अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सविता
छन्दः - त्रिपदा पिपीलिकमध्या साम्नी जगती
सूक्तम् - अमृतप्रदाता सूक्त
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दो॒षो गा॑य बृ॒हद्गा॑य द्यु॒मद्धे॑ह्याथ॑र्वण। स्तु॒हि दे॒वं स॑वि॒तार॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठदो॒षो इति॑ । गा॒य॒ । बृ॒हत् । गा॒य॒ । द्यु॒ऽमत् । धे॒हि॒ । आथ॑र्वण । स्तु॒हि । दे॒वम् । स॒वि॒तार॑म् ॥१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दोषो गाय बृहद्गाय द्युमद्धेह्याथर्वण। स्तुहि देवं सवितारम् ॥
स्वर रहित पद पाठदोषो इति । गाय । बृहत् । गाय । द्युऽमत् । धेहि । आथर्वण । स्तुहि । देवम् । सवितारम् ॥१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(आथर्वण) हे निश्चल ब्रह्म के जाननेवाले महर्षि ! (देवम्) प्रकाशस्वरूप (सवितारम्) सब के प्रेरक परमात्मा को (दोषो) रात्रि में भी (गाय) गा, (बृहत्) विशाल रूप से (गाय) गा, (द्युमत्) स्पष्ट रीति से (धेहि) धारण कर और (स्तुहि) बड़ाई कर ॥१॥
भावार्थ
विद्वान् पुरुष परमेश्वर के गुणों को हृदय में धारण करके संसार में सदा प्रकाशित करे ॥१॥
टिप्पणी
१−(दोषो) दोषा+उ। रात्रावपि। अहोरात्रे, इत्यर्थः (गाय) उच्चारय (बृहत्) विशालरूपेण (गाय) (द्युमत्) यथा तथा, प्रकाशेन (धेहि) धारय हृदये (आथर्वण) अथर्वा व्याख्यातः−अ० ४।१।७। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इति अर्थवन्−अण्। अन्। पा० ६।४।६७। इति टिलोपाभावः। अथर्वाणं निश्चलस्वभावं परमात्मानं यो महर्षिर्वेद जानाति तत्सम्बुद्धौ (स्तुहि) प्रशंस (देवम्) प्रकाशस्वरूपम् (सवितारम्) षू प्रेरणे−तृच्। सर्वप्रेरकं जगदीश्वरम् ॥
विषय
स्तुहि देवं सवितारम्
पदार्थ
१. हे (आथर्वण) = स्थिरवृत्ति के साधक! (दोषो गाय) = रात्रि के समय उस प्रभु का गुणगान कर, (बृहद् गाय) = खुब ही गायन कर। (घुमद्धेहि) = उस ज्योतिर्मय प्रभु को धारण कर । २. उस (देवम्) = प्रकाशमय, दिव्य गुणों के पुज्ज प्रभु का, (सवितारम्) = उत्पादक व प्रेरक प्रभु का (स्तुहि) = स्तवन कर|
भावार्थ
हम सविता देव का स्तवन करते हुए 'सविता व देव' बनने का प्रयत्न करें, उत्पादक व निर्माण कार्यों में प्रवृत्त व प्रकाशमय दिव्य गुणयुक्त जीवनवाले बनें।
भाषार्थ
(दोषा उ) रात्री में भी (गाय) [परमेश्वर का] गायन कर (बृहद् गाय) महागान कर,(द्युमत्) दीप्ति वाले ब्रह्म को (धेहि) हृदय में धारण कर। (आथर्वण) हे अचल चित्तवृत्ति वाले ! (सवितारम्, देवम्) सर्वोत्पादक, सर्वेश्वर्यवान्, सर्वप्रेरक देव की (स्तुहि) स्तुति किया कर ।
टिप्पणी
[आथर्वण =अथर्वा, स्वार्थे अण; थर्बतिः चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः (निरुक्त ११।२।१९; पद १३) उ =अपि; इस द्वारा प्रातः स्तुति कथित हुई है। आथर्वण= अथवा, अथर्वा= कूटस्थ परमेश्वर, तदुपासक]।
विषय
ईश्वरस्तुति।
भावार्थ
हे (आथर्वण) कूटस्थ परमात्मा का ध्यान करने वाले या अथर्ववेद के विद्वान् ! ब्रह्म के उपासक ! (दोषा उ) दिन और रात्रि या प्रातः सायं दोनों कालों में (बृहत्) परमात्मा के सम्बन्ध में बृहत् नामक साम वा उस महान् प्रभु का (गाय) गायन कर। और (घुमत्) प्रकाशस्वरूप आत्मा का (धेहि) ध्यान कर। और (सवितारम्) सब के उत्पादक, सब के प्रकाशक (देवम्) प्रकाशस्वरूप परम देव के (स्तुहि) गुणों का वर्णन किया कर। प्रजापतिर्वा अथर्वा। अग्निरेव दध्यङ् आथर्वणः॥ तै० सं० ५। ६६। ३॥ परमात्मा अथर्वा कहाता है। और अग्नि, ज्ञानी पुरुष दध्यङ अर्थात् योग समाधि द्वारा उस प्रजापति का ध्यान चिन्तन करता है ‘दध्यङ् आथर्वण’ कहाता है। ‘त्वाम् इद्धि हवामहे’ इत्यादि [ऋ० ६। ४६। १] ऋक् का साम बृहत्साम कहाता है ।
टिप्पणी
आथर्वणान्ता पादसमाप्तिरिति केचित्। ततो गायत्री छन्दः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सविता देवता। त्रिपदा पिपीलिकामध्या साम्नी जगती २- ३ पिपीलिका मध्या परोष्णिक्। तृचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Lord of Immortality
Meaning
Atharva, O sage of stable mind, sing and celebrate the glory of Savita, lord of life. Sing of him night and day. Sing of him spontaneously and profusely. Hold the refulgent divine at heart. Worship the lord of light and life and exalt him.
Subject
Savita
Translation
Sing in the evening (dosah); sing loudly for long; adopt the shining one. O persevering devotee, praise the divine inspirer Lord.
Translation
Sing, O man of concentrated attention, in night and day, sing loudly, realize the splendid self and praise the all-creating Divinity.
Translation
O worshipper of God, sing His glory day and night, sing loudly, contemplate upon the Refulgent God. Praise the All-creating God!
Footnote
Day and night: Morning and evening. 'Atharvan' does not mean the son of Atharva Rishi. The word means a worshipper of God, or the knower of the Atharvaveda.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(दोषो) दोषा+उ। रात्रावपि। अहोरात्रे, इत्यर्थः (गाय) उच्चारय (बृहत्) विशालरूपेण (गाय) (द्युमत्) यथा तथा, प्रकाशेन (धेहि) धारय हृदये (आथर्वण) अथर्वा व्याख्यातः−अ० ४।१।७। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इति अर्थवन्−अण्। अन्। पा० ६।४।६७। इति टिलोपाभावः। अथर्वाणं निश्चलस्वभावं परमात्मानं यो महर्षिर्वेद जानाति तत्सम्बुद्धौ (स्तुहि) प्रशंस (देवम्) प्रकाशस्वरूपम् (सवितारम्) षू प्रेरणे−तृच्। सर्वप्रेरकं जगदीश्वरम् ॥
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