারা প্রাপ্ত স্বীকৃতি Permit, এবং বিদেশে প্রবেশ করার জন্য বিদেশী-সরকার দ্বারা প্রাপ্ত স্বীকৃতি হলো Visa।]

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    मन्त्र विषय

    প্রীতিজননায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ঋতুভিঃ) ঋতুগুলোর মাধ্যমে (কল্পমানঃ) সমর্থ হয়ে এবং (উস্রিয়াভিঃ) কিরণ দ্বারা (পৃথিবীম্) পৃথিবীকে (সংবেশয়ন্) সুখী করে (মিত্রঃ) মরণ থেকে উদ্ধারকারী বা লোকসমূহের চালক সূর্য (আয়াতু) আসুক। (অথ) এবং (বরুণঃ) বৃষ্টির জল (বায়ুঃ) পবন ও (অগ্নিঃ) অগ্নি (অস্মভ্যম্) আমাদের জন্য (বৃহৎ) বৃহৎ (সংবেশ্যম্) শান্তিদায়ক (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দধাতু) স্থির করুক ॥১॥

    भावार्थ

    রাজা প্রচেষ্টা করুক যাতে, তাঁর প্রজাগণ সমস্ত ঋতুতে পৃথিবীতে ভানুতাপ [সূর্যের কিরণকে কাঁচের দর্পণ দ্বারা টানার যন্ত্র] আদি যন্ত্র দ্বারা সূর্য থেকে, জলচক্র, জল নালী ইত্যাদি দ্বারা জল থেকে, পবনচক্রাদি দ্বারা পবন থেকে এবং আগ্নেয় অস্ত্র-শস্ত্র দ্বারা অগ্নি থেকে, বিমান, অগ্নিরথ, নৌকা প্রভৃতি থেকে অনেক বিধি দ্বারা উপকার নিয়ে রাজ্যের উন্নতি করুক॥১॥

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