अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अग्निः
छन्दः - द्विपदा प्राजापत्या बृहती
सूक्तम् - नवशाला सूक्त
1
यजूं॑षि य॒ज्ञे स॒मिधः॒ स्वाहा॒ग्निः प्र॑वि॒द्वानि॒ह वो॑ युनक्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयजूं॑षि । य॒ज्ञे । स॒म्ऽइध॑: । स्वाहा॑। अ॒ग्नि: । प्र॒ऽवि॒द्वान् । इ॒ह । व॒: । यु॒न॒क्तु॒ ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यजूंषि यज्ञे समिधः स्वाहाग्निः प्रविद्वानिह वो युनक्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयजूंषि । यज्ञे । सम्ऽइध: । स्वाहा। अग्नि: । प्रऽविद्वान् । इह । व: । युनक्तु ॥२६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
समाज की वृद्धि करने का उपदेश।
पदार्थ
(प्रविद्वान्) बड़ा विद्वान् (अग्निः) तेजस्वी पुरुष (इह) यहाँ (यज्ञे) संगति में (यजूंषि) पूजनीय कर्मों और (समिधः) विद्यादि प्रकाश क्रियाओं को (वः) तुम्हारे लिये (स्वाहा) उत्तम वाणी से (युनक्तु) उपयुक्त करे ॥१॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष संसार में उत्तम कर्मों और विद्याओं को फैलावे ॥१॥
टिप्पणी
१−(यजूंषि) अर्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु−उसि। पूजनीयकर्माणि (यज्ञे) संगतौ (समिधः) इन्धी दीप्तौ क्विप्। विद्यादिप्रकाशक्रियाः (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाचा (अग्निः) तेजस्वी पुरुषः (प्रविद्वान्) प्रकृष्टज्ञानी (इह) अत्र (वः) युष्मभ्यम् (युनक्तु) उपयोगे करोतु ॥
विषय
यजूंषि समिधः [यज्ञ ज्ञान]
पदार्थ
१. (यज्ञे) = इस जीवन-यज्ञ में (यजूंषि) = 'देवपूजा-संगतिकरण-दान' रूप यज्ञ तथा (समिधः) = ज्ञानदीसियाँ (स्वाहा) = सम्यक् आहुत हों, अर्थात् जीवन को हम यज्ञ समझें और यहाँ यज्ञों तथा ज्ञान-दीसियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करें। २. वह (अग्निः) = अग्रणी (प्रविद्वान्) = प्रकृष्ट ज्ञानी प्रभु हमें (इह) = इसी 'यज्ञ तथा ज्ञान-दीसि' में (युनक्तु) = लगाये। प्रभुकृपा से हमारे हाथों से यज्ञों का प्रवर्तन हो और मस्तिष्क को हम ज्ञान-दीस बनाएँ।
भावार्थ
हमारा जीवन यज्ञमय हो और स्वाध्याय के द्वारा हम ज्ञानदीत बनें।
भाषार्थ
(यज्ञे) यज्ञ में (यजूंषि) यजुर्वेद के मन्त्र, (समिधः) समिधाएँ, तथा (स्वाहा) स्वाहा [पद का प्रयोग] होता है। ( प्रविद्वान् ) प्रकृष्ट विद्वान् प्रज्ञानी (अग्निः) अग्नि (वः) तुम्हें (इह) इस यज्ञकर्म में (युनक्तु) नियुक्त करे। [अग्निः=प्रज्ञानी परमेश्वर (यज:० ३२।१)।]
टिप्पणी
[मन्त्र १ से १२ में यज्ञकर्म के साधनों का वर्णन हुआ है, जिन द्वारा कि यज्ञ का सम्पादन होता है। अग्नि, सविता, इन्द्र, विष्णु, त्वष्टा, यम, सोम, अश्विनी-ये प्रेरक देव हैं यज्ञकर्म में (मन्त्र १ से १२)। अभिप्राय यह कि सूक्त में केवल यज्ञाङ्गों का वर्णन हुआ है।]
विषय
योग साधना।
भावार्थ
(यज्ञे) यज्ञमय ब्रह्म में (यजूंषि) यजुष् रूप (समिधः) समिधों, प्राणों को ही (स्वाहा) उत्तम रूप से आहुति करे, (अग्निः) प्रकाशस्वरूप, ज्ञानी (प्र विद्वान्) उनको जानने हारा (वः) हे प्राणो ! तुम को (युनक्तु) यज्ञमय परमब्रह्म में समाधि द्वारा लगावे। प्राण, मन, अन्न, श्रद्धा, मज्जा ये सब पदार्थ यजु हैं, समित् प्राण हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। वास्तोष्पत्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः। १, ५ द्विपदार्च्युष्णिहौ। २, ४, ६, ७, ८, १०, ११ द्विपदाप्राजापत्या बृहत्यः। ३ त्रिपदा पिपीलिकामध्या पुरोष्णिक्। १-११ एंकावसानाः। १२ प्रातिशक्वरी चतुष्पदा जगती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna in the New Home
Meaning
May Agni, learned scholar and enlightened scientist of yajna, light the samits, holy fuel, and fragrant materials and use the verses of Yajurveda here in this yajna in the home for you, i.e., inmates of the house. This is my prayer in truth of thought, word and deed.
Subject
Divinities - Agni to Brhaspatih -
Translation
O sacrificial hymns (yajus) and sacrificial fuel wood (samidha), may you be used in sacrifice. Svāhā. May the fore-knowing fire divine (pra-vidván) use you here.
Translation
O men! let the learned man apply yajna, Yajur verses and samidhah sacred sticks of yajna in the performance of yajna for your well-being. Whatever is uttered herein is correct.
Translation
An enlightened yogi, full of knowledge, should offer sacrificial breaths as an oblation in God. O breaths, may he concentrate ye on God through samadhi!
Footnote
He refers to the yogi, samadhi means deep concentration.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यजूंषि) अर्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु−उसि। पूजनीयकर्माणि (यज्ञे) संगतौ (समिधः) इन्धी दीप्तौ क्विप्। विद्यादिप्रकाशक्रियाः (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाचा (अग्निः) तेजस्वी पुरुषः (प्रविद्वान्) प्रकृष्टज्ञानी (इह) अत्र (वः) युष्मभ्यम् (युनक्तु) उपयोगे करोतु ॥
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