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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - उन्मत्ततामोचन सूक्त
    1

    इ॒मं मे॑ अग्ने॒ पुरु॑षं मुमुग्ध्य॒यं यो ब॒द्धः सुय॑तो॒ लाल॑पीति। अतोऽधि॑ ते कृणवद्भाग॒धेयं॑ य॒दानु॑न्मदि॒तोऽस॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । मे॒ । अ॒ग्ने॒ । पुरु॑षम् । मु॒मु॒ग्धि॒ । अ॒यम् । य: । ब॒ध्द: । सुऽय॑त: । लाल॑पीति ।अत॑: । अधि॑ । ते॒ । कृ॒ण॒व॒त् । भा॒ग॒ऽधेय॑म् । य॒दा । अनु॑त्ऽमदित: । अस॑ति ॥१११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं मे अग्ने पुरुषं मुमुग्ध्ययं यो बद्धः सुयतो लालपीति। अतोऽधि ते कृणवद्भागधेयं यदानुन्मदितोऽसति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । मे । अग्ने । पुरुषम् । मुमुग्धि । अयम् । य: । बध्द: । सुऽयत: । लालपीति ।अत: । अधि । ते । कृणवत् । भागऽधेयम् । यदा । अनुत्ऽमदित: । असति ॥१११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 111; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    मानसविकार के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् पुरुष ! (मे) मेरे लिये (इमम् पुरुषम्) इस पुरुष को [आत्मा को] (मुमुग्धि) मुक्त कर, (अयम् यः) यह जो [जीव] (बद्धः) बँधा हुआ और (सुयतः) बहुत जकड़ा हुआ (लालपीति) अत्यन्त बर्बराता है। (अतः) फिर यह (ते) तेरे (भागधेयम्) सेवनीय भाग को (अधि) अधिकारपूर्वक (कृणवत्) करे, (यदा) जब वह (अनुन्मदितः) उन्मादरहित (असति) हो जावे ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से दुष्टकर्म छोड़ कर सावधान होकर धार्मिक कर्म करे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(इमम्) समीपस्थम् (मे) मह्यम् (अग्ने) विद्वन् (पुरुषम्) आत्मानम् (मुमुग्धि) मोचय (अयम्) (यः) (बद्धः) बन्धं गतः (सुयतः) यम उपरमे−क्त। दृढप्रतिरुद्धः (लालपीति) भृशं प्रलपति (अतः) मोचनानन्तरम् (अधि) अधिकृत्य (ते) तव (कृणवत्) कुर्य्यात् (भागधेयम्) सेवनीयं कर्म (यदा) (अनुन्मदितः) अनुन्मत्तः उन्मादरहितः (असति) भवेत् ॥

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    विषय

    अनुन्मदितः

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (इमं मे पुरुषम्) = मेरे इस पुरुष को (मुमुग्धि) = रोगों के कारणभूत पापों से मुक्त कीजिए। (अयम्) = यह (य:) = जो (बद्धः) = इन्द्रियों से बद्ध हुआ-हुआ (सुयत:) = विषयों से खूब ही जकड़ा हुआ-इन्द्रियों जिसके लिए ग्रह बनी हुई हैं और विषय अतिग्रह बने हुए हैं लालपीति-बहुत ही बड़बड़ाता है-असम्बद्ध प्रलाप करता है, इसे आप मुक्त कीजिए। २. (अतः) = अब (यदा अनुन्मदितः असति) = जब यह उन्मादरहित हो जाए तब (ते) = आपके (भागधेयम्) = भाग को (अधिकृणवत्) = अधिक करे, अर्थात् यह खूब ही आपका उपासन करे, जिससे पुन: उन्मादवाला न हो जाए।

    भावार्थ

    प्रभु की उपासना ही हमें विषयोन्माद से बचानेवाली औषध है।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि! (मे) मेरे (इमम्, पुरुषम्) इस पुरुष को (मुमुग्धि) मुक्त कर दे, (य:) जो (अयम्) यह (वद्धः) बन्धा हुआ, (सुयतः) ठीक जकड़ा हुआ (लालपीति) प्रलाप करता रहता है। (अतः अधि) अब से (ते) तेरे लिये हे अग्नि ! (भागधेयम्) भाग (कृणवत्) दिया करेगा, (यदा) जबकि (अनुन्मदितः) यह उन्माद से रहित (असति) हो जायगा।

    टिप्पणी

    [उत्पाद= काम क्रोध भय आदि द्वारा चित्तसम्मोह, पागलपन, चित्तविभ्रम, बुद्धिस्खलन हो जाता है। मन्त्र में यज्ञिय अग्नि को कविता शैली में सम्बोधित किया है। यदानुन्मदितः= उन्मादावस्था में तो हे यज्ञिय अग्नि ! यह तेरे लिये हविर्भाग देने में असमर्थ है। उन्माद से रहित हो कर यह उन औषधों से आहुतियां तेरे प्रति नियमतः दिया करेगा जिससे उन्माद का पुनः आक्रमण न हो सके। औषधों की आहुतियों से उत्थित धूम फेफड़ों में जाकर रक्त में मिल जाता है, जिससे उन्माद आदि रोग शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।]

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    विषय

    बद्ध जीव की मुक्ति और उन्माद की चिकित्सा।

    भावार्थ

    बद्ध जीव की मुक्ति के साथ साथ पागलपन रोगनिवृत्ति का भी उपाय बतलाते हैं—हे (अग्ने) अग्ने ! परमात्मन् या विद्वन् ! आचार्य ! (यः) जो (बद्धः) बन्धन में बंधा हुआ यह आत्मा (सुयतः) अपनी कर्म वासनाओं में खूब फँसा हुआ होने के कारण (लालपीति) बहुत बकता-झकता है उस (इमम्) इस (मे) मेरे (पुरुषम्) पुरुष, आत्मा को (मुमुग्धि) बन्धन से मुक्त कर। (अतः) इसी प्रयोजन से हे (अग्ने) परमात्मन् ! विद्वन् ! यह जीव (यदा) जिस समय (अनुन्मदित:) उन्माद = पागलपन, अविवेक से रहित (असति) हो जाय तब (ते) तेरा (भागधेयम्) भजन (अधि कृणवत्) करे। कर्मबन्धन में फँसा जीव बौराये हुए पागल के समान भटकता और बकता है। ईश्वर करे वह जीव मुक्त हो और जब कभी उसको अपने चित्त में शान्ति प्राप्त हो वह ईश्वर का अधिक भजन किया करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २-४ अनुष्टुभौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Bondage

    Meaning

    O Agni, release this person to freedom from bondage of body, mind and soul. He is bound, wholly possessed, and he mumbles and mutters deliriously. Pray do it for my sake, and when he is out of this delirium, he would render unto you whatever is due.

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    Subject

    Agni

    Translation

    O adorable Lord, may you free from disease this man of ming, who tied down and well-restrained talks deliciously. For this reason, let him make share of offerings for you, so that he may be cured (freed from) of his mania. (anunmadito sati)

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    Translation

    Free from madness O learned physician! This is my man who bound and well-restrained chatters madly. When he is delivered from his madness, will offer you your portion.

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    Translation

    Unbind and loose for me this soul, O God, who bound and wel-res-trained, is chattering foolishly. Afterward he will worship Thee more eagerly, when he hath been delivered from his ignorance through salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(इमम्) समीपस्थम् (मे) मह्यम् (अग्ने) विद्वन् (पुरुषम्) आत्मानम् (मुमुग्धि) मोचय (अयम्) (यः) (बद्धः) बन्धं गतः (सुयतः) यम उपरमे−क्त। दृढप्रतिरुद्धः (लालपीति) भृशं प्रलपति (अतः) मोचनानन्तरम् (अधि) अधिकृत्य (ते) तव (कृणवत्) कुर्य्यात् (भागधेयम्) सेवनीयं कर्म (यदा) (अनुन्मदितः) अनुन्मत्तः उन्मादरहितः (असति) भवेत् ॥

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