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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शन्ताति देवता - अग्निः छन्दः - साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - संप्रोक्षण सूक्त
    1

    पृ॑थि॒व्यै श्रोत्रा॑य॒ वन॒स्पति॑भ्यो॒ऽग्नयेऽधि॑पतये॒ स्वाहा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒थि॒व्यै । श्रोत्रा॑य । वन॒स्पति॑ऽभ्य: । अ॒ग्नये॑ । अधि॑ऽपतये । स्वाहा॑ ॥१०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथिव्यै श्रोत्राय वनस्पतिभ्योऽग्नयेऽधिपतये स्वाहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृथिव्यै । श्रोत्राय । वनस्पतिऽभ्य: । अग्नये । अधिऽपतये । स्वाहा ॥१०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    स्वास्थ्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (क्षोत्राय) श्रवणशक्ति के लिये (पृथिव्यै) पृथिवी को, और (वनस्पतिभ्यः) सेवा करनेवालों के रक्षकों वृक्ष आदिकों के लिये (अधिपतये) [पृथिवी के] बड़े रक्षक (अग्नये) अग्नि को (स्वाहा) सुन्दर स्तुति है ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य पृथिवी तत्त्व, और उस से अग्नि द्वारा उत्पन्न पदार्थों के विवेक से श्रवणशक्ति बढ़ावें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(पृथिव्यै) भूलोकाय (श्रोत्राय) श्रवणहिताय (वनस्पतिभ्यः) अ० १।३५।३। सेवकपालकेभ्यो वृक्षादिभ्यः। तेषां हितायेत्यर्थः (अग्नये) पृर्थिवीस्थतेजसे (अधिपतये) पृथिव्या रक्षकाय (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाणी सुन्दरस्तुतिः ॥

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    विषय

    पृथिवी, अन्तरिक्ष, धुलोक

    पदार्थ

    १. मैं (पृथिव्यै) = इस पृथिवी के लिए (स्वाहा) = अपना अर्पण करता हूँ। भूमि को माता मानता हुआ उसकी गोद में बैठता हूँ। यहाँ श्रोत्राय वाणी द्वारा उच्चरित ज्ञान के श्रवण के लिए अपने को अर्पित करता हूँ। ज्ञान की बातों को सुनना ही मेरा मुख्य कार्य होता है। यहाँ वनस्पतिभ्यः-वनस्पतियों के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ-वानस्पतिक पदार्थों को ही खाता हूँ और उनके द्वारा शरीर में उत्पन्न अनये-अग्नितत्त्व के लिए अपना अर्पण करता हूँ। यह अग्नितत्व ही तो अधिपतये-इस पृथिवी का अधिपति है। शरीर का मुख्य रक्षक यह अग्नितत्व ही है।

     

    २. अन्तरिक्षाय-मैं हृदयान्तरिक्ष के लिए स्वाहा-अपना अर्पण करता हूँ। इस हृदयान्तरिक्ष में मुख्यरूप से अपना कार्य करनेवाले प्राणाय-प्राण के लिए अपना अर्पण करता हूँ प्राणसाधना में प्रवृत्त होता हूँ। वयोभ्य:-इन प्राणों को पक्षी-तुल्य जानता हुआ इन पक्षियों के लिए अपना अर्पण करता हूँ। मैं यह भूलता नहीं कि 'पक्षियों की भाँति ये प्राण न जाने कब उड़ जाएँ'। इस हृदयान्तरिक्ष के वायवे अधिपतेय-अधिपति वायु के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। जहाँ तक सम्भव होता है शुद्ध वायु मैं ही सञ्चार करता हूँ।

     

    ३. दिवे- द्युलोक के लिए स्वाहा-मैं अपना अर्पण करता हूँ। मस्तिष्क ही द्युलोक है। इसमस्तिष्करूप द्युलोक में चक्षु ही सूर्य है, उस चक्षुषे चक्षु के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। चक्षु से देखकर ही मार्ग में चलता हूँ- 'दृष्टिपूतं न्यसेत्पादम् ।' नक्षत्रेभ्यः-नक्षत्रों के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ, सूर्याय अधिपतेय अधिपति सूर्य के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। मैं अपने द्युलोकरूप मस्तिष्क में विज्ञान के नक्षत्रों व ज्ञान के सूर्य को उदित करने का प्रयत्न करता हूँ।

    भावार्थ

    स्त्री में प्रजा-रक्षण की प्रबल भावना हो, वह पति के साथ अनुकूल बुद्धिवाली हो तथा प्रशस्त अन्नों का सेवन करती हो तो वह प्रायः नर - सन्तान को जन्म देती है।

    विशेष

    अपने  जीवन को उत्तम बनाता हुआ उत्तम सन्तान का निर्माता 'प्रजापति' अगले सूक्त का ऋषि है |

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    भाषार्थ

    "पृथिवी के लिये, श्रोत्र, के लिये, वनस्पतियों के लिये, अधिपति अग्नि के लिये स्वाहा हो [हविः की आहुतियां हों"]।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में पृथिवी आदि का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है, ताकि मन्त्रों में किसी एक के श्रवण द्वारा तत्सम्बन्धी अन्य तत्त्वों का स्मरण हो सके। पृथिवी सम्बन्धी अन्य तत्व हैं श्रोत्र, वनस्पतियां, तथा अग्नि। पृथिवी पर ही श्रवणशक्ति सम्पन्न प्राणी रहते हैं। अतः पृथिवी के साथ श्रोत्र का सम्बन्ध कहा है]।

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    विषय

    अग्निहोत्र का उपदेश।

    भावार्थ

    सम्पत्ति चाहने वाले के लिये अग्निहोत्र का उत्तम उपदेश करते हैं। (पृथिव्यै स्वाहा) इस विशाल पृथिवी के लिये उत्तम हवि की आहुति दें। (श्रोत्राय स्वाहा) पृथिवी के श्रोत्र रूप दिशाओं के लिये भी उत्तम आहुतियों का प्रदान करो। (वनस्पतिभ्यः स्वाहा) वनस्पतियों के लिये भी पुष्टिकारक घृत की आहुति प्रदान करो। (अधिपतये अग्नये स्वाहा) पृथिवी के स्वामी अग्नि देव के लिये भी उत्तम हवि अर्थात् वृत की आहुति प्रदान करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिऋषिः। १ अग्निः। २ वायुः। ३ सूर्यः १ साम्नी त्रिष्टुप्। २ प्राजापत्या बृहती। साम्नी बृहती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Physiopsychic Interaction

    Meaning

    Homage to earth, ear, herbs and trees and Agni, presiding power of the earth.

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    Subject

    Agni

    Translation

    For hearing (srotraya) to the earth, to the vegetation, and to the fire, their overlord, I dedicate.

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    Translation

    We appreciate the utility and purpose of earth, ear, tries and fire which is the controlling power. Whatever is uttered here in is true.

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    Translation

    Offer butter oblation for the good of the vast Earth, for directions, the ears of the Earth, for the plants, for fire the lord of Earth!

    Footnote

    Havan should be performed for purifying the earth and all its directions, for the rapid and abundant growth of plants, and for preventing the pollution of air, through purified smoke arising out of fire.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(पृथिव्यै) भूलोकाय (श्रोत्राय) श्रवणहिताय (वनस्पतिभ्यः) अ० १।३५।३। सेवकपालकेभ्यो वृक्षादिभ्यः। तेषां हितायेत्यर्थः (अग्नये) पृर्थिवीस्थतेजसे (अधिपतये) पृथिव्या रक्षकाय (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाणी सुन्दरस्तुतिः ॥

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