अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - वृषभः, स्वापनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - स्वापन सूक्त
3
स॒हस्र॑शृङ्गो वृष॒भो यः स॑मु॒द्रादु॒दाच॑रत्। तेना॑ सह॒स्ये॑ना व॒यं नि जना॑न्त्स्वापयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठस॒हस्र॑ऽशृङ्ग: । वृ॒ष॒भ: । य: । स॒मु॒द्रात् । उ॒त्ऽआच॑रत् । तेन॑ । स॒ह॒स्ये᳡न । व॒यम् । नि । जना॑न् । स्वा॒प॒या॒म॒सि॒ ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रशृङ्गो वृषभो यः समुद्रादुदाचरत्। तेना सहस्येना वयं नि जनान्त्स्वापयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽशृङ्ग: । वृषभ: । य: । समुद्रात् । उत्ऽआचरत् । तेन । सहस्येन । वयम् । नि । जनान् । स्वापयामसि ॥५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
बच्चों के सुलाने का गीत अर्थात् लोरी।
पदार्थ
(यः) जो (वृषभः) सुख बरसानेवाला (सहस्रशृङ्गः) सहस्रों तेज अर्थात् नक्षत्रोंवाला चन्द्रमा [अथवा सहस्रों किरणोंवाला सूर्य] (समुद्रात्) आकाश से (उदाचरत्) उदय हुआ है, (तेन) उस (सहस्येन) बल के लिये हितकारक [चन्द्रमा] से (वयम्) हम लोग (जनान्) सब जनों को (नि स्वापयामसि) सुलादें ॥१॥
भावार्थ
माता पिता आदि बच्चों को चन्द्रमा के दर्शन कराते हुए सुलावें, जिससे उनके शरीर की पुष्टि और नेत्रोंकी ज्योति बढ़े [(सहस्रशृङ्गः) का अर्थ सूर्य भी है, अर्थात् सूर्य का प्रकाश आने से यह घर स्वास्थ्यकारक है। हम सब सोवें] ॥१॥ इस सूक्त के चार मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद म० ७। सू० ५५ के हैं, जिनका इन्द्र देवता है, इससे यहाँ भी सूक्त का इन्द्र ही देवता है। यह मन्त्र उक्त सूक्त का मन्त्र ७ है ॥
टिप्पणी
१−(सहस्रशृङ्गः) सहो बलम्-निघ० २।९। रो मत्वर्थे। सहस्रं बहुनाम-निघ० ३।१। शृणातेर्ह्रस्वश्च। उ० १।१२६। इति शॄ हिंसायाम्-गन्, स च कित्, नुडागमः। शृङ्गाणि ज्वलतोनामसु-निघ० १।१७। शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शम्नातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वा निरु० २।७। सहस्राणि बहूनि शृङ्गाणि तेजांसि नक्षत्राणि किरणा वा यस्य स बहुतेजाः। अंसख्यातनक्षत्रः। चन्द्रः। सूर्यः (वृषभः) ऋषिवृषिभ्यां कित् उ० ३।१२३। इति वृषु सेचने-अभच्। यद्वा, वृह वृद्धौ-अभच, हस्य षकारः। वृषभः प्रजां वर्षतीति वातिवृहति रेत इति वा तद् वृषकर्मा वर्षणाद् वृषभः-निरु० ९।२२। किरणद्वारा सुखस्य वर्षकः (यः) (समुद्रात्) अ० १।३।८। अन्तरिक्षात्-निघ० १।३। (उत्+आ+अचरत्) उदागात् (तेन) प्रसिद्धेन तादृशेन (सहस्येन) तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति सहस्-यत् सहसे बलाय हितेन चन्द्रेण (वयम्) (नि) नित्यम्। सर्वथा (जनान्। गृहस्थप्राणिनः (स्वापयामसि) स्वापयामः। निद्रापयामः ॥
विषय
सूर्यास्त के साथ सोने की तैयारी
पदार्थ
१. (सहस्त्रशंग:) हज़ारों रश्मियोंवाला (वृषभ:)-वृष्टिजल का वर्षक य:-जो सूर्य समुद्रात् उदयाचल के परिसरवर्ति [समीपस्थ] अन्तरिक्ष प्रदेश से (उदाचरत्) = उदित होता है, (तेन) = उस (सहस्येन) = शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले बल को प्राप्त कराने में उत्तम सूर्य के साथ (वयम्) = हम (जनान्) = लोगों को (निस्वापयामसि) = सुलाते हैं, अर्थात् सूर्यास्त होता है-सूर्य सोता-सा है और हम लोगों को भी सुला देता है। २. राजा राष्ट्र में ऐसा प्रयत्न करे कि प्रजा सूर्योदय के साथ जाग उठे और सूर्यास्त के साथ कार्य-विरत हो सोने की तैयारी करे। इस स्वाभाविक जीवन के परिणामस्वरूप लोग न केवल शरीर में अपितु मन में भी स्वस्थ बने रहेंगे।
भावार्थ
राजा राष्ट्र में ऐसी व्यवस्था करे कि सभी प्रजा सर्यास्त होने पर सोने की तैयारी करे। शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए यह आवश्यक है।
भाषार्थ
(सहस्रशृङ्गः) हजार रश्मियोंवाला, (वृषभः) वर्षा करनेवाला (यः) जो सूर्य (समुद्रात) समुद्र या अन्तरिक्ष से (उदाचरत्) उदित हुआ है, (तेन) उस (सहस्येन१) 'पौषमास-सम्वन्धी' सूर्य द्वारा (वयम्) हम (जनान्) गृहजनों को (नि) नितरां (आ स्वापयामसि) गृह में सर्वत्र सुला देते हैं।[सहस्येन=सहस्यमासोपलक्षितेन सूर्येण।]
टिप्पणी
[समुद्रात= जलीय समुद्र से। अर्थात् द्वीपस्थों को सूर्य समुद्र से उदित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। तथा "समुद्र अन्तरिक्षनाम" (निघं० १।३), भूमिवासियों को सूर्य अंतरिक्ष से उदित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है। सूर्य के अस्त हो जाने पर स्वापन का कथन हुआ है।] [१. सहस्यः= पौषमासः (उणा० ४।१९०; दयानन्द)। सहस्यमास अतिशीतमास होता है, अतः शीघ्रस्थापन हो जाता है। मन्त्र ४ में "रात्रीणामतिशर्वरे" द्वारा भी शयन सम्वन्धी रात्रिकालों का कथन हुआ है, अतः सूक्त में रात्रि-काल का ही वर्णन है।]
विषय
निद्रा विज्ञान।
भावार्थ
आत्मा और इन्द्रियों के परस्पर सम्बन्ध और सोने जागने के रहस्य को लौकिक दृष्टान्तों से स्पष्ट करते हैं। (यः) जो (सहस्र-शृङ्गः) सहस्त्रों, अनन्त किरणों वाला (वृषभः) जीवन शक्ति का या वर्षा का हेतु सूर्य (समुद्राद्) अन्तरिक्ष से या समुद्र तल से (उद्-आचरत्) ऊपर को उठता हुआ प्रतीत होता है वह उसी प्रकार पुनः समुद्र में ही अस्त होता प्रतीत होता है। (तेन) उस (सहस्येन) शक्तिमय पिण्ड के दृष्टान्त से हम भी (जनान्) मनुष्यों को (नि स्वापयामसि) ठीक उसी प्रकार से जागता ओर सोता पाते हैं। अर्थात् जिस प्रकार प्रति दिन प्रातः सूर्य उदित होता है सायंकाल अस्त होता है उसी प्रकार मनुष्य प्रातः उठते हैं रात्रि को सो जाते हैं और जिस प्रकार प्रातः सूर्य में से किरणें सर्वत्र फैलती प्रतीत होती हैं और सायं समय अस्त होते हुए सूर्य के बिम्ब में ही सब किरणें लीन हो जाती हैं उसी प्रकार आत्मा में से ये इन्द्रियां प्रादुर्भूत होतीं हैं और सोते समय पुनः उसमें ही लीन हो जाती और सो जाती हैं। इसका स्पष्टीकरण देखो छान्दोग्य और प्रश्न उपनिपदों में ‘प्राण-प्रकरण’।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। स्वपनः ऋषभो वा देवता। १, ३-६ अनुष्टुभः। २ भुरिक्। ७ पुरुस्ताज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Sleep
Meaning
The sun or the moon of a thousand rays of warmth of light and soothing peace rises from the depth of space and retires into silence. With the power and patience of that degree of the Vrshabha herb of thousandfold efficacy which grows on cloudy mountains and relieves people from deep agitation, we help people go to deep sleep and undisturbed rest.
Subject
Bull-Vrsabhah - Dream-Slumber
Translation
The thousand-horned bull (the sun with a thousand rays) that rises out of the ocean, with him, the conqueror of adversaries, we hereby make people sleep.(Cf. Rg. VII.5.7)
Translation
The Sun which has thousand rays rises up in the sky and by that strength operating day and night we make the people rest Bad sleep.
Translation
The sun with its thousand rays rises from the ocean like atmosphere. At the time of the setting of that powerful sun, we lull the folk to rest and sleep.
Footnote
In place of sun the word वृषम may mean moon as well, on whose rising men go to bed.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(सहस्रशृङ्गः) सहो बलम्-निघ० २।९। रो मत्वर्थे। सहस्रं बहुनाम-निघ० ३।१। शृणातेर्ह्रस्वश्च। उ० १।१२६। इति शॄ हिंसायाम्-गन्, स च कित्, नुडागमः। शृङ्गाणि ज्वलतोनामसु-निघ० १।१७। शृङ्गं श्रयतेर्वा शृणातेर्वा शम्नातेर्वा शरणायोद्गतमिति वा शिरसो निर्गतमिति वा निरु० २।७। सहस्राणि बहूनि शृङ्गाणि तेजांसि नक्षत्राणि किरणा वा यस्य स बहुतेजाः। अंसख्यातनक्षत्रः। चन्द्रः। सूर्यः (वृषभः) ऋषिवृषिभ्यां कित् उ० ३।१२३। इति वृषु सेचने-अभच्। यद्वा, वृह वृद्धौ-अभच, हस्य षकारः। वृषभः प्रजां वर्षतीति वातिवृहति रेत इति वा तद् वृषकर्मा वर्षणाद् वृषभः-निरु० ९।२२। किरणद्वारा सुखस्य वर्षकः (यः) (समुद्रात्) अ० १।३।८। अन्तरिक्षात्-निघ० १।३। (उत्+आ+अचरत्) उदागात् (तेन) प्रसिद्धेन तादृशेन (सहस्येन) तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति सहस्-यत् सहसे बलाय हितेन चन्द्रेण (वयम्) (नि) नित्यम्। सर्वथा (जनान्। गृहस्थप्राणिनः (स्वापयामसि) स्वापयामः। निद्रापयामः ॥
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