अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
स॑वि॒ता प्र॑स॒वाना॒मधि॑पतिः॒ स मा॑वतु। अ॒स्मिन्ब्रह्म॑ण्य॒स्मिन्कर्म॑ण्य॒स्यां पु॑रो॒धाया॑म॒स्यां प्र॑ति॒ष्ठाया॑म॒स्यां। चित्त्या॑म॒स्यामाकू॑त्याम॒स्यामा॒शिष्य॒स्यां दे॒वहू॑त्यां॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒वि॒ता । प्र॒ऽस॒वाना॑म् । अधि॑ऽपति: । स:। मा॒ । अ॒व॒तु॒ । अ॒स्मिन् । ब्रह्म॑णि । अ॒स्मिन् । कर्म॑णि । अ॒स्याम् । पु॒र॒:ऽधाया॑म् । अ॒स्याम् । प्र॒ति॒ऽस्थाया॑म् । अ॒स्याम् । चित्त्या॑म् । अ॒स्याम् । आऽकू॑त्याम् । अ॒स्याम् । आ॒ऽशिषि॑ । अ॒स्याम् । दे॒वऽहू॑त्याम् । स्वाहा॑ ॥२४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सविता प्रसवानामधिपतिः स मावतु। अस्मिन्ब्रह्मण्यस्मिन्कर्मण्यस्यां पुरोधायामस्यां प्रतिष्ठायामस्यां। चित्त्यामस्यामाकूत्यामस्यामाशिष्यस्यां देवहूत्यां स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठसविता । प्रऽसवानाम् । अधिऽपति: । स:। मा । अवतु । अस्मिन् । ब्रह्मणि । अस्मिन् । कर्मणि । अस्याम् । पुर:ऽधायाम् । अस्याम् । प्रतिऽस्थायाम् । अस्याम् । चित्त्याम् । अस्याम् । आऽकूत्याम् । अस्याम् । आऽशिषि । अस्याम् । देवऽहूत्याम् । स्वाहा ॥२४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
रक्षा के लिये प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ
(सविता) सब का उत्पन्न करनेवाला वा सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाला जगदीश्वर (प्रसवानम्) उत्पन्न पदार्थों वा अच्छे-अच्छे ऐश्वर्यों का (अधिपतिः) अधिष्ठाता है, (सः) वह (मा) मुझे (अवतु) बचावे। (अस्मिन्) इस (ब्रह्मणि) बड़े वेदज्ञान में, (अस्मिन्) इस (कर्मणि) कर्तव्य कर्म में, (अस्याम्) इस (पुरोधायाम्) पुरोहित पदवी में, (अस्याम्) इस (प्रतिष्ठायाम्) प्रतिष्ठा वा सत्क्रिया में, (अस्याम्) इस (चित्याम्) चेतना में, (अस्याम्) इस (आकूत्याम्) इस संकल्प वा उत्साह में, (अस्याम्) इस (आशिषि) अनुशासन में, और (अस्याम्) इस (देवहूत्याम्) विद्वानों के बुलावे में, (स्वाहा) यह आशीर्वाद हो ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य जगत्पति परमात्मा का आश्रय लेकर अपने सब उत्तम कार्य पुरुषार्थपूर्वक सिद्ध करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(सविता) सर्वोत्पादकः। सर्वैश्वर्यवान् परमेश्वरः (प्रसवानाम्) प्रसूतानामुत्पन्नानां पदार्थानां प्रकृष्टैश्वर्याणां वा (अधिपतिः) अधिष्ठाता (सः) (मा) माम् (अवतु) पालयतु (अस्मिन्) पुरोवर्त्तिनि (ब्रह्मणि) बृहति वेदज्ञाने (अस्मिन्) (कर्मणि) वेदोक्तकर्तव्ये व्रते (अस्याम्) उपस्थितायाम् (पुरोधायाम्) पुरस्+डुधाञ् धारणपोषणयोः−अङ्, टाप्। पुरोहितपदव्याम्। मुख्यपदे (प्रतिष्ठायाम्) प्रति+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−अङ्, टाप्। सुकृतौ (चित्याम्) चिती संज्ञाने−क्तिन्। चेतनायाम् (आकूत्याम्) कुङ् शब्दे−क्तिन्। संकल्पे। उत्साहे (आशिषि) आङ्+शासु अनुशिष्टौ−क्विप्। आशासः क्वावुपधाया इत्वं वाच्यम्। वा० पा० ६।४।३४। इति इत्वम्। अनुशासने (देवहूत्याम्) ह्वेञ् आह्वाने−क्तिन्। विदुषामावाहने (स्वाहा) अ० २।१६।१। सु+आङ्+ह्वेञ्−डा। सुवाणी। आशीर्वादः ॥
विषय
'प्रसवानाम् अधिपितः 'सविता
पदार्थ
१. (सविता) = सबको प्रेरणा देनेवाला प्रभु (प्रसवानाम् अधिपतिः) = सब प्रेरणाओं का स्वामी है-वही सबको प्रेरणा देता है-चेताता है। (सः मा अवतु) = वह मेरा रक्षण करे। (अस्मिन्) = इस (ब्रह्मणि) = ज्ञान-प्राप्ति के कर्म में, (अस्मिन् कर्मणि) = इस यज्ञादि कर्म में, (अस्यां पुरोधायाम्) = इस पौरोहित्य में-पुरोहित-कर्म के सम्पादन में, (अस्यां प्रतिष्ठायाम्) = इस प्रतिष्ठा में-शान्तस्थिति में [iranquility, repost], (अस्यां चित्त्याम्) = इस आत्मस्वरूप की स्मृति में, (अस्यां आकूत्याम्) = इस संकल्प में (अस्याम् आशिषि) = इस आशी:-शुभेच्छा में, (अस्या देव-हुत्याम) = इस देवों की प्रार्थना में [हूति आह्वान] स्वाहा-[स्वा आ हा] मैं अपना अर्पण करता है। इसप्रकार जीवन यापन करता हुआ मैं प्रभु रक्षणीय होऊँ।
भावार्थ
वह प्रेरक प्रभु सब प्रेरणाओं का स्वामी है। मैं उसकी प्ररेणाओं को सुनें और उन्हें कार्यान्वित करूँ। प्रभु से रक्षित हुआ-हुआ मैं "ज्ञान-प्राप्ति, यज्ञादिकर्म, पौरोहित्य, शान्तस्थिति, आत्मस्वरूप की स्मृति, उत्तम संकल्प, उत्तमेच्छा व देवों की प्रार्थना' में अपना अर्पण करता हूँ, इन कर्मों में प्रवृत्त हुआ-हुआ जीवन-यज्ञ में आगे बढ़ता हूँ।
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज-सविता देव की उपासना
तो मुनिवरों! देखो, वह साधना के लिए सविता देव की उपासना करने लगे यज्ञमान कहता है कि हे सविता! देव! जिस आसन पर मैं वास करता हूँ, वह आसन मेरा हिंसा से रहित हो जाए, वह आसन मानो मैं मन, कर्म वचन से किसी प्रकार की हिंसा न करूं, मानो देखो, हिंसा का एक परमाणु भी न रह पाए। मेरे आश्रम को मानो मेरी वह तरंगे न छू पाएं तो ऐसा मुझे स्मरण आता रहता है, मुनिवरों! महर्षि लोमश जी ने जब ये उपदेश दिया तो कागभुषुण्ड जी अपने में याग करने लगे जब वो सविता देव के याग में परणित हो गए, सविता देव की उपासना करने लगे तो मुनिवरों! देखो, जहां तक उनकी वाणी जा रही थी, वाणी का वाक गमन कर रहा था, तो मुनिवरों! देखो, निकटतम आसन रहने वाला देखो, एक विद्यालय था, वहां महर्षि श्वेतकेतु रहते थे तो श्वेतकेतु के यहां से मुनिवरों! देखो, वह ब्रह्मचारियों के द्वारा वो अहिंसा देखो, विचार देखो, जब तरंगों में प्रवेश होने लगे तो जहां वो कागभुषुण्ड जी के आश्रम में वाणी जा रही थी तो वहां से वो तरंगें मानो उन तरंगों ने ऐसा गृहत किया, मुनिवरों! देखो, वह तरंगे स्वतः ही विद्यालय में प्रवेश हो गई। तो मेरे प्यारे! देखो, इसीलिए विद्यालय ऐसां ब्रह्मा देखो, आचार्य की वो सविता देव की याग के द्वारा वो जो तरंगे होती हैं, मानो देखो, मन मस्तिष्क जब एकाग्र होता है, और मन की तरंगों में जब तरंगे पवित्र होती हैं। तो जैसे विद्युत मुनिवरों! देखो, जैसे आगे शचि में प्रवेश हो जाती है, मुनिवरों! देखो, इसी प्रकार देखो, तरंगें भी उन्ही तरंगों को प्राप्त करती रहती हैं। जहां से उन तरंगों का प्रादुर्भाव हुआ था तो कागभुषुण्ड जी जब इस प्रकार याग कर रहे थे, तो कहीं से मानो भ्रमण करते हुए मेरे पुरातन काल में ये वाक तुम्हें प्रगट भी किया कहीं से मुनिवरों! देखो, श्वेत ब्रह्मचारी भ्रमण करते हुए, जैसे याग कर रहे थे जैसे मानो याग में हूत करने लगे जब हूत करने लगे तो जैसे स्वाहा का उदगीत गाया जाने लगा तो आन्तरिक जो विचार थे, वे विचार स्वाहा के साथ में अग्नि की धाराओं पर जब विद्यमान हुए तो मानो देखो, उस आचार्य को कागभुषुण्ड जी को आह्वान कर रही हैं। वो तरंगे की जो देखो, ये हूत कर रहा है। ये हूत करता है, उसके हिंसक विचार बन गए हैं। ये तमोगुणी विचार हैं, इसके ये मानो देखो, कहीं सतोगुणी भावना को नष्ट कर रहा है, तो उसी समय मुनिवरों! देखो, कागभुषुण्ड जी अपने वेदमन्त्र सविता देव के शान्त कर दिए, और वे बोले नतमस्तिष्क हो करके हे आचार्य! तुम ये जो मानो मेरे याग में तुम्हारा सम्मलित होना है ये वास्तव में देखो, प्रियता नही हैं। ये प्रीति युक्त नहीं हैं। उन्होंने कहा प्रभु! ऐसा क्यों उन्होंने कहा कि मुझे ये आह्वान हो रहा है कि तुम्हारे विचार हिंसक बन रहे हैं तुम किसी को दण्डित करके आए हो, उन्होंने कहा हां प्रभु! ये तो है। उन्होंने कहा मुझे वे तरंगे मेरे अन्तःकरण को स्पर्श कर रही हैं, इसीलिए तरंगों में, तरंगों का जहां मिलान होता है, वही तरंगे मानो देखो, उसकी प्रतिभा में निहित हो जाती हैं, मैं अपनी साधना के लिए, आश्रम में मानो इस प्रकार का याग कर रहा हूँ, मैं ये सविता देव प्रभु से प्रार्थना कर रहा हूँ, कि मेरे आश्रम में कोई तरंग ऐसी अशुद्ध न आ जाए, जिससे उन तरंगों के द्वारा प्रायः मेरा विनाश अनिष्ट हो जाए और मैं अनिष्टता को प्राप्त हो करके, मैं अपने में अपनेपन को न विचार सकूं।
भाषार्थ
(सविता प्रसवानाम्) सविता प्रेरणाओं का (अधिपति:) अधिपति है, (सः) वह (मा) मेरी (अवतु) रक्षा करे, (अस्मिन् ब्रह्मणि) इस वेदज्ञान की प्राप्ति में, (अस्मिन् कर्मणि) इस वैदिक कर्म में, (अस्याम् पुरोधायाम्) इस संमुख-स्थापित अभिलाषा की पूर्ति में, (अस्याम् प्रतिष्ठायाम् ) इस दृढ़ स्थिति में, (अस्याम्, चित्त्याम्) इस स्मृतिशक्ति में, (अस्याम् आकूत्याम् ) इस संकल्प में, (अस्याम् आशिष्यस्याम्) इस आशा की पूर्ति में, (देवहूत्याम्) दिव्यगुणों या विद्वानों के आह्वान में, (स्वाहा) यह उत्तम कथन हुआ है। [स्वाहा=सु+आह]।
विषय
परमेश्वर से धर्म-कार्य में रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ
(सविता) सब का उत्पादक परमात्मा (प्रसवानाम् अधिपतिः) सब पदार्थों के उत्पन्न होने के कार्यों का स्वामी है, (सः) वह (अस्मिन् ब्रह्मणि) इस ब्रह्मयज्ञ में (अस्मिन् कर्मणि) इस यज्ञ-कर्म में, (अस्यां पुरोधायाम्) इस पुरोहित के कार्य में, (अस्यां प्रतिष्ठायाम्) इस प्रतिष्ठा में, (अस्यां चित्त्याम्) इस ज्ञानमय स्थिति में, (अस्यां आकूत्यां) इस आकृति, मन को सद्भावना में (अस्यां आशिषि) इस शुभ आशाजनक कार्य में (अस्यां देवहूत्यां) इस देव- परिषद् में जिस में विद्वानों को बुलाया गया है (सः) वह परमात्मा (मा अवतु) मेरी रक्षा करे, (स्वाहा) यही मेरी उत्तम कामना सफल हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। ब्रह्मकर्मात्मा देवता। १-१७ चतुष्पदा अतिशक्वर्यः। ११ शक्वरी। १५-१६ त्रिपदा। १५, १६ भुरिक् अतिजगती। १७ विराड् अतिशक्वरी। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self-Protection, Brahma Karma
Meaning
Savita, lord of the light of life, is the supreme presiding power of all created beings. May Savita protect and guide us in the pursuit of this divine knowledge, in this programme of work, in this priestly task, in this office of respectable undertaking, in this intention, in this resolution, in this benediction, in this invocation and yajna in honour of the divine. This is the true voice from within.
Subject
Divinities - numerous .
Translation
The inspirer Lord (Savitr) is the Lord of imulses (prasavànamdhipatih) may he favour me in this prayer (brahmani); in this rite (karmani) in this priestly representation (asyám purodhayam); in firm standing (pratisthayám); in this intent (asyam chittayám); in this design (asyam àkütyám); in this benediction (asisi) in this invocation of the divinities (devadutyam). Svahá (hail).
Translation
Savitar, the sun is the Master-power of the created objects let it protect me in this my attainment of knowledge, in this my act, in this my sacerdotal undertaking, in this my act of life’s stability, in this intension in this my deliberate activity, in this performance expectation and prosperity and in this my activity of yajna and science. Whatever is utter here in is correct.
Translation
God is the Lord of all created objects. May He protect me, in this my study of the Vedas, in this duty of mine, in this my sacerdotal charge, in this noble performance, in this meditation, in this my resolve and determination, in this administration, in this assembly of the learned. May this noble prayer of mine be fulfilled.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(सविता) सर्वोत्पादकः। सर्वैश्वर्यवान् परमेश्वरः (प्रसवानाम्) प्रसूतानामुत्पन्नानां पदार्थानां प्रकृष्टैश्वर्याणां वा (अधिपतिः) अधिष्ठाता (सः) (मा) माम् (अवतु) पालयतु (अस्मिन्) पुरोवर्त्तिनि (ब्रह्मणि) बृहति वेदज्ञाने (अस्मिन्) (कर्मणि) वेदोक्तकर्तव्ये व्रते (अस्याम्) उपस्थितायाम् (पुरोधायाम्) पुरस्+डुधाञ् धारणपोषणयोः−अङ्, टाप्। पुरोहितपदव्याम्। मुख्यपदे (प्रतिष्ठायाम्) प्रति+ष्ठा गतिनिवृत्तौ−अङ्, टाप्। सुकृतौ (चित्याम्) चिती संज्ञाने−क्तिन्। चेतनायाम् (आकूत्याम्) कुङ् शब्दे−क्तिन्। संकल्पे। उत्साहे (आशिषि) आङ्+शासु अनुशिष्टौ−क्विप्। आशासः क्वावुपधाया इत्वं वाच्यम्। वा० पा० ६।४।३४। इति इत्वम्। अनुशासने (देवहूत्याम्) ह्वेञ् आह्वाने−क्तिन्। विदुषामावाहने (स्वाहा) अ० २।१६।१। सु+आङ्+ह्वेञ्−डा। सुवाणी। आशीर्वादः ॥
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