अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - रुद्रः, व्याघ्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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अ॒क्ष्यौ॑ च ते॒ मुखं॑ च ते॒ व्याघ्र॑ जम्भयामसि। आत्सर्वा॑न्विंश॒तिं न॒खान् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒क्ष्यौ᳡ । च॒ । ते॒ । मुख॑म् । च॒ । ते॒ । व्याघ्र॑ । ज॒म्भ॒या॒म॒सि॒ । आत् । सर्वा॑न् । विं॒श॒तिम् । न॒खान् ॥३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्ष्यौ च ते मुखं च ते व्याघ्र जम्भयामसि। आत्सर्वान्विंशतिं नखान् ॥
स्वर रहित पद पाठअक्ष्यौ । च । ते । मुखम् । च । ते । व्याघ्र । जम्भयामसि । आत् । सर्वान् । विंशतिम् । नखान् ॥३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वैरी के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(व्याघ्र) हे बाघ ! (ते) तेरी (अक्ष्यौ) दोनों [हृदय और मस्तक की] आँखों को (च) और (च) भी (ते मुखम्) तेरे मुख को, (आत्) और भी (सर्वान्) सब (विंशतिम्) बीसों (नखान्) नखों को (जम्भयामसि=०-मः) हम नष्ट करते हैं ॥३॥
भावार्थ
जैसे हिंसक जन्तुओं को अङ्ग भङ्ग करके नष्ट कर देते हैं, इसी प्रकार मनुष्य अपने-अपने शत्रुओं को सेनादि और शरीर के अङ्गों से नष्ट करके प्रजा में शान्ति रक्खें ॥३॥
टिप्पणी
३−(अक्ष्यौ) अ० १।२७।२। अक्षिणी। उभे मानसिकमस्तकनेत्रे। (मुखम्) अ० २।३५।५। आस्यम् (ते) तव (व्याघ्र) म० १। हे व्याघ्रेव हिंसक पुरुष (जम्भयामसि) म० ३। नाशयामः (आत्) अनन्तरम् (सर्वान्) सकलान् (विंशतिम्) पङ्क्तिविंशति०। पा० ५।१।५९। इति विन् शब्दात् शतिच् प्रत्ययान्तो निपातः। द्वे दशती। पादचतुष्टये पञ्चशोऽवस्थितान् (नखान्) अ० २।३३।६। नखरान् ॥
विषय
व्याघ्र के 'आँख, मुख व दाँतों का नाश'
पदार्थ
१. हे (व्याघ्र) = अपने विशिष्ट आघ्राणमात्र से नष्ट करनेवाले व्यान! (ते अक्ष्यौ च) = तेरी आँखों को और (ते मुखं च) = तेरे मुख को भी (जम्भयामसि) = हम विनष्ट करते हैं। २. (आत) = और (सर्वान) = सब (विंशति नखान्) = बीसों नाखुनों को भी नष्ट करते हैं।
भावार्थ
व्याघ्र आदि के उन अङ्गों को नष्ट कर दिया जाए, जिनसे वे विनाश का कारण बनते हैं। इसीप्रकार राष्ट्र में हिंसकों के हिंसा-साधनों को समाप्त करके उन्हें हिंसन के अयोग्य बना दिया जाए।
भाषार्थ
(व्याघ्र) हे बाघ ! (ते अक्ष्यौ) तेरी दोनों आँखों को, (ते च) और तेरे (मुखं च) मुख को (जम्भयामसि) हम हिंसित करते हैं। (आत्) तत्पश्चात् (सर्वान् विंशतिम् नखान्) सब २० नखों को तोड़ देते हैं।]
भावार्थ
व्याघ्र मुकाबले पर ही आजाय तो उसका कैसे नाश करें। हे (व्याघ्र) व्याघ्र ! (ते च अक्ष्यौ) तेरी आंखों को और (ते च मुखम्) तेरे मुख को (जम्भयामसि) विनाश करें और (आत्) उसके अनन्तर (सर्वान् विंशतिम् नखान्) सब बीसों नखों का भी विनाश करें। अर्थात् पहले व्याघ्र की आंख पर बाण मार कर नाश करे, फिर मुंह काबू करे और इसके बाद उसके नखों को काट डाले। या उस के आंखों पर और मुंह पर चमड़े का खोपा लगा कर उसके नखों को भी बांध रक्खे या काट दे। इस प्रकार व्याघ्र वश में रह सकता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्र उत व्याघ्नो देवता। १ पथ्यापंक्ति, २, ४-६ अनुष्टुभः, ३ गायत्री, ७ ककुम्मतीगर्भोपरिष्टद बृहती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Throw off the Enemies
Meaning
O tiger, we disable your eyes, deface your mouth, and we destroy all your twenty nails of the claws.
Translation
O tiger (vyaghra), we hereby destroy your two eyes, as well as your mouth, and thereafter all your twenty claws we destroy.
Translation
We crush and rend to pieces both the eyes of the tiger and also his mouth and we break all the twenty nails of the tiger.
Translation
We crush and rend to pieces both thine eyes, O tiger, and thy jaws, and all the twenty claws we break.
Footnote
Twenty claws: There are five claws on each foot, and hence twenty on four feet.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(अक्ष्यौ) अ० १।२७।२। अक्षिणी। उभे मानसिकमस्तकनेत्रे। (मुखम्) अ० २।३५।५। आस्यम् (ते) तव (व्याघ्र) म० १। हे व्याघ्रेव हिंसक पुरुष (जम्भयामसि) म० ३। नाशयामः (आत्) अनन्तरम् (सर्वान्) सकलान् (विंशतिम्) पङ्क्तिविंशति०। पा० ५।१।५९। इति विन् शब्दात् शतिच् प्रत्ययान्तो निपातः। द्वे दशती। पादचतुष्टये पञ्चशोऽवस्थितान् (नखान्) अ० २।३३।६। नखरान् ॥
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