अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - पिप्पली
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पिप्पलीभैषज्य सूक्त
1
पि॑प्प॒ली क्षि॑प्तभेष॒ज्यु॒ताति॑विद्धभेष॒जी। तां दे॒वाः सम॑कल्पयन्नि॒यं जीवि॑त॒वा अल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठपि॒प्प॒ली । क्षि॒प्त॒ऽभे॒ष॒जी । उ॒त । अ॒ति॒वि॒ध्द॒ऽभे॒ष॒जी । ताम् । दे॒वा: । सम् । अ॒क॒ल्प॒य॒न् । इ॒यम् । जीवि॑त॒वै । अल॑म् ॥१०९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पिप्पली क्षिप्तभेषज्युतातिविद्धभेषजी। तां देवाः समकल्पयन्नियं जीवितवा अलम् ॥
स्वर रहित पद पाठपिप्पली । क्षिप्तऽभेषजी । उत । अतिविध्दऽभेषजी । ताम् । देवा: । सम् । अकल्पयन् । इयम् । जीवितवै । अलम् ॥१०९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रोग के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(पिप्पली) पालन करनेवाली, पिप्पली [ओषधिविशेष] (क्षिप्तभेषजी) विक्षिप्त, उन्मत्त की ओषधि, (उत) और (अतिविद्धभेषजी) बड़े घाववाले की ओषधी है। (देवाः) विद्वानों ने (ताम्) उसको (सम् अकल्पयन्) अच्छे प्रकार माना है कि (इयम्) यह (जीवितवै) जिलाने के लिये (अलम्) समर्थ है ॥१॥
भावार्थ
जिस प्रकार पीपली, ओषधिविशेष के सेवन से अनेक रोग की निवृत्ति होती है, वैसे ही मनुष्य कर्मों के फलभोग से सुख पावें ॥१॥ पिप्पली के गुण ज्वर, कुष्ठ, प्रमेह, गुल्म, अर्श, प्लीह, शूल, आम आदि रोगों का नाश करना है−शब्दकल्पद्रुम ॥
टिप्पणी
१−(पिप्पली) कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। इति पा पालने, वा पॄ पालनपूरणयोः−कल। पृषोदरादिरूपम्, ङीप्। पालयित्री पूरयित्री वा। ओषधिविशेषा। अस्या गुणा ज्वरकुष्ठादिनाशकाः (क्षिप्तभेषजी) विक्षिप्तस्योन्मत्तस्य रोगनिवर्तिका (उत) अपिच (अतिविद्वभेषजी) व्यध ताडने−क्त। अतिक्षतस्य पुरुषस्य व्याधिनिवर्तिका (ताम्) (देवाः) वैद्याः (सम्) सम्यक् (अकल्पयन्) कल्पितवन्तः (इयम्) पिप्पली (जीवितवै) जीव प्राणधारणे णिचि तुमर्थे तवै प्रत्ययः। जीवयितुम् (अलम्) समर्था। पर्य्याप्ता ॥
विषय
क्षिप्तभेषजी अतिविद्धभेषजी
पदार्थ
१. (पिप्पली) = यह 'कणा' आदि नामोंवाली ओषधि (क्षिप्तभेषजी) = [क्षितानि अन्यानि भेषजानि यया] अन्य सब ओषधियों को तिरस्कृत करनेवाली है-सबसे श्रेष्ठ है, अथवा [क्षिसस्य भेषजी] वातरोगनाशक है (उत) = और (अतिविद्धभेषजी) = [कृत्स्नं रोग अतिविध्यति निपीडयति इति अतिविद्धा, सा चासो भेषज:] सब रोगों का अतिशयेन वेधन करनेवाली औषध है, अथवा 'क्षिस' रोग को दूर करनेवाली है, जिसमें कि रोगी वेदना से हाथ-पैर पटका करता है। यह 'अतिविद्ध' रोग को भी दूर करती है जिसमें जाँघ में तीव्र वेदना होती है। २. (ताम) = उस पिप्पली को (देवा:) = वायु-सूर्य आदि सब देव (समकल्पयन्) = बड़ा शक्तिशाली बनाते हैं। (इयम्) = यह (जीवितवै अलम्) = जिलाने के लिए पर्याप्त है।
भावार्थ
पिप्पली नामक ओषधि क्षिस व अतिविद्ध' आदि रोगों को दूर करती हुई दीर्घ जीवन का कारण बनती है।
भाषार्थ
(पिप्पली) पिपली (क्षिप्तभेषजी) विक्षिप्त चित्त की, या शरीराङ्गों के विक्षेप अर्थात् हिलते-जुलते रहने की (उत) तथा (अतिविद्धभेषजी) वाण आदि द्वारा गहरा वेध हो जाने की औषध है। (देवाः) दिव्यगुणी वैद्यों ने (ताम्) उस पिप्पली को (समकल्पयन्) सामर्थ्ययुक्त माना कि (इयम्) यह (जीवितवे) जीने के लिये (अलम्) पर्याप्त है।
टिप्पणी
[जीवितवै= तुमर्थे "तवै" प्रत्ययः। जीवित रखने के लिये। सम् अकल्पयन् = कृपू सामर्थ्ये (भ्वादिः)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Pippali Oshadhi
Meaning
Pippali is the cure for distracted, disrupted and extremely afflicted states of body and mind of patients: this the brilliant scholars and specialists accept, and declare that it is efficacious for the life and health of patients of leprosy and urinary, stomach and glandular disorders. Such they have prepared it.
Subject
Pippali
Translation
The pippali (berry, the fruit of Asvattha) is a remedy for mental diseases and a thorough cure. This the enlightened ones have prepared. This is sufficient to keep a patient alive.
Translation
This piper longum is the medicine of pain and it is the medicine of acute pain of moving nature, the learned physician realizes that this is sufficiently effective for the life.
Translation
Pippali heals insanity; it heals the deeply-piercing wound. The physicians prepared and fashioned it. This hath sufficient power for longevity.
Footnote
Pippali मघ heals fever, urinary diseases, spleen, piles, constipation and excruciating pain, vide Shabd Kalp Druma. In Raj Nighantu, the following names have been given to this medicine, Ashwathi, Laghuputri, Sayat, Patrikā, Harasvā Patrikā, Pippalikā, Vanasthā, Ashwatha, Sannibha, Kshudrā, It is sweet in taste, removes bile, purifies blood, cures poison, and heals wounds.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(पिप्पली) कलस्तृपश्च। उ० १।१०४। इति पा पालने, वा पॄ पालनपूरणयोः−कल। पृषोदरादिरूपम्, ङीप्। पालयित्री पूरयित्री वा। ओषधिविशेषा। अस्या गुणा ज्वरकुष्ठादिनाशकाः (क्षिप्तभेषजी) विक्षिप्तस्योन्मत्तस्य रोगनिवर्तिका (उत) अपिच (अतिविद्वभेषजी) व्यध ताडने−क्त। अतिक्षतस्य पुरुषस्य व्याधिनिवर्तिका (ताम्) (देवाः) वैद्याः (सम्) सम्यक् (अकल्पयन्) कल्पितवन्तः (इयम्) पिप्पली (जीवितवै) जीव प्राणधारणे णिचि तुमर्थे तवै प्रत्ययः। जीवयितुम् (अलम्) समर्था। पर्य्याप्ता ॥
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