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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - पराबृहती त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमृता सूक्त
    2

    ऋध॑ङ्मन्त्रो॒ योनिं॒ य आ॑ब॒भूव॒मृता॑सु॒र्वर्ध॑मानः सु॒जन्मा॑। अद॑ब्धासु॒र्भ्राज॑मा॒नोऽहे॑व त्रि॒तो ध॒र्ता दा॑धार॒ त्रीणि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋध॑क्ऽमन्त्र: । योनि॑म् । य: । आ॒ऽब॒भूव॑ । अ॒मृत॑ऽअसु: । वर्ध॑मान: । सु॒ऽजन्मा॑ । अद॑ब्धऽअसु: । भ्राज॑मान:।अहा॑ऽइव । त्रि॒त: । ध॒र्ता । दा॒धा॒र॒ । त्रीणि॑ ॥१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋधङ्मन्त्रो योनिं य आबभूवमृतासुर्वर्धमानः सुजन्मा। अदब्धासुर्भ्राजमानोऽहेव त्रितो धर्ता दाधार त्रीणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋधक्ऽमन्त्र: । योनिम् । य: । आऽबभूव । अमृतऽअसु: । वर्धमान: । सुऽजन्मा । अदब्धऽअसु: । भ्राजमान:।अहाऽइव । त्रित: । धर्ता । दाधार । त्रीणि ॥१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (ऋधङ्मन्त्रः) सत्य मन्त्र वा मननवाला, (अमृतासुः) अमर प्राणवाला, (वर्धमानः) बढ़ता हुआ, (सुजन्मा) अद्भुत जन्मवाला (योनिम्) प्रत्येक घर वा कारण में (आबभूव) व्यापक हुआ है। उस (अदब्धासुः) अचूक बुद्धिवाले, (अहा इव=अहानि इव) दिनों के समान (भ्राजमानः) प्रकाशमान, (धर्ता) सब के धारण करनेवाले, (त्रितः) पालन करनेवाले वा सब से बड़े वा तीनों कालों वा लोकों में फैले हुये त्रित परमात्मा ने (त्रीणि) तीनों [धामों, अर्थात् स्थान, नाम और जन्म वा जाति] को (दाधार) धारण किया था ॥१॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य परमात्मा की अनन्त शक्तियों का विचार करके अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥१॥ इस काण्ड पर सायणभाष्य नहीं है ॥

    टिप्पणी

    १−ऋधङ्मन्त्रः) प्रथेः कित्सम्प्रसारणं च। उ० १।१३७। ईति ऋधु वृद्धौ−अजि। ऋधक् इत्यव्ययं सत्यार्थे। सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति मन ज्ञाने−ष्ट्रन्। मन्त्रा मननाद्−निरु० ७।१२। ऋध्नुवन् वर्धमानः सत्यो वा मन्त्रो मननं यस्य सः (योनिम्) अ० १।११।३। गृहम्−निघ० ३।४। कारणम् (यः) त्रितः (आ बभूव) भू सत्तायां प्राप्तौ च लिट्। सम्यक् प्राप्तवान् (अमृतासुः) शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति असु क्षेपणे−उ। असुः प्रज्ञानाम−निघ० ३।९। असुरिति प्राणनामास्तः शरीरे भवति−निरु० ३।९। अनष्टबुद्धिः। अनश्वरप्राणः (वर्धमानः) वृद्धिशीलः (सुजन्मा) अद्भुतोत्पत्तिः (अदब्धासुः) दम्भु दम्भे−क्त। अहिंसित−बुद्धिः (भ्राजमानः) दीप्यमानः (अहा इव) अहानि यथा (त्रितः) पिशेः किच्च। उ० ३।९५। इति त्रैङ् पालने यद्वा तॄ प्लवनतरणयोः, इतन् यद्वा। त्रि+तनु विस्तारे−ड। त्रितस्तीर्णतमो मेधया बभूव−निरु० ४।६। त्रितस्त्रिस्थान इन्द्रः−निरु० ९।२५। त्राता पालयिता। तीर्णो विस्तीर्णः। त्रिषु कालेषु लोकेषु वा विस्तीर्णः (धर्ता) धारयिता (दाधार) धृतवान् (त्रीणि) त्रिसंख्याकानि धामानि। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरु० ९।२८ ॥

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    विषय

    ऋधमन्त्र:, भ्राजमान:

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (ऋङ्मन्त्रो:) = प्रवृद्ध ज्ञानवाले-सर्वज्ञ हैं, (योनिम्) = संसार के मूलकारण प्रकृति को यः आबभूव-जिसने व्यास किया हुआ है, अमृतासु:-ये प्रभु अमर प्राणोंवाले व वर्धमानः सदा से बढ़े हुए हैं, सुजन्मा-ये प्रभु उत्तम शक्तियों के विकासवाले हैं-प्रभु अपने उपासकों को शक्तियों के विकासवाला बनाते हैं। २. अदब्धासुः-अहिंसित प्राणवाले [नि०३.९] ये प्रभु अहा इव भाजमान:-दिनों को प्रकट करनेवाले सूर्य के समान देदीप्यमान हैं। ये त्रितः [तीर्णतमो मेधया बभूव-निरु०९.६, त्रित: त्रिस्थान इन्द्रः, नि०८.२५] निरतिशय बुद्धिवाले व तीनों लोकों में व्यास प्रभु धर्ता-धारण करनेवाले हैं और त्रीणि दाधार-तीनों लोकों का धारण कर रहे हैं।

    भावार्थ

    प्रवृद्ध ज्ञानवाले प्रभु का उपासन करता हुआ उपासक भी प्रभु की भौति ज्ञान, प्राणशक्ति ब अन्य शक्तियों के विकासवाला बनने का यत्न करता है। यह 'शरीर, मन व बुद्धि' इन तीनों का धारण करनेवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (ऋधङ्मन्त्रः१) वृद्धिकारक वेदमन्त्रोंवाला, (योनिम्) प्रकृतिरूपी योनि में (आबभूव) प्रकट हुआ (अमृतासुः) अमृत प्राणवायुवाला, (वर्धमानः) अभ्यास द्वारा हृदय में बढ़ते प्रकाशवाला, (सुजन्मा) और हृदय में उत्तमरूप से प्रादुर्भूत होता है । ( अदब्धासुः) वह अहिंसित अर्थात् अमर प्रज्ञावाला है, (अहा=अहानि, इव) दिनों के सदृश (भ्राजमानः) प्रदीप्त है, (त्रितः) तीन स्थानों, पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्युलोक में व्याप्त है, (धर्ता) सबका धारणकर्ता है, (त्रीणि) तीन लोकों को ( दाधार ) उसने धारण किया हुआ है।

    टिप्पणी

    [असुः=प्राण (निरुक्त ३।२।८)। प्रज्ञा (निघं० ३।९)। त्रित:= त्रि+तनु (विस्तारे, तनादिः)+ ड: (औणादिकः), टिलोपः।] [१. ऋधङ् मन्त्रः=ऋधक् = ऋधु वृद्धौ (स्वादिः)। ऋधक् वृद्धिकरो मन्त्रो यस्य स:।]

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    विषय

    जगत् स्रष्टा का वर्णन।

    भावार्थ

    जीवात्मा के दृष्टान्त से परमात्मा से विराट् सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। जिस प्रकार (ऋधङ्-मन्त्रः) मनन शक्ति से पृथक्, विवेक ज्ञान से रहित (सुजन्मा) तथा उत्तम जन्म धारण करने वाला (अमृतासुः) और अमृत = मधुमय एवं अमर प्राणों को धारण करने वाला, (यः) जो जीवात्मा (योनिम्) मनुष्य आदि योनियों को (आ बभूव) प्राप्त करता है और वह (अदब्धासुः) अपने प्राणों की रक्षा करता हुआ (अहा इव) मानों दिनों दिन बढ़ता हुआ और (भ्राजमानः) बराबर तेज से युक्त होकर (त्रितः) मन, वाक्, काय तीनों पर वशी होकर इन तीनों को (दाधार) धारण करता हैं उसी प्रकार (त्रितः) तीनों लोकों में व्यापक परमेश्वर (ऋधङ्-मन्त्रः) जो कि वेदमय बृहत् सत्यज्ञान से युक्त है (अमृतासुः) तथा अमृतमय, जीवनरूप या अमृत का देने वाला है (सुजन्मा) वह शुभ जन्म ग्रहण करने वाले जीवात्मा के समान इस विराट् सृष्टि रूप से प्रकट होने वाला है (वर्धमानः) और अपनी महिमा से महान् है (यः) जो कि (योनिम् आबभूब) प्रकृति में अपनी शक्ति का आधान करता है वह (अदब्धासुः) अपनी शक्ति का नाश न होने देकर (भ्राजमानः) निरन्तर प्रकाशमान रह कर (अहा इव) सूर्य के समान (धर्त्ता) विश्व का धारक (त्रीणि दाधार) तीनों लोकों को धारण करता है।

    टिप्पणी

    ‘ऋधग्’ इति पृथग्भावस्य प्रवचनं भवत्यथापि ऋध्नोत्यर्थे दृश्यते। निरु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहद्दिवा अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-४, ६, ८ त्रिष्टुभः। ५ पराबृहती त्रिष्टुप्। ७ विराट्। ९ त्र्यवसाना सप्तपदा अत्यष्टिः। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Vidya

    Meaning

    Brahma, Lord of infinite thought and mantric word of knowledge, who first manifests Prakrti as self- generative self-evolving power, one with immortal pranic energy pervasive in the expansive universe, holy spirit in every thing bom, redoubtable power, refulgent as the sun, ever existent in the three orders of time and space, mainstay of the universe and all forms of life, sustains the three worlds of heaven, earth and the middle regions.

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    Subject

    Varunah

    Translation

    He, who meditating on truth, enters the womb, full of undying life force, always growing, of noble birth, full of suppressible life force and shining like days, sustainer in three (Trita) ways sustains the three

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    Translation

    Bears species, span of life and fruition of enjoyment and sufferance this soul which is will be born, waking, immortally conscious, Which with special plans and purpose assumes body of various, species, which never becomes deprived of Intellect and shining like day which upholds the body and its limbo and which remains in three bodies—the gross body, austral body and causal body.

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    Translation

    Soul, the seeker after truth, deathless in spirit, progressing, well-born, assumes its birth. Equipped with the unyielding power of breath, shining like the day, it assumes its three stages, as their guardian and supporter.

    Footnote

    Sayana has not translated the fifth kanda. It looks rather queer. Pt. Raja Ram considers the hymn to be highly complex and difficult to understand. The three stages of are Jagrita, Swapan, and Sushupti. Trita means guardian, protector, Griffith considers Trita to be a mysterious ancient deity, frequently mentioned in the Rigveda, principally in connection with the Maruts, Vayu, and Indra. His home is in the remotest of heaven, and he is called Aptya, the Watery, that is, sprung from, or dwelling in, the sea of cloud, and vapor. This explanation is unacceptable, as there is no history in the Vedas.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−ऋधङ्मन्त्रः) प्रथेः कित्सम्प्रसारणं च। उ० १।१३७। ईति ऋधु वृद्धौ−अजि। ऋधक् इत्यव्ययं सत्यार्थे। सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति मन ज्ञाने−ष्ट्रन्। मन्त्रा मननाद्−निरु० ७।१२। ऋध्नुवन् वर्धमानः सत्यो वा मन्त्रो मननं यस्य सः (योनिम्) अ० १।११।३। गृहम्−निघ० ३।४। कारणम् (यः) त्रितः (आ बभूव) भू सत्तायां प्राप्तौ च लिट्। सम्यक् प्राप्तवान् (अमृतासुः) शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति असु क्षेपणे−उ। असुः प्रज्ञानाम−निघ० ३।९। असुरिति प्राणनामास्तः शरीरे भवति−निरु० ३।९। अनष्टबुद्धिः। अनश्वरप्राणः (वर्धमानः) वृद्धिशीलः (सुजन्मा) अद्भुतोत्पत्तिः (अदब्धासुः) दम्भु दम्भे−क्त। अहिंसित−बुद्धिः (भ्राजमानः) दीप्यमानः (अहा इव) अहानि यथा (त्रितः) पिशेः किच्च। उ० ३।९५। इति त्रैङ् पालने यद्वा तॄ प्लवनतरणयोः, इतन् यद्वा। त्रि+तनु विस्तारे−ड। त्रितस्तीर्णतमो मेधया बभूव−निरु० ४।६। त्रितस्त्रिस्थान इन्द्रः−निरु० ९।२५। त्राता पालयिता। तीर्णो विस्तीर्णः। त्रिषु कालेषु लोकेषु वा विस्तीर्णः (धर्ता) धारयिता (दाधार) धृतवान् (त्रीणि) त्रिसंख्याकानि धामानि। धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरु० ९।२८ ॥

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