अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घमग्ने॑ शुशु॒ग्ध्या र॒यिम्। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् । अग्ने॑ । शु॒शु॒ग्धि । आ । र॒यिम् । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अप नः शोशुचदघमग्ने शुशुग्ध्या रयिम्। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठअप । न: । शोशुचत् । अघम् । अग्ने । शुशुग्धि । आ । रयिम् । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब प्रकार की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे। (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! (रयिम्) धनको (आ) अच्छे प्रकार (शुशुग्धि) सींच। (नः) हमारा (अघम्) पाप (अप शोशुचत्) दूर धुल जावे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की महिमा विचारते हुए दुष्कर्म के त्याग और सुकर्म के ग्रहण से विद्यारूप और सुवर्ण आदि रूप धन प्राप्त करें ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १ सू० ९७ ॥
टिप्पणी
१−(अप) दूरीभूय (नः) अस्माकम् (शोशुचत्) शुचिर् शौचे क्लेदे च, यङ्लुगन्ताल् लेटि अडागमः। अत्यन्तं शुच्यात् विनश्येदित्यर्थः (अघम्) पापम् (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (शुशुग्धि) शुचिर् क्लेदे-लोट्। अन्तर्गतण्यर्थः। श्यनः श्लुः। हुझल्भ्यो हेर्धिः। पा० ६।४।१०१। इति धिः। चोः कुः। पा० ८।२।३०। इति कुत्वम्। क्लेदय। सिञ्च (आ) समन्तात् (रयिम्) धनम्। अन्यद् गतम्। आदरार्थं पुनः प्रयोगः ॥
विषय
पवित्र धन
पदार्थ
१. (न:) = हमसे होनेवाला (अघम्) = पाप (अप) = दूर होकर (शोशुचत्) = ठहरने का स्थान न रहने से शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए। हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (रयिम्) = हमारे धनों को (शुशुग्धि) = सब प्रकार से शुद्ध कर दीजिए। हमारा धन सुपथ से कमाया जाकर प्रकाशमय ही हो। २. वस्तुत: शुद्ध मार्ग से ही धन कमाना है, इस वृत्ति के आते ही पाप समाप्त हो जाते हैं। अन्याय से धन कमाने की वृत्ति के मूल में 'लोभ' है। यह लोभ ही सब पापों का मूल है, अत: हे प्रभो! आप हमारे इस लोभ को दूर करके धन को पवित्र कीजिए, जिससे हमारा यह सब (अघम्) = पाप (अप) = हमसे दूर होकर (शोशुचत्) = शोक-सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए।
भावार्थ
हम पवित्र कर्मों से ही धन कमाएँ। ऐसा होने पर न लोभ होगा और न पाप। पवित्र धन हमारे सब पापों को नष्ट कर देगा।
भाषार्थ
(न:) हमारा (अघम्) पाप (अग्ने) हे अग्निस्वरूप परमेश्वर! (अप शोशुचत्) तेरी कृपा से अपगत हो जाए, और तेरी शोचि हमें पवित्र करे। हे अग्नि! (रयिम्) हमारी सम्पत्ति को (आ शुशुग्धि) तू सर्वतः पवित्र कर। (अघम्) पाप को (अप) अपगत करके (नः शोशुचत्) तुझ अग्नि की शोचि हमें पवित्र करे।
टिप्पणी
[शोशुचत्= शुच्, यङ् लुक्, अट् का आगम। रयिम् आ शुशुग्धि= यथा "अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान्" (यजु:० ४०।१६); सुपथ अर्थात् पापरहित मार्ग द्वारा रयि का उपार्जन करना उसकी पवित्रता है। शोशुचत्= ईशुचिर पूतिभावे (दिवादिः)।]
विषय
पाप नाश करने की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (अग्ने) जाज्वल्यमान तेजःस्वरूप परमात्मन् ! (नः) हमारे (अघम्) पाप को (अप शोशुचत्) जलादो, भस्मीभूत कर दो और (रयिम्) हमारे धन को (आ शुशुग्धि) सर्वतः पवित्र करो। (नः अधम् अप शोशुचद्) हमारे पापों को दूर करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। पापनाशनोऽग्निर्देवता। १-८ गायत्र्यः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cleansing of Sin and Evil
Meaning
Agni, Spirit of light and purity, pray shine on us, burn off our sins and evil, purify and sanctify our wealth, honour and excellence, cleanse off our sins and evil and let us shine in purity.
Subject
Agni.
Translation
May your light, O fire divine, dispel our sins, may your wealth shine on us. May your light dispel our sins. (Also Rg. 197.1)
Translation
O Self-refulgent God ! remove our evils far from us, give wealth to us and remove our evils far from us.
Translation
O God, destroy our sins, and let our wealth he pure. Destroy Thou our sins!
Footnote
Repetition here is for the sake of emphasis.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अप) दूरीभूय (नः) अस्माकम् (शोशुचत्) शुचिर् शौचे क्लेदे च, यङ्लुगन्ताल् लेटि अडागमः। अत्यन्तं शुच्यात् विनश्येदित्यर्थः (अघम्) पापम् (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् (शुशुग्धि) शुचिर् क्लेदे-लोट्। अन्तर्गतण्यर्थः। श्यनः श्लुः। हुझल्भ्यो हेर्धिः। पा० ६।४।१०१। इति धिः। चोः कुः। पा० ८।२।३०। इति कुत्वम्। क्लेदय। सिञ्च (आ) समन्तात् (रयिम्) धनम्। अन्यद् गतम्। आदरार्थं पुनः प्रयोगः ॥
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