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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - चातनः देवता - जातवेदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रक्षोघ्न सूक्त
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    अ॒क्ष्यौ॒ नि वि॑ध्य॒ हृद॑यं॒ नि वि॑ध्य जि॒ह्वां नि तृ॑न्द्धि॒ प्र द॒तो मृ॑णीहि। पि॑शा॒चो अ॒स्य य॑त॒मो ज॒घासाग्ने॑ यविष्ठ॒ प्रति॑ तं शृणीहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒क्ष्यौ᳡ । नि । वि॒ध्य॒। हृद॑यम् । नि । वि॒ध्य॒ । जि॒ह्वाम् । नि । तृ॒न्ध्दि॒ । प्र । द॒त्त: । मृ॒णी॒हि॒। पि॒शा॒च: । अ॒स्य । य॒त॒म: । ज॒घास॑ । अग्ने॑ । य॒वि॒ष्ठ॒ । प्रति॑ । तम् । शृ॒णी॒हि॒ ॥२९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्ष्यौ नि विध्य हृदयं नि विध्य जिह्वां नि तृन्द्धि प्र दतो मृणीहि। पिशाचो अस्य यतमो जघासाग्ने यविष्ठ प्रति तं शृणीहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्ष्यौ । नि । विध्य। हृदयम् । नि । विध्य । जिह्वाम् । नि । तृन्ध्दि । प्र । दत्त: । मृणीहि। पिशाच: । अस्य । यतम: । जघास । अग्ने । यविष्ठ । प्रति । तम् । शृणीहि ॥२९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं और रोगों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अक्ष्यौ) उसकी दोनों आँखें (नि विध्य) छेद डाल, (हृदयम्) हृदय (नि विध्य) छेद डाल, (जिह्वाम्) जीभ (नि तृन्द्धि) काट डाल, और (दतः) दाँतों को (प्र मृणीहि) तोड़ दे। (यतमः) जिस किसी (पिशाचः) मांस खानेवाले पिशाच ने (अस्य) इसका (जघास) भक्षण किया है, (यविष्ठ) हे महाबलवान् (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (तम्) उसको (प्रति) प्रत्यक्ष (शृणीहि) टुकड़े-टुकड़े कर दे ॥४॥

    भावार्थ

    राजा हिंसक प्राणियों का यथावत् नाश करता रहे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(अक्ष्यौ) अ० १।२७।१। अक्षिणी (नि) नितराम् (विध्य) छिन्धि (हृदयम्) (जिह्वाम्) रसनाम् (नि) (तृन्द्धि) उतृदिर् हिंसानादरयोः। भिन्धि (प्र) प्रकर्षेण (दतः) दन्तान् (मृणीहि) मॄ हिंसायाम्। नाशय (पिशाचः) अ–० १।१६।३। मांसभक्षकः (अस्य) पुरुषस्य (यतमः) यः कश्चित् (जघास) भक्षणं कृतवान् (अग्ने) विद्वन् (यविष्ठ) युवन्−इष्ठन्। स्थूलदूरयुवह्रस्व०। पा० ६।४।१५६। इति वन्लोपः, उकारस्य गुणश्च। हे अतिशयेन तरुणे, बलवन् (प्रति) प्रत्यक्षम् (तम्) शत्रुम् (शृणीहि) शॄ हिंसायाम्। नाशय ॥

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    विषय

    पिशाच-हिंसन

    पदार्थ

    १. (अस्य यतमः पिशाच: जघास) = जो भी पिशाच [रक्तभक्षक कृमि व शत्रु] इसका भक्षण करता है, (अक्ष्यौ निविध्य) = इसकी आँखों को बीध डाल, (हृदयं निविध्य) = हदय को बींध डाल, (जिहां नितन्द्धि) = जिह्वा को काट डाल, (दतः प्रमणीहि) = दाँतों को मसल डाल। २. हे (यविष्ठ) = बुराइयों का अमिश्रण करनेवाले! (अग्ने) = परमात्मन् ! (तं प्रतिशृणीहि) = उस पिशाच को हिंसित कर दे।

     

    भावार्थ

    हे प्रभो! जो भी पिशाच हमारा भक्षण करता है, उसकी 'आँखों, हृदय, जिल्ला ब दाँतों' को विद्ध करके उसे समाप्त कर दीजिए।

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    भाषार्थ

    (यतमः) जिस (पिशाच:) पिशाच ने (अस्य ) इस [रुग्ण ] के [मांस को ] (जघास) खाया है, (यविष्ठ अग्ने) हे युवतम अग्नि! उसकी (अध्यौ) दोनों आँखों को (नि विध्य) नितरां वीध, (हृदयं नि विध्य) हृदय को नितरां वींध, (जिह्वाम्) जिह्वा को (नि तृन्द्धि) नितरां काट डाल, (दतः) दाँतों को (प्र मृणोहि) पूर्णतया तोड़ डाल, ( तम् ) उसे (प्रति शृणीहि) प्रत्येक अंग में काट डाल ।

    टिप्पणी

    [प्रकरण की दृष्टि से पिशाच है मनुष्य को रुग्ण करनेवाला रोग-जीवाणु, अर्थात् जर्म (germ), परन्तु उसे पुरुषविध-कल्पित कर उसके कल्पित-पुरुषाङ्गों के विनाश का वर्णन मन्त्र में हुआ है। यह शैली निरुक्त में भी स्वीकृत की गई है (७।२।६, ७ )। मन्त्र में "जातवेदा: अग्निः" का वर्णन नहीं, अपितु "यविष्ठ अग्नि" का वर्णन है, अर्थात् प्रचण्ड यज्ञियाग्नि का। इसके सम्बन्ध में ही "समिधः" का भी कथन हुआ है (मन्त्र १४, १५)। यज्ञियाग्नि से उत्थित धूम१ रोग-जीवाणुओं का विनाश करता है।] [१. यजियाग्नि से उस्थित धूम में सूक्ष्मरूप में ओषधियाँ होती हैं। नासिका द्वारा इसके पान करने से सूक्ष्म औषध साक्षात् रक्त में मिलकर रोगोपचार करती है।]

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    विषय

    रोगों का नाश करके आरोग्य होने का उपाय।

    भावार्थ

    शत्रु का नाश किस प्रकार करे। हे (अग्ने) अग्ने ! सेनापते ! तू शत्रु के (अक्ष्यौ) आंखों को (नि विध्य) वेध डाल, (हृदयं नि विध्य) हृदय पर भी प्रहार कर। (जिह्वां नि तृन्धि) उस की जिह्वा को भी काट डाल, (दतः प्र मृणीहि) दांतों को भी तोड़ डाल। (अस्य) इस शत्रु का (यतमः पिशाचः) जो भी क्रूर, मांसभक्षी जन्तु राष्ट्र के मांस या शरीरसम्पत्ति को (जघास) खा जाता हो (अग्ने) हे अग्ने ! (यविष्ठ) उसका नाश कर और (तं) उसको (प्रति शृणीहि) भून डाल।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः। जातवेदा मन्त्रोक्ताश्व देवताः। १२, ४, ६-११ त्रिष्टुमः। ३ त्रिपदा विराड नाम गायत्री। ५ पुरोतिजगती विराड्जगती। १२-१५ अनुष्टुप् (१२ भुरिक्। १४, चतुष्पदा पराबृहती ककुम्मती)। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs and Insects

    Meaning

    Agni, whoever or whatever the blood sucking agent of the enemy, fix it in the eyes, pierce the heart, pierce the tongue, break the teeth. Whatever or whoever vexes and consumes us, O most youthful defender, break that down to dust.

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    Translation

    Pierce its both the eyes; pierce its heart, cut off its tongue, and crush its teeth, O biological fire, the most youthful, whosoever blood-sucker has consumed this man, may you destroy him completely. .

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    Translation

    O learned man! Pierce both the eyes, Pierce the heart within, clean the tongue and crush the teeth of the germ of disease. O Strong one! rend that amongst the disease which consumes the flesh of patient.

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    Translation

    Pierce thou his eyes, pierce thou his heart, crush thou his teeth, and cleave his tongue asunder, destroy thou, most youthful physician, the flesh consuming germ, whoso eats the flesh of this man.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अक्ष्यौ) अ० १।२७।१। अक्षिणी (नि) नितराम् (विध्य) छिन्धि (हृदयम्) (जिह्वाम्) रसनाम् (नि) (तृन्द्धि) उतृदिर् हिंसानादरयोः। भिन्धि (प्र) प्रकर्षेण (दतः) दन्तान् (मृणीहि) मॄ हिंसायाम्। नाशय (पिशाचः) अ–० १।१६।३। मांसभक्षकः (अस्य) पुरुषस्य (यतमः) यः कश्चित् (जघास) भक्षणं कृतवान् (अग्ने) विद्वन् (यविष्ठ) युवन्−इष्ठन्। स्थूलदूरयुवह्रस्व०। पा० ६।४।१५६। इति वन्लोपः, उकारस्य गुणश्च। हे अतिशयेन तरुणे, बलवन् (प्रति) प्रत्यक्षम् (तम्) शत्रुम् (शृणीहि) शॄ हिंसायाम्। नाशय ॥

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