अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
ऋषिः - ऋभु
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - त्रिपदा गायत्री
सूक्तम् - रोहिणी वनस्पति सूक्त
1
रोह॑ण्यसि॒ रोह॑ण्य॒स्थ्नश्छि॒न्नस्य॒ रोह॑णी। रो॒हये॒दम॑रुन्धति ॥
स्वर सहित पद पाठरोह॑णी । अ॒सि॒ । रोह॑णी ।अ॒स्थ्न: । छि॒न्नस्य॑ । रोह॑णी । रो॒हय॑ । इ॒दम् । अ॒रु॒न्ध॒ती॒ ॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रोहण्यसि रोहण्यस्थ्नश्छिन्नस्य रोहणी। रोहयेदमरुन्धति ॥
स्वर रहित पद पाठरोहणी । असि । रोहणी ।अस्थ्न: । छिन्नस्य । रोहणी । रोहय । इदम् । अरुन्धती ॥१२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अपने दोष मिटाने का उपदेश।
पदार्थ
[हे मानुषी प्रजा तू] (छिन्नस्य) टूटी (अस्थ्नः) हड्डी की (रोहणी) पूरनेवाली (रोहणी) रोहिणी वा लाक्षा [के समान] (रोहणी) पूरनेवाली शक्ति (असि) है। (अरुन्धति) हे रोक न डालनेवाली शक्ति तू ! (इदम्) ऐश्वर्य (रोहय) सम्पूर्ण कर ॥१॥
भावार्थ
बुद्धिमान् पुरुष विज्ञानपूर्वक अपने आत्मिक और शारीरिक दोषों को मिटावे, जैसे सद्वैद्य रोहिणी वा लाक्षा [लाख वा लाह] आदि ओषधि से रोगों को निवृत्त करता है ॥१॥ सायणभाष्य में (रोहणी) पद के स्थान में [रोहिणी] मानकर “लाक्षा” अर्थ किया है ॥
टिप्पणी
१−(रोहणी) रुह प्रादुर्भावे-णिच्-ल्युट्, ङीप्। रोहयित्री पूरयित्री शक्तिः। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति द्विर्वचनम् (असि) भवसि (अस्थ्नः) अ० १।२३।४। मांसाभ्यन्तरस्थस्य धातुविशेषस्य (छिन्नस्य) भिन्नस्य (रोहणी) व्युत्पत्तिः पूर्ववत्। रोहणी एव रोहिणी, ओषधिविशेषः। तत्पर्यायाः शब्दकल्पद्रुमे। कटुम्भरा। सोमवल्कः। सोमवृक्षः। सायणमते तु रोहिणी लाक्षा नामौषधविशेषः (रोहय) प्ररोहय। पूरय (इदम्) इन्देः कमिन्नलोपश्च। उ० ४।१५७। इति इदि परमैश्वर्ये-कमिन्। परमैश्वर्यम् (अरुन्धति) नञ्+रुधिर् आवरणे-शतृ, ङीप्। हे अरोधनशीले ! हे अवारयित्रि शक्ते ॥
विषय
रोहणी
पदार्थ
१. (रोहणी असि) = हे ओषधे! तू रोहणी है-घाव को भर देनेवाली है। (छिन्नस्य अस्थन:) = टूटी हुई हड्डी को भी (रोहणी) = पूर्ण कर देनेवाली है। २. हे (अरुन्धति) = दूसरों से अभिभूत न होनेवाली अथवा आरोधनशील-घाव भरने की प्रगति को ठीक से चालू रखनेवाली रोहणि! तु (इदं रोहय) = इस भग्न व सुत-रक्त अङ्ग को प्ररूढ़ कर दे-फिर से ठीक-ठीक कर दे, इसे अव्रण बना दे।
भावार्थ
हम रोहणी ओषधि के प्रयोग से भग्न अस्थि को भी फिर से ठीक करके शरीर अस्थि को ठीक करनेवाले हों।
भाषार्थ
[रोहणि] लोहित वर्णवाली हे लाक्षा ! [अथर्व० ५।५।७] (रोहिणी असि) तू क्षतों को प्ररोहित करती है, भर देती है, (छिन्नस्य) टूटी (अस्थ्नः) हड्डी को (रोहणी) तू प्ररोहित करती है, छोड़ देती है। (अरुन्धति) हे घावों का निरोध करनेवाली ! (इदम्) इस कटे अङ्ग को (रोहय) तू रोहित कर, भर दे, ठीक कर दे।
टिप्पणी
[अरुन्धती= अरूंषि धयति इति; कटे भाग के पीप, और रक्त को पी जानेवाली। अरुन्धती पद में 'अरुः' पद है (देखें, अथर्व० ५।५।४)। अरुः=घाव।]
विषय
कटे फटे अंगों की चिकित्सा।
भावार्थ
कटे फटे और टूटे फूटे अंगों की चिकित्सा का उपदेश करते हैं। हे (रोहणि) रोहणी नामक औषधे ! तू (अस्थ्नः) हड्डी की भी (रोहणी असि) रोप देने वाली है और (छिन्नस्य) कटे, क्षत घाव को भी (रोहणी) पूर देने, चंगा कर देने वाली है। (अरुन्धति) अरुष् = घाव को पूरने वाली ओषधे ! तू (इदम्) इसे घाव को (रोहय) भरदे, पूरदे, अच्छा कर दे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋभुर्ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १ त्रिपदा गायत्री। ६ त्रिपदा यवमध्या भुरिग्गायत्रीं। ७ भुरिक्। २, ५ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Rohini Vanaspati
Meaning
You are Rohini, the healer, healer of the broken bone. Growing, unobstructive, Arundhati, clearer of the blockade, pray heal this wound and let the bone grow normally.
Subject
Rohani Vanaspati
Translation
O Rohani or Rohini (grower) art thou. You are healer, you are healer of blood flowing from a severed limb. May you heal it up, O unobstructing one.( Rohani, so called because it grows or spreads on)
Translation
This healing plant is the healer, it is the healer of broken bone and the healer of the gap caused by wound. Let this Arundhati heal up, this wound. [N.B Arundhati is the name as it fills up the whole caused by wounds etc.]
Translation
O Rohini named herb, thou art the healer, the healer of the broken bone. O Arundhti, wound filling medicine, fill up this wound!
Footnote
Rohini and Arundhti are two names for the plant, that possesses the medicinal property of healing a broken bone, or filling up a wound.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(रोहणी) रुह प्रादुर्भावे-णिच्-ल्युट्, ङीप्। रोहयित्री पूरयित्री शक्तिः। नित्यवीप्सयोः। पा० ८।१।४। इति द्विर्वचनम् (असि) भवसि (अस्थ्नः) अ० १।२३।४। मांसाभ्यन्तरस्थस्य धातुविशेषस्य (छिन्नस्य) भिन्नस्य (रोहणी) व्युत्पत्तिः पूर्ववत्। रोहणी एव रोहिणी, ओषधिविशेषः। तत्पर्यायाः शब्दकल्पद्रुमे। कटुम्भरा। सोमवल्कः। सोमवृक्षः। सायणमते तु रोहिणी लाक्षा नामौषधविशेषः (रोहय) प्ररोहय। पूरय (इदम्) इन्देः कमिन्नलोपश्च। उ० ४।१५७। इति इदि परमैश्वर्ये-कमिन्। परमैश्वर्यम् (अरुन्धति) नञ्+रुधिर् आवरणे-शतृ, ङीप्। हे अरोधनशीले ! हे अवारयित्रि शक्ते ॥
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