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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शुक्रः देवता - ओषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
    1

    सु॑प॒र्णस्त्वान्व॑विन्दत्सूक॒रस्त्वा॑खनन्न॒सा। दिप्सौ॑षधे॒ त्वं दिप्स॑न्त॒मव॑ कृत्या॒कृतं॑ जहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽप॒र्ण: । त्वा॒ । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒त् । सू॒क॒र: । त्वा॒ । अ॒ख॒न॒त् । न॒सा । दिप्स॑ । ओ॒ष॒धे॒ । त्वम् । दिप्स॑न्तम् । अव॑ । कृ॒त्या॒ऽकृत॑म् । ज॒हि॒ ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णस्त्वान्वविन्दत्सूकरस्त्वाखनन्नसा। दिप्सौषधे त्वं दिप्सन्तमव कृत्याकृतं जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽपर्ण: । त्वा । अनु । अविन्दत् । सूकर: । त्वा । अखनत् । नसा । दिप्स । ओषधे । त्वम् । दिप्सन्तम् । अव । कृत्याऽकृतम् । जहि ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रु के विनाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुपर्णः) सुन्दर पक्षवाले वा शीघ्रगामी [गरुड़, गिद्ध आदि पक्षी के समान दूरदर्शी पुरुष] ने (त्वा) तुझ को, (अनु=अन्विष्य) ढूँढ़ कर (अविन्दत्) पाया है, (सूकरः) सूकर [सुअर पशु के समान तीव्र बुद्धि और बलवान् पुरुष] ने (त्वा) तुझको (नसा) नासिका से (अखनत्) खोदा है। (ओषधे) हे तापनाशक पुरुष (त्वम्) तू (दिप्सन्तम्) मारने की इच्छा करनेवाले को (दिप्स) मारना चाह, और (कृत्याकृतम्) हिंसाकारी पुरुष को (अव जहि) मार डाल ॥१॥

    भावार्थ

    गिद्ध मोर आदि पक्षी बड़े तीव्रदृष्टि होते हैं, और सूअर एक बलवान् तीव्रबुद्धि पशु अपनी नासिका से खाद्य तृण को भूमि से खोद कर खा जाता है। इसी प्रकार दूरदर्शी पुरुषार्थी बलवान् पुरुष अपने शत्रुओं को खोज कर नाश करता है ॥१॥

    टिप्पणी

    १−अस्य पूर्वार्धो व्याख्यातः−अ० २।२७।२। (सुपर्णः) सुपर्णाः सुपतना आदित्यरश्मयः−निरु० ३।१२। तथा ४।३। सुपतनः। शीघ्रगामी। गरुडः (त्वा) त्वाम् (अनु) अन्विष्य (अविन्दत्) अलभत (सूकरः) सु+कृ विक्षेपे वा कॄञ् विज्ञाने−अप्। वराहः। तद्वत्तीव्रबुद्धिर्बलवान् वा (त्वा) (अखनत्) विदारितवान् (नसा) नासिकया (दिप्स) अ० ४।३६।१। दम्भितुं हिंसितुमिच्छ (ओषधे) हे तापनाशक पुरुष (त्वम्) (दिप्सन्तम्) हिंसितुमिच्छन्तम् (अव) निश्चये। अनादरे (कृत्याकृतम्) अ० ४।१७।४। हिंसाकारिणम् (जहि) नाशय ॥

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    विषय

    बनस्पति

    पदार्थ

    १. हे (ओषधे) = शरीरस्थ दोष का दहन करनेवाली ओषधे! (सुपर्ण:) = गरुड़ (त्वा) = तुझे (अनु अविन्दत्) = खोजकर पानेवाला होता है। (सूकर:) = सूअर (त्वा) = तुझे (नसा अखनत्) = अपनी नासिका से खोदनेवाला होता है। २. हे (ओषधे) = ओषधे! (त्वम्) = तू (दिप्सन्तम्) = हमें नष्ट करने की इच्छावाले को (दिप्स) = नष्ट करनेवाली हो। (कृत्याकृतं अवजहि) = हमारा छेदन करनेवाली व्याधि को सुदूर विनष्ट कर।

    भावार्थ

    भूमि से खोदकर प्राप्त की जानेवाली यह ओषधि हमारे रोग का विनाश करती है। यह शक्तियों का छेदन करनेवाली व्याधि को दूर करती है।

     

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    भाषार्थ

    (सुपर्णः) उत्तम पंखोंवाले गरुड़ ने (त्वा) तुझे (अनु अविन्दत्) ढूंढ, (सुकरः) सुअर ने (नसा) थूथनी द्वारा ( त्वा) तुझे (अखनत्) खोव निकाला। (ओषधे) हे औषधि ! (त्वम् ) तू ( दिप्सन्तम् ) हमें नुकसान पहुंचाना चाहनेवाले को (दिप्स) नुकसान पहुंचाना चाह और (कृत्याकृतम्) हिंस्र-सेना संग्रह करनेवाले का (जाहि) हनन कर ।

    टिप्पणी

    [वैदिक युद्ध आत्मरक्षार्थ हैं, पर-विजयार्थ नहीं,— इसे "दिप्सन्तं दिप्स" द्वारा प्रकट किया है। कृत्या है हिंस्र-सेना न कि जादू-टोना। कृत्या =कृती छेदने (तुदादि., रुधादिः)। कृत्या को 'पृतना:' कहा है (मन्त्र ८), पृतना:=नाना सेनाएँ । मन्त्र में ओषधि का नाम नहीं दिया, केवल यह दर्शाया है कि ओषधि कहाँ और कैसे प्राप्त हो सकती है। गरुड़ और सूअर के व्यवहारों के जाननेवाले ओषधि के विज्ञ हो सकते हैं । ओषधि के उपचार द्वारा, सेनासंग्रह करनेवाले राजा का, हनन कहा है, ताकि उसके मर जाने पर सैन्ययुद्ध द्वारा सम्भाव्य जननाश तथा सम्पत्तिनाश न होने पाए।]

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    विषय

    दुष्टों के विनाश के उपाय।

    भावार्थ

    हिंसक षड्यन्त्रकारी दुष्टों के विनाश के लिये उपायों का प्रयोग दर्शाते हैं। हे ओषधे ! तापकारिन् ! (सु-पर्णः) गरुड़पक्षी (त्वा अनु अविन्दत्) तुझे प्राप्त करता है। और (सूकरः त्वा नसा अखनत्) सूकर तुझे अपनी नाक से खोदता है। अर्थात् वह उपाय जिससे बाज झपटता है या शूकर मूल से नाक के हुलारे से उखाड़ता है ये दोनों ही उपाय-रूप ओषधि = संतापकारक उपाय हैं जिनसे हे राजन् ! तू (दिप्सन्तं) पर जीव-हिंसक प्राणी का भी (दिप्स) विनाश कर और (कृत्या कृतं अव जहि) दूसरे पर हत्याकारी प्रयोग करने वाले का भी नाश कर। अथवा (सु-पर्णः) ज्ञानी भी तुझे प्राप्त करता है और सूकरः) सुकृत कर्मकर्ता भी तुझे अपनी कर्म शक्ति से उत्तेजित करता है। तू दुष्टों का विनाश कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। कृत्याप्रतिहरणं सूक्तम्। १, २, ४, ६, ७, ९ अनुष्टुभः। ३, ५, १२ भुरित्रः। ८ त्रिपदा विराट्। १० निचृद् बृहती। ११ त्रिपदा साम्नी त्रिष्टुप्। १३ स्वराट्। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Krtyapratiharanam

    Meaning

    This is a hymn of antidote to evil and deeds of violence. O Oshadhi, antidote to evil and violence, the man of eagle imagination envisioned you and the man of boarlike tenancity dug you out of oblivion. Destroy the evil deed, send back the evil to the evil doer.

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    Subject

    Vanaspatih

    Translation

    The eagle (suparna) has discovered you and the wild boar has dug you out with his snout. O herb, may you injure and may you kill the maker of fatal contrivances.

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    Translation

    The eagle finds out the medicinal plant and the boar digs out the medicinal pleat with his snout. Let this plant harm the disease of troubles and let it drive away the pain caused by an hone with artificial means.

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    Translation

    O medicine, a person far-sighted like an eagle has discovered thee, a quick-witted and strong person, has dug thee, like a boar with his snout! O King, the remover of calamity like medicine, harm thou, him who wants to harm us, and drive the violent away.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−अस्य पूर्वार्धो व्याख्यातः−अ० २।२७।२। (सुपर्णः) सुपर्णाः सुपतना आदित्यरश्मयः−निरु० ३।१२। तथा ४।३। सुपतनः। शीघ्रगामी। गरुडः (त्वा) त्वाम् (अनु) अन्विष्य (अविन्दत्) अलभत (सूकरः) सु+कृ विक्षेपे वा कॄञ् विज्ञाने−अप्। वराहः। तद्वत्तीव्रबुद्धिर्बलवान् वा (त्वा) (अखनत्) विदारितवान् (नसा) नासिकया (दिप्स) अ० ४।३६।१। दम्भितुं हिंसितुमिच्छ (ओषधे) हे तापनाशक पुरुष (त्वम्) (दिप्सन्तम्) हिंसितुमिच्छन्तम् (अव) निश्चये। अनादरे (कृत्याकृतम्) अ० ४।१७।४। हिंसाकारिणम् (जहि) नाशय ॥

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