अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 1
ऋषिः - शन्तातिः
देवता - चन्द्रमाः, विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रोग निवारण सूक्त
1
उ॒त दे॑वा॒ अव॑हितं॒ देवा॒ उन्न॑यथा॒ पुनः॑। उ॒ताग॑श्च॒क्रुषं॑ देवा॒ देवा॑ जी॒वय॑था॒ पुनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । दे॒वा॒: । अव॑ऽहितम् । देवा॑: । उत् । न॒य॒थ॒ । पुन॑: । उ॒त । आग॑: । च॒क्रुष॑म् । दे॒वा॒: । देवा॑: । जी॒वय॑था । पुन॑: ॥१३.1॥
स्वर रहित मन्त्र
उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः। उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः ॥
स्वर रहित पद पाठउत । देवा: । अवऽहितम् । देवा: । उत् । नयथ । पुन: । उत । आग: । चक्रुषम् । देवा: । देवा: । जीवयथा । पुन: ॥१३.1॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
स्वास्थ्यरक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(देवाः) हे व्यवहारकुशल (देवाः) विद्वान् लोगो ! (अवहितम्) अधोगत पुरुष को (उत) अवश्य (पुनः) फिर (उन्नयथ) तुम उठाते हो। (उत) और भी, (देवाः) हे दानशील (देवाः) महात्माओ ! (आगः) अपराध (चक्रुषम्) करनेवाले प्राणी को (पुनः) फिर (जीवयथ) तुम जिलाते हो ॥१॥
भावार्थ
महात्मा लोग स्वभाव से ही अधोगत पुरुषों को ऊँचा करते और मृतकसमान अपराधियों को पाप से छुड़ा कर उनका जीवन सुफल कराते हैं। मनुष्य सत्पुरुषों के सत्सङ्ग से अपने आत्मिक और शारीरिक दोषों को त्याग कर जीवन सुधारें ॥१॥ इस सूक्त के मन्त्र १-५, ७ ऋग्वेद १०।१३७ के म० १-५, ७ कुछ भेद से हैं ॥
टिप्पणी
१−(उत) निश्चयेन (देवाः) हे व्यवहारकुशलाः (अव हितम्) अव परिभवे+धाञ्-क्त। अधोधृतम्। अवनीतं पुरुषम् (देवाः) दिव्यगुणवन्तो विद्वांसः (उन्नयथ) उन्नतं कुरुथ (पुनः) (उत) अपि च (आगः) इण आगोऽपराधे च। उ० ४।२१२। इति इण् गतौ-असुन्, आगादेशः। अपराधम् (चक्रुषम्) करोतेर्लिटः क्वसुः। अमि भत्वाभावेऽपि छान्दसं वसोः संप्रसारणम्। चकृवांसम्। कृतवन्तं पुरुषम् (देवाः) हे दानशीलाः (देवाः) महात्मानः (जीवयथ) जीवनवन्तं कुरुथ ॥
विषय
विद्वानों के द्वारा अधोगत पुरुष को उठाना।
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
मुनिवरों! सुनो वह कल वाली चर्चा आ पहुंची, जैसा मुझे महानन्द जी ने वर्णन किया था महर्षि वाल्मीकि के जीवन की चर्चा। महर्षि बाल्मीकि त्रेता काल में हुए, उनका जीवन भी अग्रगण्य था। युवा अवस्था में उनका जीवन अग्ने था।
मुनिवरों! बाल्य अवस्था से युवा अवस्था तक इन्होंने नाना प्रकार के प्राणियों को महा कष्ट भी दिया, नाना प्राणियों को नष्ट कर उनका द्रव्य ले लेना और उसे अपने विधाता सम्बन्धियों को अर्पित कर देना और स्वयं आनन्द से रहना महान उस रत्तनागर का कार्य था। बाल्यावस्था में उसका नाम रत्तनागिर या रत्तनागर कह दो। एक समय देव ऋषि नारद उनके आसन पर आए, और भी कुछ ऋषि थे। नारद मुनि को उसने कहा कि अरे, कौन संन्यासी जाता है?
मुनिवरों! वह शान्त हो गएं और बोले क्यों भाई? महाराज! जो कुछ आपके द्वारा है, वह मुझे अर्पित कर दीजिए।
नारद मुनि ने कहा कि भाई क्या क्यों लेते हो?
महाराज! मेरे पिता हैं, माता हैं और सम्बन्धित परिवार है उनके उदर की पूर्ति के लिए।
नारद मुनि ने कहा तो भाई तुम मनुष्यों को कष्ट क्यों देते हो, अपने अङ्गों से कुछ पुरुषार्थ करो। उनहोंने कहा नहीं महाराज ! यह भी तो पुरुषार्थ है, मैं इसी पुरुषार्थ को किया करता हूँ दूसरों को नष्ट करता हूँ, द्रव्य लेता हूँ, आनन्द पान करता हूँ।
ऋषि ने कहा तो अच्छा, तुम एक कार्य करो, कि अपने सम्बन्धियों से प्राप्त करके आओ, कि यदि कोई मुझे नष्ट करने लगे, तो तुम मेरी सहायता करोगे या नहीं।
मुनिवरों! वह वहाँ से बहतें हुए अपनी माता के द्वार पहुंचे और बोले माता! यदि मुझे कोई नष्ट करने लगे तो तुम मेरी सहायता करोगी? माता ने कहा कदापि नहीं जो पाप कर्म करता है उसका कोई साथी नहीं होता संसार में। यही वाक्य पिता ने कहा, वही वाक्य विधाता सम्बन्धियों ने कहा। यह वाक्य जान वह वहाँ से बहता हुआ ऋषि के द्वार आ पहुंचा।
ऋषि ने कहा कि अरे, क्या रहा?
प्रभु! उन्होंने कहा है, कि तुम्हारा कोई साथी नहीं। देव ऋषि नारद मुनि बोले कि जब माता पिता तुम्हारे साथी नही हैं तो तुम इतना पाप ही क्यों करते हो, यह पाप न करो।
उस बालक को बेटा! वैराग्य की भावनाएं आने लगी और उसने कहा तो प्रभु! मैं क्या करूं? उन्होंने कहा कि तुम राम का पूजन करो, भगवान का चिन्तन करो, तुम्हारा उत्थान होता चला जाएगा।
मुनिवरों! उस महान बालक ने परमात्मा का चिन्तन करना प्रारम्भ कर दिया और यहाँ तक सुना जाता है कि राम रमेति शब्दार्थों में उनके हृदय में वह अमूल्य प्रकाश हो गया, वह अग्नि जागृत हो गई, उसे ज्ञान होने लगा, कि संसार का ज्ञान क्या है, विज्ञान क्या है, आत्मिक विज्ञान क्या है, यह सब ज्ञान उसके द्वारा ओत प्रोत होने लगा।
तो मुनिवरों! देखो, अब बालक ऋषि बनने लगा और आचार्यों ने उसका नाम ऋषि बाल्मीकि चुना जो बाल्य अवस्था में कुकर्म करने वाला हो और आगे ऋषि बन जाएं, उसी का नाम बाल्मीकि कहलाता है। देखो, वह कितने महान प्रकाण्ड, बुद्धिमान, ब्रह्माज्ञानी, तत्त्ववेत्ता कहलाने लगे, ऋषियों में उनकी चुनौति होने लगी।
विषय
'स्वस्थ व निष्पाप' जीवन
पदार्थ
१. हे (देवा:) = आधि-व्याधियों पर विजय पाने की कामनावाले (देवा:) = विद्वान् पुरुषो! आप (अवहितम् उत्त) = रोगादि से नीचे पड़े हुए भी इस पुरुष को पुनः (उन्नयथ) = फिर से उन्नत कर देते हो। आप इसे फिर से उठा देते हो। २. (उत) = और हे (देवा:) = ज्ञान की ज्योतिवाले (देवा:) = ज्ञानी पुरुषो! आप (आग: चक्रुषम्) = पाप कर चुके हुए भी इस पुरुष की पापवृत्ति को दूर करके (पुन:) = फिर से (जीवयथ) = नवजीवन प्रदान करते हो।
भावार्थ
देवपुरुष हमारे रोगों व पापों को दूर करके हमें नया, स्वस्थ और निष्पाप जीवन प्रदान करें।
भाषार्थ
(उत) तथा (अवहितम्) अधोगति-प्राप्त हुए को (देवाः) हे दिव्य महात्माओ ! (उन्नयथ) समुन्नत करो, (देवाः) हे दिव्य महात्माओ ! (पुनः) बार-बार समुन्नत करो। (उत) तथा (आग:) पापकर्म (चक्रुषम्) किये हुए को (देवाः) हे दिव्य महात्माओ ! (जीवयथ) नया जीवन प्रदान करो, (देवाः) हे दिव्य महात्माओ ! (पुनः) बार-बार नया जीवन प्रदान करो।
टिप्पणी
[अवहितम्= अव (अधः) + हितम् (हि गतौ) + क्तः।]
विषय
पतितोद्धार, शुद्धि और रोगनाशन।
भावार्थ
(उत) और हे (देवाः) विद्वान्, दिव्यगुणयुक्त पुरुषों ! इस पुरुष को या बालक को (अवहितं) सावधान, प्रमादरहित करो और हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (पुनः) पुनः २ अपराध करने एवं नीच भावों में जा पड़ने पर भी उसे उत्तम उपदेशों और सद्व्रतों के आचरणों द्वारा (उत् नयथ) बार २ उन्नत करो। (उत) और (आगः चक्रुषं) पापाचरण करने पर भी इस पुरुष या बालक को (देवाः पुनः उन्नयथ) बार २ उन्नत करो। हे (देवाः) देव समान सदाचार युक्त पुरुषों ! यदि इस का आत्मा पापाचारण द्वारा सर्वथा मर भी चुका हो और उसे पाप पुण्य और भले बुरे का ज्ञान भी न रह गया हो तो भी (पुनः) बार बार (जीवयथ) उसे जीवित करो, उसके आत्मा की चेतना को पुनः जगाओ जिससे वह पाप को पाप और धर्म को धर्म समझे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंताति र्ऋषिः। चन्द्रमा उत विश्वे देवा देवताः। १-७ अनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Save the Life
Meaning
O Devas, noble, brilliant and generous powers and people, raise the fallen, raise them higher again and again. And, O devas, O lovers of divinity, if they do evil and commit sin, even then save them, give them life again, redeem them.
Subject
Visvedevih
Translation
O bounties of Nature, raise this man up again, even though he has gone very low. Even though he has committed sins (agas), O gracious bounties of Nature, may you restore him to life again. (Cf. Rg. X.137.1).
Translation
O ye dextere men of practical life! uplift again the man who has come down to humility, give again a new life, O learned men, to him who commits faults.
Translation
O worldly wise learned persons, raise again the degraded. O charitable sages, grant again spiritual life to the sinner.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(उत) निश्चयेन (देवाः) हे व्यवहारकुशलाः (अव हितम्) अव परिभवे+धाञ्-क्त। अधोधृतम्। अवनीतं पुरुषम् (देवाः) दिव्यगुणवन्तो विद्वांसः (उन्नयथ) उन्नतं कुरुथ (पुनः) (उत) अपि च (आगः) इण आगोऽपराधे च। उ० ४।२१२। इति इण् गतौ-असुन्, आगादेशः। अपराधम् (चक्रुषम्) करोतेर्लिटः क्वसुः। अमि भत्वाभावेऽपि छान्दसं वसोः संप्रसारणम्। चकृवांसम्। कृतवन्तं पुरुषम् (देवाः) हे दानशीलाः (देवाः) महात्मानः (जीवयथ) जीवनवन्तं कुरुथ ॥
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