अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
म॒रुतां॑ मन्वे॒ अधि॑ मे ब्रुवन्तु॒ प्रेमं वाजं॒ वाज॑साते अवन्तु। आ॒शूनि॑व सु॒यमा॑नह्व ऊ॒तये॒ ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒रुता॑म् । म॒न्वे॒ । अधि॑ । मे॒ । ब्रु॒व॒न्तु॒ । प्र । इ॒मम् । वाज॑म् । वाज॑ऽसाते । अ॒व॒न्तु॒ । आ॒शूनऽइ॑व । सु॒ऽयमा॑न् ।अ॒ह्वे॒ । ऊ॒तये॑ । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुतां मन्वे अधि मे ब्रुवन्तु प्रेमं वाजं वाजसाते अवन्तु। आशूनिव सुयमानह्व ऊतये ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठमरुताम् । मन्वे । अधि । मे । ब्रुवन्तु । प्र । इमम् । वाजम् । वाजऽसाते । अवन्तु । आशूनऽइव । सुऽयमान् ।अह्वे । ऊतये । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पवन के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(मरुताम्) दोषनाशक वायुओं का (अन्वे) मैं मनन करता हूँ। (मे) मेरे लिये (अधि) अनुग्रह से (ब्रुवन्तु) बोलें और (इमम्) इस (वाजम्) बलको (वाजसाते) अन्न के सुख वा दान के निमित्त (प्र) अच्छे प्रकार (अवन्तु) तृप्त करें। (आशून् इव) शीघ्रगामी घोड़ों के समान (सुयमान्) उन सुन्दर नियमवालों को (ऊतये) अपनी रक्षा के लिये (अह्वे) मैंने पुकारा है। (ते) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य प्राण अपान व्यानरूप वायुओं के शोधन, सेवन, और प्राणायाम से बल और अन्न प्राप्त करके अपनी रक्षा करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(मरुताम्) उ० १।२०।१। मारयन्ति दोषान् मरुतः। दोषनाशकानां प्राणापानव्यानरूपाणं वायूनाम् (मन्वे) मननं करोमि (मे) मह्यम् (अधि ब्रुवन्तु) अधिकमनुग्रहेण वदन्तु (इमम्) (वाजम्) बलम्-निघ० २।९। (वाजसाते) वाजः, अन्नम्-निघ० २।७। अनुपसर्गाल्लिम्पविन्द०। पा० ३।१।१३८। इति सूत्रे पठितः सातिः सौत्रो धातुः। सात सुखे-अच्। यद्वा षणु दाने-क्त। जनसनखनाम्। पा० ६।४।४२। इत्यात्वम्। वाजस्य अन्नस्य साते सुखे दाने वा निमित्तभूते सति (प्र अवन्तु) प्रकर्षेण तर्पयन्तु (आशून्) अ० २।१४।६। शीघ्रगामिनोऽश्वान् (इव) तथा (सुयमान्) शोभननियमयुक्तान् तान् मरुतः (अह्वे) ह्वेञ् आह्वाने-लुङ्। लिपिसिचिह्वश्च। पा० ३।१।५३। इति च्लेः अङ् आदेशः। आहूतवानस्मि (ऊतये) रक्षायै (ते) मरुतः (नः) अस्मान् (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (अंहसः) कष्टात् ॥
विषय
प्राणसाधना से बल का रक्षण व लक्ष्य-प्राति
पदार्थ
१. (मरुताम् मन्वे) = शरीर में उनचास भागों में विभक्त होकर विविध कार्यों को करते हुए इन मरुतों [प्राणों] का मैं मनन करता हूँ-इनके महत्व को समझने के लिए यत्नशील होता हूँ। वे मरुत् (मे) = मेरे लिए (अधिब्रुवन्तु) = 'हमारा यह अनुगृह्य है'-इसप्रकार कहें, अर्थात् मैं सदा इन प्राणों का अनुकम्पनीय बना रहूँ। ये मरुत् (वाजसाते) = इस जीवन-संग्राम में मेरे (इमम्) = इस (वाजम) = बल को (प्रअवन्तु) = प्रकर्षेण रक्षित करें। २. (सुयमान) = सम्यक नियन्त्रित आशन इव मार्ग का शीघ्रता से व्यापन करनेवाले घोड़ों की भाँति मैं इन प्राणों को अपने (ऊतये) = रक्षण के लिए (अढे) = पुकारता हूँ। (ते) = वै मरुत् (न:) = हमें (अहंसः) = पाप से (मुञ्चन्तु) = मुक्त करें।
भावार्थ
हम प्राणों के महत्व को समझें। ये प्राण ही हमारे बल का रक्षण करते हैं। सुनियन्त्रित अश्वों के समान लक्ष्य-स्थान पर पहुँचाकर ये हमारा कल्याण करते है। ये हमें पाप मुक्त करें। प्राणसाधना दोषदहन करती ही है।
भाषार्थ
(मरुताम्) मानसूनवायुओं का (मन्वे) मैं मनन करता हूँ, या उनके माहात्म्य को मैं जानता हूँ, (मे) मुझे (अधि ब्रुवन्तु) वे निज सत्ता या विद्यमानता का कथन करें, उसे सूचित करें, (इमम्) इस (वाजम्) अन्न को (वाजसाते) अन्न प्रदान के काल अर्थात् वर्षतुं में (प्रावन्तु) वे सुरक्षित करें, या अन्नदान करें; (ऊतये) निज रक्षार्थ (आशून, इव, सुयमान्) शीघ्रगामी अश्वों की तरह सुयम्य मानसून वायुओं का (अह्वे) मैं आह्वान करता हूं, या मैंने आहान किया है, (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी
[वाजः अन्ननाम (निघं० २।७)। अवन्तु= अव रक्षा, तथा दान (भ्वादिः)। अधिब्रुवन्तु= मानसून वायुओं के तेज-प्रवाहों, तथा मेघगर्जनों को अधिब्रुवन्तु कहा है। ये वर्षा ऋतु के सूचक हैं। मन्त्रवर्णन द्वारा यह भी स्पष्ट है कि जैसे अश्वों की गतियों को यथेष्ट नियन्त्रित किया जा सकता है वैसे मानसून वायुओं की गतियों को भी यथेष्ट नियन्त्रित किया जो सकता है। पाप से मोचन का अभिप्राय है अत्यधिक या कम वर्षा द्वारा= अन्नक्षतिरूप पाप फल से मोचन। अति तथा कम वर्षा प्रजा के पापों के ही परिणाम हैं।]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
पाप से मुक्त होने के लिये विद्वानों, रक्षकों और प्राणरूप मरुतों का वर्णन करते हैं। (मरुतां) मरुतों, वायुओं और उन विद्वानों के विषय में मैं (मन्वे) मनन करता हूं कि वे (मे अधि ब्रुवन्तु) मुझ पर शासन करें और उपदेश करें (वाजसाते) ज्ञानप्रदान काल में या संग्राम में (इमम् वाजम्) इस ज्ञान और बल को अन्न के साथ। (प्र अवन्तु) अच्छी प्रकार सुरक्षित रक्खें। मैं ऐसे विद्वानों को (सुयमान् आशून् इव) उतम रीति से वश करने योग्य, वेगवान् घोड़ों के समान (ऊतये) अपनी रक्षा के लिये (अह्वे) बुलाता हूं, स्मरण करता हूं। (ते नः अंहसः मुञ्चन्तु) वे हमें पाप से मुक्त करें।
टिप्पणी
‘मरुतः = प्राणाः, भटाः, विद्वांसः’।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मृगार ऋषिः। नाना देवताः। पञ्चमं मृगारसूक्तम्। १-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Sin
Meaning
I reflect and meditate upon the Maruts, vibrant forces of nature’s dynamics of evolution inspiring humanity, pioneering scholars and thinkers, and refreshing pranic energies: may they energise me, speak their message to me, preserve, protect and promote this energy and enthusiasm of life to win further victories in our struggle for higher living. Fast like war horses are they, innately controlled progressive powers, leading to fresh achievement, I invoke them for peace, progress and security. May they save us from sin and dangerous over-enthusiasm.
Subject
Marut
Translation
I meditate on maruts (cloud-bearing winds). May they speak favourably for me. May they preserve this strength in the battle. Like well-trained swift horses, them I invoke for my protection. As such, may they free us from sin.
Translation
I consider the qualities and operations of Maruts, the airs may they become the media of our speech, may they save this wealth (the bodily wealth) in the battle of life, I speak of them highly like the well-trained steeds for our Protection. May they become the sources of delivering us from grief and troubles.
Translation
I know the learned persons. May they instruct me. May they preserve this knowledge at the time of imparting it. I call them like swift well-trained horses to help us. May they deliver us from sin.
Footnote
Marutas means learned persons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(मरुताम्) उ० १।२०।१। मारयन्ति दोषान् मरुतः। दोषनाशकानां प्राणापानव्यानरूपाणं वायूनाम् (मन्वे) मननं करोमि (मे) मह्यम् (अधि ब्रुवन्तु) अधिकमनुग्रहेण वदन्तु (इमम्) (वाजम्) बलम्-निघ० २।९। (वाजसाते) वाजः, अन्नम्-निघ० २।७। अनुपसर्गाल्लिम्पविन्द०। पा० ३।१।१३८। इति सूत्रे पठितः सातिः सौत्रो धातुः। सात सुखे-अच्। यद्वा षणु दाने-क्त। जनसनखनाम्। पा० ६।४।४२। इत्यात्वम्। वाजस्य अन्नस्य साते सुखे दाने वा निमित्तभूते सति (प्र अवन्तु) प्रकर्षेण तर्पयन्तु (आशून्) अ० २।१४।६। शीघ्रगामिनोऽश्वान् (इव) तथा (सुयमान्) शोभननियमयुक्तान् तान् मरुतः (अह्वे) ह्वेञ् आह्वाने-लुङ्। लिपिसिचिह्वश्च। पा० ३।१।५३। इति च्लेः अङ् आदेशः। आहूतवानस्मि (ऊतये) रक्षायै (ते) मरुतः (नः) अस्मान् (मुञ्चन्तु) मोचयन्तु (अंहसः) कष्टात् ॥
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