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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - पृथिवी छन्दः - त्रिपदा महाबृहती सूक्तम् - सन्नति सूक्त
    1

    पृ॑थि॒व्याम॒ग्नये॒ सम॑नम॒न्त्स आ॑र्ध्नोत्। यथा॑ पृथि॒व्याम॒ग्नये॑ स॒मन॑मन्ने॒वा मह्यं॑ सं॒नमः॒ सं न॑मन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒थि॒व्याम् । अ॒ग्नये॑ । सम् । अ॒न॒म॒न् । स: । आ॒र्ध्नो॒त् । यथा॑ । पृ॒थि॒व्याम् । अ॒ग्नये॑ । स॒म्ऽअन॑मन् । ए॒व । मह्य॑म् । स॒म्ऽनम॑: । सम् । न॒म॒न्तु॒ ॥३९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथिव्यामग्नये समनमन्त्स आर्ध्नोत्। यथा पृथिव्यामग्नये समनमन्नेवा मह्यं संनमः सं नमन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृथिव्याम् । अग्नये । सम् । अनमन् । स: । आर्ध्नोत् । यथा । पृथिव्याम् । अग्नये । सम्ऽअनमन् । एव । मह्यम् । सम्ऽनम: । सम् । नमन्तु ॥३९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (अग्नये) भौतिक अग्नि के लिये वे [ऋषि लोग] (सम्) यथाविधि (अनमन्) नमे हैं, (सः) उसने [उन्हें] (आर्ध्नोत्) बढ़ाया है। (यथा) जैसे (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (अग्नये) अग्नि के लिये वे (सम् अनमन्) यथावत् नमे हैं, (एव) वैसे ही (मह्यम्) मेरे लिये (संनमः) सब सम्पत्तियाँ (सम्) यथावत (नमन्तु) नमें ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे पूर्व ऋषियों ने शिल्प आदि में भौतिक अग्नि के प्रयोग से यज्ञ सिद्ध करके अनेक सम्पत्तियाँ प्राप्त की हैं, वैसे ही हम भी प्राप्त करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(पृथिव्याम्) भूलोके (अग्नये) भौतिकाग्नये (सम्) सम्यक्। यथाविधि (अनमन्) णम प्रह्वत्वे शब्दे च-लङ्। नता अभवन् ते ऋषयः (सः) अग्निः (आर्ध्नोत्) ऋधु वृद्धौ-लङ्, अन्तर्गतण्यर्थः। अवर्धयत् (यथा) येन प्रकारेण (एव) एवम् (मह्यम्) पुरुषार्थिने पुरुषाय (संनमः) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते पा० ३।२।७५। इति सम्+णम-विच्। सर्वाः सन्नतयः सम्पत्तयः (नमन्तु) प्रह्वीभवन्तु। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    पृथिवी में अग्नि

    पदार्थ

    १. (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी में (अग्नये) = अग्नितत्त्व के लिए (समनमन्) = सब प्राणी संनत होते हैं। (सः) = वह अग्नितत्व ही (आर्ध्नोत्) = [ऋषु-10 cause, to succeed] इन प्राणियों को विजयी [सफल] बनाता है। (यथा) = जैसे (पृथिव्याम्) = इस पृथिवीरूपी शरीर में (अग्नेय) = अग्नि के लिए (समनमन्) = संनत [ro make ready] होते हैं अपने को तैयार करते हैं, (एव) = इसीप्रकार (महाम्) = मेरे लिए (संनमः) = अभिलषित फलों की प्राप्तियाँ [संनतयः] (संनमन्तु) = संनत हों-प्राप्त हों।

    भावार्थ

    शरीररूप पृथिवी में अग्नितत्त्व ही प्रधान देवता है। इसके ठीक होने पर शरीर में सब अभिलषित [दिव्य] पदार्थ उपस्थित होते हैं। अग्नि प्रधान देव है-इसके होने पर अन्य पार्थिव देव क्यों न उपस्थित होंगे?

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    भाषार्थ

    (पृथिव्याम्) पृथिवी में (अग्नये) अग्नि के लिए (समनमन्) सब प्रह्वीभूत हुए, झुके, (सः) वह अग्नि (आर्ध्नोत्) ऋद्धि अर्थात् समृद्धि को प्राप्त हुई; (यथा) जिस प्रकार (पृथिव्याम्) पृथिवी में (अग्नये) अग्नि के लिए (समनमन्) सब प्रह्वीभूत हुए (एव) इसी प्रकार (मह्यम्) मेरे लिए (संनमः) अभिलषित पदार्थों के झुकाव (संनमन्तु) संनत हों, झुकें, अर्थात् मुझे प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [अग्नि देवता है, अधिपति है, पृथिवी में। इसलिए पृथिवीस्थ सब पदार्थ इस अधिपति के लिए झुकते हैं, इसे प्राप्त होते हैं। जो भी पदार्थ अग्नि१ में आहुत होते या इसे प्राप्त होते हैं अग्नि उसे निज मुख में लेकर खा जाती है। इसी प्रकार अभिलाषी चाहता है कि उसे अभिलषित सब पदार्थ प्राप्त हों, ताकि वह उनका उपभोग कर सकें।] [१. अग्नि विशेषतया वनस्पतियों का अधिपति है। वनस्पतियों द्वारा अग्नि ऋद्धि को प्राप्त होता है, अत: कहा है कि "अग्निवनस्पतीनामधिपतिः" (अथर्व० ५।२४।२)।]

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    विषय

    विभूतियों और समृद्धियों को प्राप्त करने की साधना।

    भावार्थ

    समस्त संसार की विभूतियों कों प्राप्त करने का गोदोहन दृष्टान्त से उपदेश करते हैं। (पृथिव्यां) इस विशाल पृथिवी पर समस्त प्राणी (अग्नये) अग्नि के प्रति (समनमन्) उससे ज्ञान व प्रकाश प्राप्त करने और कार्य लेने के लिये झुकते हैं (स आर्ध्नोत्) वह अग्नि ही सब से अधिक समृद्धिपूर्ण है (यथा) जिस प्रकार (पृथिव्याम्) इस पृथिवी पर (अग्नये समनमन्) समस्त प्राणी अग्नि के प्रति ज्ञान वा प्रकाश के लिये नत होते हैं (एवा) उसी प्रकार (मह्यं) मेरे आगे (सं नमः) समस्त सम्पदाएं (सं नमन्तु) आकर झुकें, प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषिः। संनतिर्देवता। १, ३, ५, ७ त्रिपदा महाबृहत्यः, २, ४, ६, ८ संस्तारपंक्तयः, ९, १० त्रिष्टुभौ। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Prosperity

    Meaning

    On the earth, people bow to Agni for the sake of progress and prosperity. Agni, energy and generosity of the earth, blesses them with abundance and prosperity. Just as people bow to Agni on the earth, so may favours of the earth and earthly energy come to me and lead me to prosperity and humility.

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    Subject

    Varieties of Pairs (Blessings)

    Translation

    On earth all the beings bow in homage to the fire: -divine. Thus he thrives., As on earth they bow in homage to the fire divine, so may the attainments (of my heart’s desires) bow down to me:

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    Translation

    On the earth the people bow-down to the power of fire and it is accomplished with all energies. As the people bow down to the powers of fire so let all the prosperities bow down to me.

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    Translation

    Sages have paid homage to fire on earth, and fire has made them great. Just as they have bowed before fire on the earth, so let these persons who have come to honor me, bow before me.

    Footnote

    They refers to sages, ‘Paying homage to fire' means utilizing it in preparing conveyances, war-like instruments, aeroplanes, radio etc.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(पृथिव्याम्) भूलोके (अग्नये) भौतिकाग्नये (सम्) सम्यक्। यथाविधि (अनमन्) णम प्रह्वत्वे शब्दे च-लङ्। नता अभवन् ते ऋषयः (सः) अग्निः (आर्ध्नोत्) ऋधु वृद्धौ-लङ्, अन्तर्गतण्यर्थः। अवर्धयत् (यथा) येन प्रकारेण (एव) एवम् (मह्यम्) पुरुषार्थिने पुरुषाय (संनमः) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते पा० ३।२।७५। इति सम्+णम-विच्। सर्वाः सन्नतयः सम्पत्तयः (नमन्तु) प्रह्वीभवन्तु। अन्यद् गतम् ॥

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