अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः, ब्राह्मणः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषघ्न सूक्त
6
ब्रा॑ह्म॒णो ज॑ज्ञे प्रथ॒मो दश॑शीर्षो॒ दशा॑स्यः। स सोमं॑ प्रथ॒मः प॑पौ॒ स च॑कारार॒सं वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठब्रा॒ह्म॒ण: । ज॒ज्ञे॒ । प्र॒थ॒म: । दश॑ऽशीर्ष: । दश॑ऽआस्य: । स: । सोम॑म् । प्र॒थ॒म: । प॒पौ॒ । स: । च॒का॒र॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणो जज्ञे प्रथमो दशशीर्षो दशास्यः। स सोमं प्रथमः पपौ स चकारारसं विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठब्राह्मण: । जज्ञे । प्रथम: । दशऽशीर्ष: । दशऽआस्य: । स: । सोमम् । प्रथम: । पपौ । स: । चकार । अरसम् । विषम् ॥६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विष दूर करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(प्रथमः) सब वर्णों में प्रधान, (दशशीर्षः) दस प्रकार के [१-दान, २-शील, ३-क्षमा, ४-वीर्य, ५-ध्यान, ६-बुद्धि, ७-सेना, ८-उपाय, ९-गुप्त दूत, और १०-ज्ञान] बलों में शिर रखनेवाला, और (दशास्यः) दस दिशाओं में मुख के समान पोषण शक्तिवाला वा दस दिशाओं में स्थितिवाला (ब्राह्मणः) ब्राह्मण अर्थात् वेदवेत्ता पुरुष (जज्ञे) उत्पन्न हुआ। (सः प्रथमः) उस प्रधान पुरुष ने (सोमम्) सोम नाम ओषधि का रस (पपौ) पिया, और (सः) उसने (विषम्) विष को (अरसम्) निर्गुण कर दिया ॥१॥
भावार्थ
जैसे वेदवेत्ता सद्वैद्यों ने पूर्ण विद्या प्राप्त करके सब दिशाओं में खोजकर संसार के उपकार के लिये सोम रस को पाया और आरोग्यनाशक और शरीरविकारक विष को हटाया है, हम लोग इसी प्रकार सोमलता आदि औषधों की प्राप्ति और परीक्षा करके संसार का कष्ट मिटाकर सबको सुख पहुँचावें और ब्राह्मण अर्थात् वेदवेत्ता होकर अगुआ बनें ॥१॥ सोम का विशेष वर्णन ऋग्वेद मण्डल ९, और सामवेद उत्तरार्चिक प्रपाठक १ आदि में है, यहाँ दो मन्त्र लिखते हैं। स्वादि॑ष्ठया॒ मदि॑ष्ठया पव॑स्व सोम॒ धार॑या। इन्द्रा॑य॒ पात॑वे सु॒तः ॥१॥ र॒क्षो॒हा वि॒श्वचर्षणिर॒भि योनि॒मयो॑हतम्। द्रुणा॑ स॒धस्थ॒मास॑दत् ॥२॥ ऋग्वेद ९।१।१, २॥यजु० २६।२५, २६॥ साम उत्तरा० प्र० १ अ० १ त्रिक १५ ॥ (सोम) हे सोम रस (स्वादिष्ठया) बड़ी स्वादिष्ठ और (मदिष्ठया) अति आनन्दकारक (धारया) धारा से (इन्द्राय) बड़े प्रतापी इन्द्र, पुरुष के लिये (पातवे) पीने को (सुतः) छनकर (पवस्व) शुद्ध हो ॥१॥ (रक्षोहा) रोगादि दुष्ट राक्षसों के नाश करनेवाले, (विश्वचर्षणिः) सब मनुष्यों के हितकारक उस [सोम] ने (अपोहतम्) सुवर्ण से बने हुए (सधस्थम्) एक साथ ठहरने योग्य (योनिम्) स्थान (द्रुणा=द्रोणे) द्रोण कलश में (अभि) व्याप-कर (आ असदत्) पाया है ॥२॥ सोम का वृत्तान्त सुश्रुतचरक आदि वैद्यक ग्रन्थों में सविस्तार है, वहाँ देख लेवें ॥
टिप्पणी
१−(ब्राह्मणः) तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इति ब्रह्मन्-अण्। ब्राह्मोऽजातौ। पा० ६।४।१७१। इति न टिलोपः। वेदपाठी। वेदवेत्ता पुरुषः (जज्ञे) जनी-लिट्। प्रादुर्बभूव (प्रथमः) सर्ववर्णेषु प्रधानः। अग्रिमः (दशशीर्षः) श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। उ० ४।१९४। श्रिञ् सेवायाम्-असुन्, शिरादेशः। शिरःशब्दस्य शीर्षं वा। उत्तमाङ्गं शिरः शीर्षं मूर्धा ना-मस्तकोऽस्त्रियाम्, इत्यमरः, १६।९५। दानशीलक्षमावीर्य्यध्यानप्रज्ञा बलानि च। उपायः प्रणिधिर्ज्ञानं दश बुद्धबलानि च। इति शब्दकल्पद्रुमवचनाद् दशसु बलेषु शीर्षं शिरोबलं यस्य स तथाभूतः पुरुषः (दशास्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति असु क्षेपणे-ण्यत्। अस्यतेऽन्नमस्मिन्निति आस्यं मुखम्। यद्वा। आस उपवेशने-ण्यत्, टाप् आस्या स्थितिः, आसनम्। दशसु दिक्षु आस्यं मुखवत् पोषणं यस्य। यद्वा। दशसु दिक्षु आस्या स्थितिर्यस्य स तथाभूतः (सः) ब्राह्मणः (सोमम्) अ० १।६।२। सोमलतारसम्। ओषधिः सोमः सुनोतेर्यदेनमभिषुण्वन्ति। बहुलमस्य नैघण्टुकं वृत्तमाश्चर्य्यमिव प्राधान्येन तस्य पावमानीषु-निरु० ११।२। (प्रथमः) प्रधानः। (पपौ) पीतवान् (चकार) कृतवान् (अरसम्) रसरहितं निर्वीर्यम् (विषम्) विष विप्रयोगे, यद्वा, विष्लृ व्याप्तौ-क। विषमित्युदकनाम विष्णातेर्विपूर्वस्य स्नातेः शुद्ध्यर्थस्य विपूर्वस्य वा सचतेः निरु० २२।२६। आरोग्यस्य शरीरस्य वानशिकं द्रव्यम् ॥
विषय
'दशशीर्ष, दशास्यं ब्राह्मण
पदार्थ
१. (ब्राह्मण:) = वेदज्ञान प्राप्त करनेवाला (प्रथमः जज्ञे) = [प्रथ विस्तारे] शक्तियों का विस्तार करनेवाला होता है। (दशशीर्ष:) = धर्म के दसों लक्षणों [धृति-क्षमा-दम-अस्तेय-शौच-इन्द्रियनिग्रह धी-विद्या-सत्य-अक्रोध] के दृष्टिकोण से यह शिखर पर होता है-यही इसके दस शिर होते है। यह (दशास्यः) = दस मुखोवाला-दसों इन्द्रियों से ज्ञान व शक्ति का भोजन करनेवाला होता है। २. (स:) = वह (प्रथमः) = प्रथम स्थान में स्थित [विस्तृत उन्नत शक्तियोंवाला] ब्राह्मण सोम (पपौ) = सोम का पान करता है-वीर्यशक्ति का अपने अन्दर रक्षण करता है और परिणामत: (सः) = वह (विषम्) = विष को (अरसं चकार) = प्रभावशून्य कर देता है-विष को यह निर्वीर्य कर देता है। इसपर विष का प्रभाव नहीं होता। सोमरक्षण से जहाँ शरीर पर विषों का प्रभाव नहीं होता, वहाँ 'ब्राह्मण, दशशीर्ष व दशास्य' बनने से लोगों की विषभरी बातों का इसके मन पर कुप्रभाव नहीं पड़ता।
भावार्थ
हम ज्ञानप्रधान जीवनवाले बनकर लोगों के विषभरे शब्दों से मानस-सन्तुलन को न खोनेवाले बनें। शरीर में सोम का रक्षण करते हुए शरीर में विष का प्रभाव न होने दें।
भाषार्थ
(दशशीर्षः) दस सिरोंवाला, और (दशास्यः) दस मुखोंवाला (प्रथमः) प्रख्यात (ब्राह्मणः) वेदज्ञ (जज्ञे) पैदा हुआ। (स: प्रथमः) उस प्रख्यात ने (सोमम् पपौ) सोमरस पिया, (सः) उसने (विषम्) विष को (अरसम्) रस-रहित अर्थात् नीरस (चकार) कर दिया।१
टिप्पणी
[प्रतीत होता है कि सोमौषध के पान द्वारा विष का विषपन दूर हो जाता है। ब्राह्मण=ब्रह्म है वेद, उसका ज्ञाता। दशशीर्ष:= चार वेद और चार वेदों में वर्णित ६ प्रकार के विज्ञान, ये दस शिरोभूत विज्ञान हैं। इनमें से प्रत्येक के प्रवचन के लिए दस आस्य अर्थात् मुख कहे हैं। ६ प्रकार के विज्ञान हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघण्टु-निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। ये ६ विज्ञान अर्वाक्-काल में उत्पन्न साहित्य नहीं, अपितु वेदों में ही वर्णित ६ विज्ञान हैं। शिक्षा है उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, एकश्रुति और प्रचय तथा प्लुत आदि का विज्ञान। कल्प है, यथा-"तोता कल्पेषु संमिता" (अथर्व० २०।१२८।६-११ तथा समग्र सूक्त १२८)। कल्प द्विविध हैं, गृह्य तथा श्रौत। गृह्यकल्प में विवाह आदि संस्कार तथा अन्य गृह्य कर्त्तव्य कथित होते हैं, जोकि वेदों के ही अंगभूत हैं। श्री कल्प में याज्ञिक कर्म कथित होते हैं, जिनकी व्याख्या विशेषरूप में ब्राह्मण-ग्रन्थों में हुई है। वेदों में भी यत्र-तत्र इनका कथन हुआ है। व्याकरण है शब्दों का व्युत्पत्तिमूलक व्याख्यान। निघण्टु और निरुक्त का विषय एक ही है। निघण्टु है व्याख्येय और निरुक्त है उसकी व्याख्या। निघण्टु के सम्बन्ध में कहा है कि "निगमा इमे भवन्ति", अर्थात् ये हैं केवल "वैदिक पद" इनका संग्रह है 'समाम्नाय', अर्थात् निघण्टु ग्रन्थ। यथा "वारिदं वारयातै" (अथर्व० ४।७।१) में 'वा: है निघण्टुपद, और "वारयातै" है उसका निर्वचन अर्थात् निरुक्ति, नैरुक्त। "वाः" की निरुक्ति है, "वारयातै', निवारण करना। तथा " अवीवरत वो हि कम्। इन्द्रो वः शक्तिभिर्देवीस्तस्माद् वार्न्नाम वो हितम्" (अथर्व० ३।१३।३) में 'वा' पद है निघण्टु और 'अवीवरत' है निर्वचन अर्थात् निरुक्ति, निरुक्त। इस स्थल में 'वा:' का अर्थ है आप: अर्थात् जल, और 'अवीवरत' है वरणार्थक, स्वीकरणार्थक। 'छन्दः' यथा "सप्त छन्दांसि चतुरुत्तराण्यन्यो अन्यस्मिन्नध्यार्पितानि" (अथर्व० ८।९।१८), अर्थात् छन्द हैं सात, चार-चार अक्षरों की वृद्धिवाले, और एक-दूसरे में समाश्रित। ज्योतिष= यथा २८ नक्षत्र, आदि (देखें अथर्व० का० १९।७-२४ सूक्त), अथर्ववेद में अन्यत्र स्थलों में भी ज्योतिष का वर्णन है।] [१. अथवा, दशशीर्ष= ऋग्वेद के १० मण्डलों का ज्ञाता है दशशीर्षः, प्रत्येक मण्डल का ज्ञान सम्बन्धी एक-एक सिर। दशास्यः= प्रत्येक ज्ञान के प्रवचन के लिए १० आस्य अर्थात् १० मुख। यह है ब्राह्मण अर्थात् बृहद्-ऋग्वेद का ज्ञाता। इसने प्रथम सोमपान किया, अर्थात् सर्वप्रेरक, सर्वोत्पादक तथा सर्वेश्वर्य सम्पन्न ब्राह्म रस का प्रथम पान किया। यथा "यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति" (ऋ० १।१६४।३९)। सोमपान के कारण उसने सांसारिक विषयविष को अरस कर दिया, नीरस कर दिया, सांसारिक जीवनोपायभूत अन्नादि का तथा गृहस्थ सम्बन्धी भोग का भोग करते हुए भी इसके विलेपन से वह बचा रहा। इसका भोग त्याग तथा निरीहपन से उसने किया।]
विषय
विष चिकित्सा।
भावार्थ
विषचिकित्सा का उपदेश करते हैं। (ब्राह्मणः) ‘ब्राह्मण’ नामक ओषधि (प्रथमः) सब ओषधियों में सब से श्रेष्ठ (जज्ञे) प्रकट हुआ जो (दश-शीर्षः) दश प्रकार के रोगों का नाशक, (दशआस्यः) दश अंगों की पीड़ा को बाहर फेंक देने वाला है, क्योंकि (सः) वह (प्रथमः) सब से श्रेष्ठ होने के कारण (सोमं) सोम रस, अमृत की रक्षा करता है (समः) वह (विषं) विष को भी (अरसं) अरस, वीर्यरहित (चकार) कर देता है। ब्राह्मण कन्द ‘गृष्टि’ नामक ओषधि है जिसका गुण ‘विषपित्त- कफापहा’ लिखा है। इसके ही विश्वक्सेना, वाराही, कौमारी, ब्रह्मपत्री, त्रिनेत्रा, अमृत आदि नाम हैं। इसके गुण हैं- वाराही तिक्तकटुका विषपित्तकफापहा। कुष्ठमेहकृमिहरा वृष्या बल्या रसायनी॥ राजनिघण्टु । इसके अतिरिक्त सोम नाम से कही जाने वाली सोमवल्ली, वाकुची, ब्राह्मी, गुडूची, रीठाकरन्ज, सौम्या, शठी, भार्गी आदि ओषधियां भी नाना प्रकार के विषनाशक हैं जिनमें रीठाकरन्ज और वाकुची विशेष रूप से त्वग्दोष, विष, कण्डू और खर्जू का नाशक हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। १-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Antidote to Poison
Meaning
The one first and foremost among anti-poison herbs is known as Brahmana (also known as Grshti) which is ten times more effective and ten times more preventive than others against poison. It absorbs the soma energy of living vitality from earth and renders the poison ineffective throwing it out of ten parts of the body.
Subject
Brahmana
Translation
The intellectual, the first and foremost, with ten heads and ten mouths, comes into being was born. He is the first to drink of the devotional bliss. He makes the poison ineffective.
Translation
[N.B. In this hymn we find the description of Brahmana Kand a herbaceous plant also named as Grishtih which removes the poisonous effect.] Brahmanah, the herbaceous Brahman root which is ten-time effective and ten-time prophylactic is manifest as first rank medicine which first preserves the nectar of life and makes the poison ineffectual.
Translation
The ten-headed and ten-faced Brahman was first brought to life. First drinker of the Soma, he made poison ineffectual.
Footnote
Ten-headed: endowed with ten qualities (1) Charity, (2) Character, (3) Forgiveness, (4) Heroism, (5) Contemplation, (6) Intellect, (7) Army, (8) Expediency, (9) Secret Messengers, (10) Knowledge. Ten-faced: possessing settled rule in ten directions. Just as a skilled physician removes the ill effect of the poison, so should we by the use of soma alleviate the sufferings of human beings.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(ब्राह्मणः) तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इति ब्रह्मन्-अण्। ब्राह्मोऽजातौ। पा० ६।४।१७१। इति न टिलोपः। वेदपाठी। वेदवेत्ता पुरुषः (जज्ञे) जनी-लिट्। प्रादुर्बभूव (प्रथमः) सर्ववर्णेषु प्रधानः। अग्रिमः (दशशीर्षः) श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। उ० ४।१९४। श्रिञ् सेवायाम्-असुन्, शिरादेशः। शिरःशब्दस्य शीर्षं वा। उत्तमाङ्गं शिरः शीर्षं मूर्धा ना-मस्तकोऽस्त्रियाम्, इत्यमरः, १६।९५। दानशीलक्षमावीर्य्यध्यानप्रज्ञा बलानि च। उपायः प्रणिधिर्ज्ञानं दश बुद्धबलानि च। इति शब्दकल्पद्रुमवचनाद् दशसु बलेषु शीर्षं शिरोबलं यस्य स तथाभूतः पुरुषः (दशास्यः) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। इति असु क्षेपणे-ण्यत्। अस्यतेऽन्नमस्मिन्निति आस्यं मुखम्। यद्वा। आस उपवेशने-ण्यत्, टाप् आस्या स्थितिः, आसनम्। दशसु दिक्षु आस्यं मुखवत् पोषणं यस्य। यद्वा। दशसु दिक्षु आस्या स्थितिर्यस्य स तथाभूतः (सः) ब्राह्मणः (सोमम्) अ० १।६।२। सोमलतारसम्। ओषधिः सोमः सुनोतेर्यदेनमभिषुण्वन्ति। बहुलमस्य नैघण्टुकं वृत्तमाश्चर्य्यमिव प्राधान्येन तस्य पावमानीषु-निरु० ११।२। (प्रथमः) प्रधानः। (पपौ) पीतवान् (चकार) कृतवान् (अरसम्) रसरहितं निर्वीर्यम् (विषम्) विष विप्रयोगे, यद्वा, विष्लृ व्याप्तौ-क। विषमित्युदकनाम विष्णातेर्विपूर्वस्य स्नातेः शुद्ध्यर्थस्य विपूर्वस्य वा सचतेः निरु० २२।२६। आरोग्यस्य शरीरस्य वानशिकं द्रव्यम् ॥
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