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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - भुवनज्येष्ठ सूक्त
    1

    तदिदा॑स॒ भुव॑नेषु॒ ज्येष्ठं॒ यतो॑ य॒ज्ञ उ॒ग्रस्त्वे॒षनृ॑म्णः। स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो नि रि॑णाति॒ शत्रू॒ननु॒ यदे॑नं॒ मद॑न्ति॒ विश्व॒ ऊमाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । इत् । आ॒स॒ । भुव॑नेषु । ज्येष्ठ॑म् । यत॑: । ज॒ज्ञे । उ॒ग्र: । त्वे॒षऽनृ॑म्ण: । स॒द्य: । ज॒ज्ञा॒न: । नि । रि॒णा॒ति॒ । शत्रू॑न् । अनु॑ । यत् । ए॒न॒म् । मद॑न्ति । विश्वे॑ । ऊमा॑: ॥२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठं यतो यज्ञ उग्रस्त्वेषनृम्णः। सद्यो जज्ञानो नि रिणाति शत्रूननु यदेनं मदन्ति विश्व ऊमाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । इत् । आस । भुवनेषु । ज्येष्ठम् । यत: । जज्ञे । उग्र: । त्वेषऽनृम्ण: । सद्य: । जज्ञान: । नि । रिणाति । शत्रून् । अनु । यत् । एनम् । मदन्ति । विश्वे । ऊमा: ॥२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (तत्) विस्तीर्ण ब्रह्म (इत्) ही (भुवनेषु) लोकों के भीतर (ज्येष्ठम्) सब में उत्तम और सब में बड़ा (आस) प्रकाशमान हुआ (यतः) जिस ब्रह्म से (उग्रः) तेजस्वी (त्वेषनृम्णः) तेजोमय बल वा धनवाला पुरुष (जज्ञे) प्रकट हुआ। (सद्यः) शीघ्र (जज्ञानः) प्रकट होकर (शत्रून्) गिरानेवाले विघ्नों को (नि रिणाति) नाश कर देता है। (यत्) जिससे (एनम् अनु) इस [परमात्मा] के पीछे-पीछे (विश्वे) सब (ऊमाः) परस्पर रक्षक लोग (मदन्ति) हर्षित होते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    आदि कारण परमात्मा की उपासना से मनुष्य वीर होकर शत्रुओं को मारता है, जिसके कारण सब लोग प्रसन्न होते हैं। उस जगदीश्वर की उपासना सब लोग किया करें ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १० सू० १२०। वहाँ बृहद्दिव आथर्वण ऋषि हैं। यह मन्त्र कुछ भेद से यजु० में है−अ–० ३३ म० ८० ॥

    टिप्पणी

    १−(तत्) विस्तृतं ब्रह्म (इत्) एव (आस) अस गतिदीप्त्यादानेषु लिट्। दिदीपे (भुवनेषु) सत्सु लोकेषु (ज्येष्ठम्) प्रशस्ततमम्। वृद्धतमम् (यतः) यस्माद् ब्रह्मणः (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (उग्रः) प्रचण्डः। तेजस्वी (त्वेषनृम्णः) त्विष दीप्तौ−घञ्। नृम्णं बलनाम−निघ० २।९। धननाम−निघ० २।१०। नृम्णं बलं नॄन् नतम्−निरु० ११।९। नृनमनशब्दस्य वर्णलोपादौ नृम्णमिति रूपम्। त्वेषः कान्तिर्नृम्णं बलं धनं वा यस्य सः। तेजोबलः। तेजोधनः पुरुषः (सद्यः) शीघ्रम् (जज्ञानः) जनेर्लिटः कानच्। जातः सन् (नि) नितराम् (रिणाति) रि गतिरेषणयोः। हिनस्ति (शत्रून्) शातयितॄन्। विघ्नान् (अनु) अनुसृत्य। पश्चात् (यत्) यस्मात्कारणात् (एनम्) परमात्मानम् (मदन्ति) हृष्यन्ति (विश्वे) सर्वे (ऊमाः) अविसिविसिशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। इति अव रक्षणे−मन्। ज्वरत्वरस्रिव्यवि। पा० ६।४।२०। इति ऊठ्। रक्षादिकर्मकर्तारः पुरुषाः ॥

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    विषय

    उग्रः त्वेषनृम्नः

    पदार्थ

    १. (तत् इत्) = वे प्रभु ही (भुवनेषु) = सब लोक-लोकान्तरों व प्राणियों में (ज्येष्ठम्) = सबसे उत्तम (आस) = हैं, (यत:) = जिस ब्रह्म से (उन:) = तेजस्वी व (त्वेषनृम्ण:) = दीस बलवाला (जज्ञे) = प्रादुभूत होता है, प्रभु की उपासना से उपासक '(उग्र:) = तेजस्वी व (त्वेषनृम्ण)' होता है। उपासना से उपासक के हृदय में ज्ञानसूर्य का उदय होता है। यह ज्ञानसूर्य उसे 'उग्न व त्वेषनम्ण' बना देता है। २. (सद्य:) = शीघ्र ही (जात:) = प्रादुर्भूत हुआ-हुआ यह ज्ञानसूर्य (शत्रून् निरिणाति) = वासनारूप शत्रुओं को नष्ट कर देता है। यह समय वह होता है (यत्) = जबकि (विश्वे) = सब (ऊमा:) = शत्रुओं से अपना रक्षण करनेवाले तथा रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त लोग (एनम् अनुमदन्ति) = इस परमात्मा की उपासना के अनुपात में आनन्द का अनुभव करते हैं।

    भावार्थ

    ज्येष्ठ ब्रह्म की उपासना से उपासक के हृदय में ज्ञान का प्रकाश होकर सब वासना-अन्धकार का विलय हो जाता है। इस ज्ञानसूर्य के उदय होते ही सब शत्रु नष्ट हो जाते हैं और रक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त उपासक प्रभु की उपासना के अनुपात में आनन्दित होते हैं।

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    भाषार्थ

    (तद् इत् आस) वह ही ब्रह्म था (भुवनेषु ) सब भुवनों में (ज्येष्ठम् ) बड़ा, (यतः) जिससे (उग्र:) रश्मियों द्वारा उग्र, (त्वेषनृम्णः) दीप्तिधन वाला आदित्य (जज्ञे) पैदा हुआ। (जज्ञानः) पैदा हुआ आदित्य (सद्यः) तत्काल (शत्रून्) अन्धकार आदि शत्रुओं को (निरिणाति) नितरां नष्ट करता है, (यत्) जबकि (विश्वे ऊमा:) सब रक्षकगण (एनम् अनु) इस आदित्य की निरन्तर ( मदन्ति) स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    [नृम्णम् धननाम (निघं० २।१० ) । रिणाति=री रेषणे (क्र्यादिः), प्वादित्वात् ह्रस्वः (महीधर) । मदन्ति=मदि स्तुतौ (भ्वादिः)। ऊमाः= अवन्ति रक्षन्ति इति रक्षकाः, अवतेर्मन् प्रत्ययः। च्छ्वोः शूङ् ( अष्टा० ६।४।१९) इति 'ऊठ्' (महीधर)।]

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    विषय

    जगत् स्रष्टा का वर्णन।

    भावार्थ

    (तद् इत्) वह परमेश्वर ही (भुवनेषु) इन समस्त उत्पन्न लोकों में (ज्येष्ठम्) सब से महान् (आस) है (यतः) जिससे (उग्रः) तीव्र, बलवान्, (त्वेषनृम्णः) तेजो विभूति से युक्त यह सूर्य (जज्ञे) उत्पन्न हुआ हैं। और वह (सद्यः जज्ञानः) उदित होकर तत्काल ही (शत्रून्) अपने शत्रुरूप अन्धकारों को (नि रिणाति) विनाश करता है और (एनं) इसके आश्रय में ही (विश्वे ऊमाः) समस्त प्रजाएं (अनुमदन्ति) हर्षित होती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहद्दिव अथर्वा ऋषिः। वरुणो देवता। १-८ त्रिष्टुभः। ९ भुरिक् परातिजागता त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma, the Highest

    Meaning

    This Indra, Brahma, is the first and highest in the worlds of existence, of which is born the refulgent, blazing, potent sun, which, as it arises, destroys the enemies such as darkness and negativities which damage life, and by the existence and power of which all positive and protective powers and all people rejoice, celebrate life and exalt him.

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    Subject

    Varunah

    Translation

    That (Brahman) verily has been the best and eldest in all the worlds, where from the fiery and fierce (sun), rich in radiance, is first born. As soon as born, he overcomes the foes, he is the one in whom all creatures feel happy and delighted. (Also Rg. X.120.1)

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    Translation

    He alone in the world is the highest whence sprang up the mighty sun full of splendor. As soon as born the sun overcomes the darkness and the diseases of germs and hence all the subjects of the world obtain pleasure and prosperity from it.

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    Translation

    In all the worlds God was the Best and Highest, whence sprung the mighty, brilliant Sun. As soon as born he overcomes his foemen, and all people rejoice, who depend upon him.

    Footnote

    Foemen: The shadows of darkness. See Rig, 10-120 and Yajur, 33-80.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(तत्) विस्तृतं ब्रह्म (इत्) एव (आस) अस गतिदीप्त्यादानेषु लिट्। दिदीपे (भुवनेषु) सत्सु लोकेषु (ज्येष्ठम्) प्रशस्ततमम्। वृद्धतमम् (यतः) यस्माद् ब्रह्मणः (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (उग्रः) प्रचण्डः। तेजस्वी (त्वेषनृम्णः) त्विष दीप्तौ−घञ्। नृम्णं बलनाम−निघ० २।९। धननाम−निघ० २।१०। नृम्णं बलं नॄन् नतम्−निरु० ११।९। नृनमनशब्दस्य वर्णलोपादौ नृम्णमिति रूपम्। त्वेषः कान्तिर्नृम्णं बलं धनं वा यस्य सः। तेजोबलः। तेजोधनः पुरुषः (सद्यः) शीघ्रम् (जज्ञानः) जनेर्लिटः कानच्। जातः सन् (नि) नितराम् (रिणाति) रि गतिरेषणयोः। हिनस्ति (शत्रून्) शातयितॄन्। विघ्नान् (अनु) अनुसृत्य। पश्चात् (यत्) यस्मात्कारणात् (एनम्) परमात्मानम् (मदन्ति) हृष्यन्ति (विश्वे) सर्वे (ऊमाः) अविसिविसिशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। इति अव रक्षणे−मन्। ज्वरत्वरस्रिव्यवि। पा० ६।४।२०। इति ऊठ्। रक्षादिकर्मकर्तारः पुरुषाः ॥

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