अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - मृगारः
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - पुरोऽष्टिर्जगती
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
1
म॒न्वे वां॑ द्यावापृथिवी सुभोजसौ॒ सचे॑तसौ॒ ये अप्र॑थेथा॒ममि॑ता॒ योज॑नानि। प्र॑ति॒ष्ठे ह्यभ॑वतं॒ वसू॑नां॒ ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्वे । वा॒म् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । सु॒ऽभो॒ज॒सौ॒ । सऽचे॑तसौ । ये इति॑ । अप्र॑थेथाम् । अमि॑ता । योज॑नानि ।प्र॒ति॒स्थे इति॑ प्र॒ति॒ऽस्थे । हि । अभ॑वतम् । वसू॑नाम । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्वे वां द्यावापृथिवी सुभोजसौ सचेतसौ ये अप्रथेथाममिता योजनानि। प्रतिष्ठे ह्यभवतं वसूनां ते नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठमन्वे । वाम् । द्यावापृथिवी इति । सुऽभोजसौ । सऽचेतसौ । ये इति । अप्रथेथाम् । अमिता । योजनानि ।प्रतिस्थे इति प्रतिऽस्थे । हि । अभवतम् । वसूनाम । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(सुभोजसौ) हे उत्तम भोग देनेवाली वा पालन करनेवाली (सचेतसौ) समान ज्ञान करानेवाली (द्यावापृथिवी) सूर्य पृथिवी ! (वाम्) तुम दोनों का (मन्वे) मैं मनन करता हूँ, (ये) जिन तुम दोनों ने (अमिता) अगणित (योजनानि) संयोग कर्मों को (अप्रथेथाम्) प्रसिद्ध किया है और (हि) अवश्य ही (वसूनाम्) धनों की (प्रतिष्ठे) आधार (अभवतम्) हुई हो। (ते) वे तुम दोनों (वः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥१॥
भावार्थ
सूर्य और पृथिवी के परस्पर आकर्षण से अन्न, धन और अनेक संयोग-वियोग क्रियाएँ प्रकट होती हैं। मनुष्य उनके गुणों का यथावत् उपयोग करके आनन्द भोगें ॥१॥
टिप्पणी
१−(मन्वे) मननं करोमि (वाम्) युवयोः (द्यावापृथिवी) हे द्यावापृथिव्यौ ! हे सूर्यभूलोकौ ! (सुभोजसौ) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति भुज पालनाभ्यवहारयोः-असुन्। शोभनपालयित्र्यौ। सुष्ठु भोजयित्र्यौ (सचेतसौ) अ० १।३०।२। समानचेतयित्र्यौ (ये) द्यावापृथिव्यौ (अप्रथेथाम्) प्रथ प्रख्याने-लङ्। प्रख्यातवत्यौ। प्रसिद्धीकृतवत्यौ (अमिता) माङ् माने शब्दे च-क्त। अमितानि। अपरिमितानि बहूनि (योजनानि) युजिर्-योगे-ल्युट्। संयोजनानि। संयोगकर्माणि (प्रतिष्ठे) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।३।१०६। इति प्रति+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-अधिकरणेऽङ्। आधारभूते (हि) अवश्यम् (अभवतम्) (वसूनाम्) निवासहेतूनां धनानाम्-निघ० २।१०। (ते) तथाभूते युवाम् (नः) अस्मान् (मुञ्चतम्) मोचयतम् (अंहसः) कष्टात् ॥
विषय
"सुभोजसौ, सचेतसौ' द्यावापृथिवी
पदार्थ
१. हे (द्यावापृथिवी) = धुलोक व पृथिवीलोक! आप दोनों (सुभोजसौ) = उत्तमरूप से हमारा पालन करनेवाले हो। धुलोक हमारे पिता है तो पृथिवी माता। ये हम पुत्रों को सब उत्तम भोग प्रास कराते हैं तथा (सचेतसौ) = ये चेतना से युक्त हैं, अर्थात् हमें चेतना प्राप्त करानेवाले हैं। मैं (वाम् मन्वे) = आप दोनों के माहात्म्य का मनन करता हूँ। (ये) = जो आप दोनों अमिता (योजनानि) = अनन्त योजनों तक (अप्रथेताम्) = विस्तृत करते हो। २. (हि) = निश्चय से ये (द्यावापृथिवी वसूनाम्) = निवास के लिए आवश्यक सब तत्त्वों के (प्रतिष्ठे अभवतम्) = आधार हों। (ते) = वे आप दोनों (न:) = हमें (अहंस:) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करो।
भावार्थ
द्युलोक व पृथिवीलोक हमारे माता-पिता के समान हैं। ये हमारा पालन करते हैं और हमारी चेतना को ठीक रखते हैं। इनमें सब वसुओं की स्थिति है। ये हमें पाप से बचाएँ।
भाषार्थ
(द्यावापृथिवी) हे द्यौ और पृथिवी ! (वाम्) तुम दोनों का (मन्वे) मैं मनन करता हूँ, [तुम दोनों की महत्ता को मैं जानता हूँ] तुम दोनों (सचेतसौ) एकचित्त हुए (सुभोजसौ)१ उत्तम पालक तथा उत्तम भोजन देते हो, (ये अमिता= अमितानि, योजनानि) जो तुम अपरिमित परिमाणी योजनों में (अप्रथेथाम्) फैले हुए हो, (वसूनाम्) सम्पत्तियों के (प्रतिष्ठे) प्रकर्षरूप में स्थितिस्थान (हि) ही (अभवत्तम्) हुए हो, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी
[भोजसौ=भुज पालनाभ्यवहारयोः (रुधादिः)। मन्वे= मनु अवबोधने। योजनानि= योजन ४ क्रोश:; ८,९ मील (आप्टे)।] [१. उत्तम भोजन है सात्त्विक भोजन, इससे पापकर्म में प्रवृत्ति नहीं होती। राजस और तामस भोजनों से सदा पापकर्म में प्रवृत्ति होती है। इसीलिए कहा है कि "रजस्तमो मोपगा मा प्रमेष्ठाः।" अथर्व० (८।२।१) अर्थात् रजस् और तमस् के समीप भी न जा और न हिंसित हो। सर्वोतम सात्विक भोजन है "दूध और ओषधियों के रस" यथा, अथर्व० (४।२७।३; १९।३१।५)।]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (द्यावापृथिवी) परमात्मा की पितृशक्ति तथा मातृशक्ति ! (वां) तुम दोनों का मैं (मन्वे) मनन करता हूं। तुम दोनों (सु-भोजसौ) उत्तम रीति से समस्त संसार के प्राणियों को पालने वा, नाना भोग देने हारी, (स-चेतसौ) तथा मानो एक चित्त वाली हो। (ये) जो तुम दोनों (अमिता) अपरिमित (योजनानि) योजनों, दूरी तक (अप्रथेथाम्) विस्तृत हो। तुम दोनों (वसूनां) वास करने वाले प्राणियों और सूर्य आदि लोकों की (प्रतिष्ठे) प्रतिष्ठा, आश्रय (हि अभवतम्) ही रहती हो। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चचतम्) मुक्त करो।
टिप्पणी
इस मन्त्र का आशय यह है कि संसार में दो शक्तियां प्रतीत होती हैं। एक तो नियामक पितृशक्ति और दूसरी प्रेममयी मातृशक्ति। परमात्मा की ये दोनों शक्तियां मानो एकचित्त होकर संसार के कार्य का निर्वाह कर रही हैं धौर जिधर भी दृष्टि डालें इन दो शक्तियों का सर्वत्र प्रसार दृष्टिगोचर होता है। इन्हीं दो शक्तियों के आधार पर सर्वत्र संसार और प्राणी स्थित हैं। परमात्मा की इन दो शक्तियों पर यदि ध्यान तथा विचार किया जाय तो ध्यानी तथा विचारक पापों से छूट जाते हैं। पिता की नियामक मूर्ति और माता के प्रेममय हाथ दोनों ही पापों के हटाने में शक्त हैं। इसी प्रकार का भाव अगले मन्त्रों में भी जानना चाहिये।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मृगार ऋषिः। तृतीयं मृगारसूक्तम्। १ पुरोष्टिजगती। शक्वरगर्भातिमध्येज्योतिः । २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom fom Sin
Meaning
I reflect upon heaven and earth, father and mother potentials of Supreme lord divine, which extend expansive far beyond measures of distance. Both, together, are givers of life and sustenance, being, indeed, the mainstay of the Vasus, abodes and protectors of life’s existence. May they save us from sin and evil.
Subject
Dyava - Prthivi Pair
Translation
I meditate on both of you, O heaven and earth, good providers of food, and sympathetic, who are extended up to innumerable leagues. You two have become the permanent seat of goodly treasures. As such, may both of you free us form sin.
Translation
I weigh in mind the operation and utilities of these heaven and earth which give a good protection to worldly creatures, which are the object of knowledge and which through immeasurable expanses, spread out. These two are the sheltering abode of all the creatures desiring locality to live. Let these twain become sources of releasing us from grief and troubles.
Translation
O controlling and loving forces of God, Ye both are the givers of abundant gifts and full of wisdom, Ye have spread forth through measureless expanses. Ye are the supports of all living beings. May Ye twain, deliver us from sin.
Footnote
The पितृशक्ति and मातृशक्ति of God, i.e., His powers of control and Love have been spoken of as द्यावापृथिवी.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(मन्वे) मननं करोमि (वाम्) युवयोः (द्यावापृथिवी) हे द्यावापृथिव्यौ ! हे सूर्यभूलोकौ ! (सुभोजसौ) सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति भुज पालनाभ्यवहारयोः-असुन्। शोभनपालयित्र्यौ। सुष्ठु भोजयित्र्यौ (सचेतसौ) अ० १।३०।२। समानचेतयित्र्यौ (ये) द्यावापृथिव्यौ (अप्रथेथाम्) प्रथ प्रख्याने-लङ्। प्रख्यातवत्यौ। प्रसिद्धीकृतवत्यौ (अमिता) माङ् माने शब्दे च-क्त। अमितानि। अपरिमितानि बहूनि (योजनानि) युजिर्-योगे-ल्युट्। संयोजनानि। संयोगकर्माणि (प्रतिष्ठे) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।३।१०६। इति प्रति+ष्ठा गतिनिवृत्तौ-अधिकरणेऽङ्। आधारभूते (हि) अवश्यम् (अभवतम्) (वसूनाम्) निवासहेतूनां धनानाम्-निघ० २।१०। (ते) तथाभूते युवाम् (नः) अस्मान् (मुञ्चतम्) मोचयतम् (अंहसः) कष्टात् ॥
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