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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वेनः देवता - बृहस्पतिः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
    5

    ब्रह्म॑ जज्ञा॒नं प्र॑थ॒मं पु॒रस्ता॒द्वि सी॑म॒तः सु॒रुचो॑ वे॒न आ॑वः। स बु॒ध्न्या॑ उप॒मा अ॑स्य वि॒ष्ठाः स॒तश्च॒ योनि॒मस॑तश्च॒ वि वः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बह्म॑ । ज॒ज्ञा॒नम् । प्र॒थ॒मम् । पु॒रस्ता॑त् । वि । सी॒म॒त: । सु॒ऽरुच॑: । वे॒न: । आ॒व॒: । स: । बु॒ध्न्या᳡: । उ॒प॒ऽमा: । अ॒स्य॒ । वि॒ऽस्था: । स॒त: । च॒ । योनि॑म् । अस॑त: । च॒ । वि । व॒: ॥१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बह्म । जज्ञानम् । प्रथमम् । पुरस्तात् । वि । सीमत: । सुऽरुच: । वेन: । आव: । स: । बुध्न्या: । उपऽमा: । अस्य । विऽस्था: । सत: । च । योनिम् । असत: । च । वि । व: ॥१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि विद्या से ब्रह्म का विचार।

    पदार्थ

    (वेनः) प्रकाशमान वा मेधावी परमेश्वर ने (पुरस्तात्) पहिले काल में (प्रथमम्) प्रख्यात (जज्ञानम्) उपस्थित रहनेवाले (ब्रह्म) वृद्धि के कारण अन्न को और (सुरुचः) बड़े रुचिर लोकों को (सीमतः) सीमाओं वा छोरों से (वि आवः) फैलाया है। (सः) उसने (बुध्न्याः) अन्तरिक्ष में वर्तमान (उपमाः) [परस्पर आकर्षण से] तुलना करनेवाले (विष्ठाः) विशेष-विशेष स्थानों, अर्थात् (अस्य) इस (सतः) विद्यमान [स्थूल] के (च) और (असतः) अविद्यमान [सूक्ष्म जगत्] के (योनिम्) घर को (च) निश्चय करके (वि वः) खोला है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे उत्पन्न होने से पहिले बालक के लिये माता के स्तनों में दूध हो जाता है, ऐसे ही जगत् के जननी जनक परमेश्वर ने सृष्टि से पूर्व प्रत्येक शरीर के लिये प्रभूत (ब्रह्म) अन्न वा पालन शक्ति और पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, आदि को बनाया, जो परस्पर आकर्षण से स्थिर हैं। यही सब लोक कार्य वा मूर्त और कारण वा अमूर्त दो प्रकार के जगत् के भण्डार हैं ॥१॥ यह मन्त्र यजुर्वेद अ० १३ म० ३ और सामवेद पूर्वार्चिक प्र० ४ द० ३ म० ९ में है ॥

    टिप्पणी

    १−(ब्रह्म) अ० १।८।४। वृद्धिकारणम् अन्नम्-निरु० २।७। (जज्ञानम्) जनी प्रादुर्भावे-शानचि शपः श्लौ सति रूपम्। जायमानम्। दृश्यमानम् (प्रथमम्) अ० १।१२।१। प्रख्यातम्। (पुस्तात्) दिक्शब्देभ्यः सप्तमीपञ्चमीप्रथमाभ्यो दिग्देशकालेष्वस्तातिः। पा० ५।३।२७। इति पूर्वशब्दाद् अस्ताति। अस्ताति च। पा० ५।३।४०। इति पूर्वस्य पुरादेशः। अतीते प्रथमे काले वा। सृष्ट्यादौ। (वि) व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति व्यवधानम्। (सीमतः) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।१५१। इति षिञ् बन्धने-मनिन्। अपादाने चाहीयरुहोः। पा० ५।४।४५। इति तसि। सीम्नः सीमतः सीमातो मर्यादातः। सीमा मर्यादा विषीव्यति देशाविति-निरु० १।७। सीमभ्यः। लोकमर्यादाभ्यः (सुरुचः) रुच्लृ प्रीतिप्रकाशयोः-क्विप्। सुष्ठु रोचमानान् लोकान्। (वेनः) अ० २।१।१। दीप्यमानः परब्रह्मात्मकः-इति सायणोऽपि। मेधावी-निघ० २।१५। (वि आवः) वृञ् वरणे लुङ्। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। हल्ङ्यादिलोपे। छन्दस्यपि दृश्यते। पा० ६।४।७३। इति आडागमः। विवृतानकरोत्। (सः) वेनः। (बुध्न्याः) बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ० ३।५। इति बन्ध बन्धने-नक्, बुधादेशः। बुध्नो मेघो मूलमन्तरिक्षं वा। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति यत्। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति वा इदमपीतरद् बुध्नमेतस्मादेव बद्धा अस्मिन् धृताः प्राणा इति योऽहिः स बुध्न्यो बुध्नमन्तरिक्षं तन्निवासात्। निरु० १०।४४। बुध्नेऽन्तरिक्षे भवाः सूर्यचन्द्रपृथिवीतारकादयो लोकाः (उपमाः) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।३।१–०६। इति उप+माङ् माने-अङ्। टाप्। उपमीयमानाः। मानं प्राप्ताः। (अस्य) दृश्यमानस्य जगतः। (विष्ठाः) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।३।१०६। वि+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-अङ्, टाप्। उपसर्गात् सुनोतिसुवति०। पा० ८।३।६५। इति। षत्वम् (सतः) विद्यमानस्य। मूर्तस्य। स्थूलस्य (च) समुच्चये। अवधारणे (योनिम्) अ० १।११।३। गृहम्-निघ० ३।४। आकाशम्। कारणम् (वि वः) वि+वृञ् वरणे-लङ्। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। बहुलं छन्दस्यमाङ् योगेऽपि। पा० ६।४।७५। इति अडभावः। विवृतमकरोत् ॥

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    विषय

    ब्रह्म का हृदय में प्रादुर्भाव

    पदार्थ

    १. (वेनः) = [वेन् togo to know, to worship] गतिशील ज्ञानी उपासक (पुरस्तात्) = सृष्टि के आरम्भ में (जज्ञानम्) = प्रादुर्भूत होनेवाले (प्रथमम्) = अति विस्तृत-'प्रकृति, जीव व परमात्मा' तीनों का ही ज्ञान देनेवाले वेदज्ञान को (सीमत:) = मर्यादा में चलने के द्वारा और (सुरुचः) = परिष्कृत रुचि के द्वारा-सात्त्विक प्रवृत्ति के द्वारा (वि आव:) = अपने हृदय में प्रकट करता है। वेदज्ञान सृष्टि के आरम्भ में प्रभु के द्वारा दिया जाता है। यह ज्ञान अति विस्तृत है-'प्रकृति, जीव व परमात्मा' तीनों का ही प्रकाश करता है। इसका प्रकाश उसी के जीवन में होता है जो मर्यादित जीवनवाला होता है तथा उत्तम, परिष्कृत रुचिवाला होता है। २, (स:) = वह वेन (अस्य) = इस प्रभु के इन (बुध्न्या:) = अन्तरिक्ष में होनेवाले (उपमा:) = उपमा देने योग्य 'अद्भुत'(विष्ठा:) = अलग-अलग, मर्यादा में स्थित सूर्यादि लोकों को (बिव:)  = विशद रूप से देखता है (उ) = और (सतः असत: च) = दृश्य कार्यजगत् तथा अदृश्य कारणजगत् के (योनिम्) = आधारभूत उस प्रभु को [विवः]-अपने हृदय में प्रकट करता है। सूर्यादि लोकों में उस प्रभु की ही महिमा दृष्टिगोचर होती है और वह 'वेन' इस कार्यकारणात्मक जगत् के योनिभूत उस प्रभु के प्रकाश को देखने लगता है।

    भावार्थ

    सृष्टि के आरम्भ में वेदज्ञान का प्रकाश होता है। इसकी प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि जीवन मर्यादा-सम्पन्न हो तथा उत्तम रुचिवाला हो। क्रियाशील ज्ञानी उपासक सब लोक लोकान्तरों में प्रभु की महिमा को देखता है। प्रभु को ही कार्यकारणात्मक जगत् की योनि जानता |

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    भाषार्थ

    (पुरस्तात्) पूर्बकाल अर्थात् सृष्ट्यारम्भ काल में (ब्रह्म) ब्रह्म (प्रथमम्) पहिले (जज्ञानम्) ज्ञानबान् या प्रकट हुआ, (बेनः) प्रजापति रूप में (सीमतः) जगत् की सीमा में, (सुरुच:) उत्तम-रोचमान नक्षत्र-ताराओं को (वि वः) उसने बिबृत किया, प्रकट किया। (सः) बह वेन अर्थात् प्रजापति, तथा (बुध्न्याः) मूल प्रकृति से उत्पन्न नक्षत्रतारा (अस्य) इस ब्रह्म के उपमारूप हैं, (विष्ठाः) और इसके बिशेष स्थिति के स्थान हैं, (सतः च) अभिव्यक्त की, तथा (असतः च) अनभिव्यक्त की (योनिम्) योनिरूप प्रकृति को (वि वः) ब्रह्मा ने बिबृत कर दिया, खोल दिया।

    टिप्पणी

    [जज्ञानम्=सबका उत्पादक और ज्ञाता (यजुः० १३।३, दयानन्द); तथा "जज्ञे=जनी प्रादुर्भावे, यद्वा जानातेलिट्" (अथर्व० ४।१।३ सायण।) सुष्ट्यारम्भ में ब्रह्म ज्ञानबान् होता है कि मैं जगत् की रचना करूं। इसे उपनिषदों में "अकामय़त" द्वारा कहा है (उपनिषद् १)। कामना से पूर्ब काम्य वस्तु का ज्ञान होता है। इस ज्ञान को "जज्ञानम्" द्वारा सूचित किया है। प्रलयावस्था में ब्रह्म सृष्टिरचना-विषयक ज्ञानवान् नहीं होता। वेनः=कमनीयः प्रजापतिः (उणा० ३।६; दयानन्द)। सृष्टि पैदा करते समय ब्रह्म ही प्रजापति होता है, क्योंकि उसने प्रजाओं को पैदा करना है। उस समय बह कान्तिमान् होता है, वेनति कान्तिकर्मा (निघं० २।६)। कान्ति का अभिप्राय है प्रकट रूप, क्योंकि प्रजापति ने "सुरुच:" को प्रकट किय़ा है। बुध्न्या=बुध्नः मूलम् (उणा० ३।५, दयानन्द)। जगत् का मूल है "प्रकृति", जिससे कि जगत् पैदा हुआ है। प्रकृति उपादानकारण रूप में मूल२ है। उपमा:=प्रकाशमान रूप में "सुरुचः" प्रजापति की उपमारूप हैं। यथा "नक्षत्राणि रूपम्" (यजु:० ३१।२२); तथा “आदित्यवर्णम्" (यजु:० ३१।१८)। योनि विवः=सन्तानोत्पत्ति के समय, माता की योनि विवृत हो जाती है, अत: योनिरूप प्रकृति के सम्बन्ध में भी "विवः" का प्रयोग हुआ है।] [१. अकामयत (बृहदा उप० अध्याय १, ब्राह्मण ४, सन्दर्भ १७। "ईक्षांचक्रे" भी ब्रह्म को ज्ञानबान् कहता है, तथा "ऐच्छत्" पद भी (बृहदा० उप०, अध्याय १, ब्राह्मण ४, सन्दर्भ २,३)।] [२. मूले मूलाभावादमूलं मूलम्।]

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    विषय

    परमेश्वर की उत्पादक और धारक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (प्रथम) सब से श्रेष्ठ (ब्रह्म) परमात्मा की महान् शक्ति (पुरस्तात्) सब से पूर्व (जज्ञानं) प्रकट हुई। (वेनः) प्रकाशमान् तेजस्वरूप उस महान् परमेश्वर ने (सीमतः) इन समस्त लोकों के बीच में व्यापक होकर (सुरुचः) सब प्रकाशमान् लोकों को (वि आवः) इस प्रकार प्रकाशित किया जिस प्रकार सूर्य ग्रह-मण्डल में रह कर उनकों प्रकाशित करता है। और (सः) उस परमेश्वर ने (अस्य) इस संसार के (बुध्न्याः) आधारभूत आकाश में प्रकट होने वाली (विष्ठाः) सब लोकों को विशेष रूप से स्थिति देने वाली, (उपमाः) सबकी रचना की कारणभूत प्रकृति से उत्पन्न विकृतिरूप महत्तत्व सूक्ष्म और स्थूलभूत आदि सामग्रियों को भी (वि वः) विशेष रूप से उत्पन्न किया और साथ ही उस परमेश्वर ने (सतः च) इस सत् व्यक्त जगत् के मूल कारण ओर (असतः च योनिम्) असत् = अव्यक्त, प्रादुर्भूत जगत् के अप्रकट मूलकारण को भी (वि वः) प्रकट किया।

    टिप्पणी

    अवत्सारऋषियर्जुवेदे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वेन ऋषिः। बृहस्पतिस्त आदित्यो देवता। १, ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुभः। २, ५ भुरिजः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    The loving, faithful, visionary sage visualizes the infinite spirit of the universe, first, eternal, and directly manifested from the bounds of brilliant stars. Various stars and planets abiding in space are reflections of the presence of the Spirit. It is that Spirit which brings into existence Prakrti, mother cause of what is in nature and what is yet to be.

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    Subject

    Brhaspati and Aditya

    Translation

    The supreme Lord was the first knower, pre-existing all. That beautiful one, from the summit enlightens beautiful worlds. He illuminates the regions, mid-regions, the worlds existing therein, and the womb of the existent and the non existent. (cf. Yv. XII3)

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    Translation

    God worshipable by all in the Starting process of Creation first manifested void, the space and from the material if substance spreading in all directions evolved the heavenly bodies Possessing brilliance. He brought the material elements active in the space into manifestation. He made also material cause of the evolved and non-evolved world manifest.

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    Translation

    That God alone is Adorable, Who, in the beginning of the universecreated everything, is wide in expansion, Highest of all, Effulgent and worthy of worship. The Sun, Moon and other worlds in the atmosphere stationed in their orbits, testify to His knowledge. He pervades them all through His Omnipresence and comprehends the visible and the invisible in space.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(ब्रह्म) अ० १।८।४। वृद्धिकारणम् अन्नम्-निरु० २।७। (जज्ञानम्) जनी प्रादुर्भावे-शानचि शपः श्लौ सति रूपम्। जायमानम्। दृश्यमानम् (प्रथमम्) अ० १।१२।१। प्रख्यातम्। (पुस्तात्) दिक्शब्देभ्यः सप्तमीपञ्चमीप्रथमाभ्यो दिग्देशकालेष्वस्तातिः। पा० ५।३।२७। इति पूर्वशब्दाद् अस्ताति। अस्ताति च। पा० ५।३।४०। इति पूर्वस्य पुरादेशः। अतीते प्रथमे काले वा। सृष्ट्यादौ। (वि) व्यवहिताश्च। पा० १।४।८२। इति व्यवधानम्। (सीमतः) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।१५१। इति षिञ् बन्धने-मनिन्। अपादाने चाहीयरुहोः। पा० ५।४।४५। इति तसि। सीम्नः सीमतः सीमातो मर्यादातः। सीमा मर्यादा विषीव्यति देशाविति-निरु० १।७। सीमभ्यः। लोकमर्यादाभ्यः (सुरुचः) रुच्लृ प्रीतिप्रकाशयोः-क्विप्। सुष्ठु रोचमानान् लोकान्। (वेनः) अ० २।१।१। दीप्यमानः परब्रह्मात्मकः-इति सायणोऽपि। मेधावी-निघ० २।१५। (वि आवः) वृञ् वरणे लुङ्। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। हल्ङ्यादिलोपे। छन्दस्यपि दृश्यते। पा० ६।४।७३। इति आडागमः। विवृतानकरोत्। (सः) वेनः। (बुध्न्याः) बन्धेर्ब्रधिबुधी च। उ० ३।५। इति बन्ध बन्धने-नक्, बुधादेशः। बुध्नो मेघो मूलमन्तरिक्षं वा। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति यत्। बुध्नमन्तरिक्षं बद्धा अस्मिन् धृता आप इति वा इदमपीतरद् बुध्नमेतस्मादेव बद्धा अस्मिन् धृताः प्राणा इति योऽहिः स बुध्न्यो बुध्नमन्तरिक्षं तन्निवासात्। निरु० १०।४४। बुध्नेऽन्तरिक्षे भवाः सूर्यचन्द्रपृथिवीतारकादयो लोकाः (उपमाः) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।३।१–०६। इति उप+माङ् माने-अङ्। टाप्। उपमीयमानाः। मानं प्राप्ताः। (अस्य) दृश्यमानस्य जगतः। (विष्ठाः) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।३।१०६। वि+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-अङ्, टाप्। उपसर्गात् सुनोतिसुवति०। पा० ८।३।६५। इति। षत्वम् (सतः) विद्यमानस्य। मूर्तस्य। स्थूलस्य (च) समुच्चये। अवधारणे (योनिम्) अ० १।११।३। गृहम्-निघ० ३।४। आकाशम्। कारणम् (वि वः) वि+वृञ् वरणे-लङ्। मन्त्रे घस०। पा० २।४।८०। इति च्लेर्लुक्। बहुलं छन्दस्यमाङ् योगेऽपि। पा० ६।४।७५। इति अडभावः। विवृतमकरोत् ॥

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