अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
रात्री॑ मा॒ता नभः॑ पि॒तार्य॒मा ते॑ पिताम॒हः। सि॑ला॒ची नाम॒ वा अ॑सि॒ सा दे॒वाना॑मसि॒ स्वसा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठरात्री॑ । मा॒ता । नभ॑: । पि॒ता । अ॒र्य॒मा । ते॒ । पि॒ता॒म॒ह: । सि॒ला॒ची । नाम॑ । वै । अ॒सि॒ । सा । दे॒वाना॑म् । अ॒सि॒ । स्वसा॑ ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रात्री माता नभः पितार्यमा ते पितामहः। सिलाची नाम वा असि सा देवानामसि स्वसा ॥
स्वर रहित पद पाठरात्री । माता । नभ: । पिता । अर्यमा । ते । पितामह: । सिलाची । नाम । वै । असि । सा । देवानाम् । असि । स्वसा ॥५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म विद्या का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमात्मन् !] (ते) तेरी (माता) निर्माण शक्ति (रात्री) विश्राम देनेवाली रात्रि समान, (पिता) पालनेवाला गुण (नभः) आकाश वा मेघ के समान, और (पितामहः) हमारे पालनेवाले का पालनेवाला तेरा गुण (अर्यमा) विघ्नों को रोकनेवाले सूर्य के समान है। (सिलाची) सब में मेल रखनेवाली शक्ति (नाम) नाम (वे) अवश्य ही (असि) तू है, (सा) सो तू (देवानाम्) दिव्य गुणों की (स्वसा) अच्छे प्रकार प्रकाश करनेहारी शक्ति (असि) है ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर ही, जो शक्तिविशेष है, संसार के सब पदार्थों का कर्ता धर्ता है ॥१॥
टिप्पणी
१−(रात्री) अ० १।१६।१। रा दानादानयोः−त्रिप्, ङीप्। विश्रामदात्री रात्रिर्यथा (माता) अ० १।२।१। माङ् माने−तृच्। मातान्तरिक्षं निर्मीयन्तेऽस्मिन् भूतानि−निरु० २।८। मातरो भासो निर्मात्र्यः−निरु० १२।७। निर्माणशक्तिः (नभः) अ० ४।१५।६। आकाशं मेघो वा यथा (पिता) पालको गुणः (अर्यमा) अ० ३।१४।२। अर्यमादित्योऽरीन्नियच्छतीति−निरु० ११।२३। सूर्यो यथा (ते) तव (पितामहः) पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः। पा० ४।२।३६। इति पितृ−डामहच्। पितुः पिता। अस्माकं पालकस्य पालकस्तव धर्मः (सिलाची) षिल श्लेषे−क, अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्, ङीप्। सिलेन श्लेषेण संसर्गेण गतिशीला। सिलिकमध्यमाः संसृतमध्यमाः शीर्षमध्यमा वा−निरु० ४।१३। (नाम) प्रसिद्धौ (वै) एव (असि) (सा) सा त्वम् (देवानाम्) दिव्यपदार्थानाम् (स्वसा) सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। इति सु+अस दीप्तौ−ऋन्। सुष्ठु दीपयित्री शक्तिः ॥
विषय
सिलाची देवस्वसा
पदार्थ
१. हे लाक्षे! (रात्री माता) = रात्रि तेरी माता है। रात्रि में बढ़ने के कारण लाक्षा को रात्रिरूप मातावाली कहा गया है। ओस-बिन्दु इसके वर्धक होते हैं। (नभः पिता) = पर्जन्य तेरा पिता है। आकाश से बरसा हुआ बादलों का पानी इस लाक्षा की वृद्धि का कारण बनता है। (अर्यमा) = सूर्य (ते) = तेरा (पितामहः) = पितामह स्थानापन्न है। सूर्य से उद्गाष्पित जल ही मेघ बनते हैं। मेघ लाक्षा को पैदा करते हैं। इसप्रकार सूर्य'लाक्षा के पिता मेघों' का पिता होने से लाक्षा का पितामह हो जाता है। २. हे लाक्षे! तू (सिलाची नाम वा असि) = निश्चय से सिलाची नामवाली है [शिल श्लेषे, अब्बु पूजायाम्] श्लेष में पूजित है-फटावों को भर देने में उत्तम है। (सा) = वह तू (देवानाम्) = सब इन्द्रियों की (स्वसा असि) = स्वसा है-उन्हें उत्तम स्थिति में रखनेवाली है।
भावार्थ
लाक्षा की उत्पत्ति रात्रि की ओस व वृष्टि-जल से होती है। यह घावों को भर देने में उत्तम है तथा इन्द्रिय-दोषों को दूर करती है।
भाषार्थ
(रात्री) रात्री है [तेरी] (माता) माता, (नभः) मेघ है ( पिता) (अर्यमा१) सूर्य है (ते) तेरा ( पितामह: ) पिता का पिता । (वै ) निश्चय से (नाम) प्रसिद्ध (सिलाची) सिलाची ( असि) तू है, (सा) वह तू (देवानाम्) देवों की (स्वसा) बहिन है।
टिप्पणी
[सूक्त में लाक्षा का वर्णन है, लाक्षा है लाख [मन्त्र ७] । लाक्षा को "अपां स्वसा" कहा है [मन्त्र ७ ] । मन्त्र १ में लाक्षा को " देवानां स्वसा" कहा है, अतः देवानाम् = अपाम् अर्थात् उदक। "आप:" पैदा होते हैं नभस् से, मेघ से। यतः नभस् से आप: [ उदक ] भी पैदा हुए, और नभस् से वर्षा द्वारा लाक्षा भी पैदा होती है, अतः देवों अर्थात् अप्-देवों की स्वसा [बहिन] लाक्षा हुई। घने मेघों द्वारा सूर्य का प्रकाश न होकर, रात्री के सदृश अन्धकार हो जाता है, अतः इस अन्धकारमय काल को रात्री कहा है। यह काल अतिवर्षा का काल है और वर्षा के जल से लाक्षोत्पादक बृक्ष पैदा होते हैं [मन्त्र ५], अतः नभस्, अपाम् और लाक्षा का परस्पर रिश्ता गूढ़-कविता द्वारा दर्शाया है। नभस् से दो पैदा हुए उदक और लाक्षा, अत: ये दो भाई और बहिन हुए। मन्त्र ७ में यद्यपि "अपाम् " पद स्त्रीलिङ्ग में है, परन्तु वह केवल “छन्दः पूर्ति" के लिए है, अपाम् द्वारा अभिप्रेत है "देवानाम्" (मन्त्र १); जबकि पुल्लिङ्ग पद है । अर्यमा अर्थात् आदित्य है पितामह, अर्थात् नभस् ( मेघ ) का भी पिता। १. अर्यमाऽऽदित्योऽरीन्नियच्छतीति (निरुक्त ११।३।२३)।]
विषय
सिलाची = लाक्षा औषधि का वर्णन।
भावार्थ
सिलाची नाम ओषधि का उपदेश करते हैं। सिलाची = लाख नाम औषधि की (माता) माता के समान पालन पोषण और वृद्धि करने वाली (रात्री) रात्रि है। अर्थात् वह रात में बढ़ती है, वह रात्रि की ओस से बढ़ती है, (नभः) अधिक न चमकने वाला, चन्द्रमा, नक्षत्रमय आकाश उसका (पिता) पालन करने वाला है। और (ते पितामहः) तेरा पितामह (अर्यमा) सूर्य है। क्योंकि परम्परा से वह ओषधि सूर्यप्रकाश की अपेक्षा करती है। हे ओषधे ! तूं (सिलाची नाम वा असि) ‘सिलाची’ नाम वाली है। तू (देवानाम् स्वसा असि) देव विद्वानों की भगिनीं के समान रोगियों को सुख देने में सहायक है। अथवा देह में विद्यमान देव, इन्द्रियों को स्वयं गति देने में समर्थ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। लक्ष्मी देवता। १-६ अनुष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Laksha
Meaning
O laksha, the night is your mother, the cloud in the sky is your father and the sun is your grandfather. Your name is Silachi, and you are sister of the divinities.
Subject
Làksa or Lac
Translation
Night is (your) mother, cloud (your) father, and the sun of Vaisakha month (aryaman) is your grand father. Surely your name is silachi. As such, you are sister of the bounties of Nature.
Translation
Night is the mother of this Laksha the lac, the cloud its father and the sum its grandfather. Its name is Silachi and it is the sister of the organs of the body.
Translation
Sun is thy grandsire, Night thy mother, and the Cloud thy sire. Thy Dame is called Silachi, (wax) thou, thyself, art sister of the learned.
Footnote
Silachi, more usually called Arundhati, as in stanzas 5 and 9, is a medicinal climbing plant, supplied in cases of severe contusion or fracture. Night is its mother, as night fosters and nourishes like mother. It grows in the night. The frost in night time helps in its growth. Cloud helps in its growth, with rain, and is hence its father. Sun is its grandfather, being its great protector from times immemorial. Just as a sister helps and serves her brother, so this medicine cures the learned. Pt.Khem Karan Das 'Trivedi has applied all the verses to God. His learned interpretation is worth study.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(रात्री) अ० १।१६।१। रा दानादानयोः−त्रिप्, ङीप्। विश्रामदात्री रात्रिर्यथा (माता) अ० १।२।१। माङ् माने−तृच्। मातान्तरिक्षं निर्मीयन्तेऽस्मिन् भूतानि−निरु० २।८। मातरो भासो निर्मात्र्यः−निरु० १२।७। निर्माणशक्तिः (नभः) अ० ४।१५।६। आकाशं मेघो वा यथा (पिता) पालको गुणः (अर्यमा) अ० ३।१४।२। अर्यमादित्योऽरीन्नियच्छतीति−निरु० ११।२३। सूर्यो यथा (ते) तव (पितामहः) पितृव्यमातुलमातामहपितामहाः। पा० ४।२।३६। इति पितृ−डामहच्। पितुः पिता। अस्माकं पालकस्य पालकस्तव धर्मः (सिलाची) षिल श्लेषे−क, अञ्चु गतिपूजनयोः−क्विन्, ङीप्। सिलेन श्लेषेण संसर्गेण गतिशीला। सिलिकमध्यमाः संसृतमध्यमाः शीर्षमध्यमा वा−निरु० ४।१३। (नाम) प्रसिद्धौ (वै) एव (असि) (सा) सा त्वम् (देवानाम्) दिव्यपदार्थानाम् (स्वसा) सावसेर्ऋन्। उ० २।९६। इति सु+अस दीप्तौ−ऋन्। सुष्ठु दीपयित्री शक्तिः ॥
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