अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
त्रि॒ते दे॒वा अ॑मृजतै॒तदेन॑स्त्रि॒त ए॑नन्मनु॒ष्येषु ममृजे। ततो॒ यदि॑ त्वा॒ ग्राहि॑रान॒शे तां ते॑ दे॒वा ब्रह्म॑णा नाशयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒ते । दे॒वा: । अ॒मृ॒ज॒त॒ । ए॒तत् । एन॑: । त्रि॒त: । ए॒न॒त् । म॒नु॒ष्ये᳡षु । म॒मृ॒जे॒ । तत॑: । यदि॑। त्वा॒ । ग्राहि॑: । आ॒न॒शे । ताम् । ते॒ । दे॒वा: । ब्रह्म॑णा । ना॒श॒य॒न्तु॒ ॥११३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिते देवा अमृजतैतदेनस्त्रित एनन्मनुष्येषु ममृजे। ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिते । देवा: । अमृजत । एतत् । एन: । त्रित: । एनत् । मनुष्येषु । ममृजे । तत: । यदि। त्वा । ग्राहि: । आनशे । ताम् । ते । देवा: । ब्रह्मणा । नाशयन्तु ॥११३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप शुद्ध करने का उपदेश।
पदार्थ
(त्रिते) तीनों कालों वा लोकों में फैले हुए त्रित परमात्मा के बीच [वर्तमान] (देवाः) विद्वानों ने (एतत्) इस (एनः) पाप को (अमृजत) शुद्ध किया है, (त्रितः) त्रिलोकीनाथ त्रित परमेश्वर ने (एनत्) इस [पाप] को (मनुष्येषु) मनुष्यों में [ज्ञान द्वारा] (ममृजे) शोधा है। [हे मनुष्य !] (ततः) इस पर भी (यदि) जो (त्वा) तुझको (ग्राहिः) जकड़नेवाली पीड़ा [गठिया आदि] ने (आनशे) घेर लिया है, (देवाः) विद्वान् लोग (ते) तेरा (ताम्) उस [पीड़ा] को (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (नाशयन्तु) नाश करें ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा ने वेद द्वारा मनुष्य को पापनाश का उपाय बताया है, यह बात साक्षात् करके विद्वानों ने अपने दोष नाश किये हैं, इतना जानने पर भी यदि मनुष्य पाप में फँसे तो विद्वानों से पूछकर दोषनिवृत्ति करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(त्रिते) अ० ५।१।१। त्रि+तनु विस्तारे−ड। त्रिषु कालेषु लोकेषु वा विस्तीर्णे परमेश्वरे वर्त्तमानाः (देवाः) विद्वांसः (अमृजत) मृजू शौचालङ्कारयोः। शोधितवन्तः (एतत्) आत्मनि वर्त्तमानम् (एनः) अ० २।१०।८। पापम् (त्रितः) त्रिलोकीनाथः (एनत्) पापम् (मनुष्येषु) (ममृजे) मृष्टवान् (ततः) तदनन्तरमपि (यदि) (त्वा) (ग्राहिः) अ० २।९।१। अङ्गग्रहीत्री पीडा (आनशे) अश्नोतेश्च। पा० ७।४।७२। इत्यभ्यासादुत्तरस्य नुट्। व्याप (ताम्) ग्राहिम् (ते) तव (देवाः) विद्वांसः (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (नाशयन्तु) ॥
विषय
त्रित में पाप का शोधन
पदार्थ
१. (त्रिते) = [श्रीन् लोकान् तनोति] त्रिलोकी का विस्तार करनेवाले प्रभु में प्रभु की उपासना में (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (एतत् एन:) = इस पाप को (अमृजत) = शुद्ध कर डालते हैं, प्रभु की उपासना से पाप को अपने से दूर कर देते हैं। (त्रित:) = त्रिलोकी का विस्तारक प्रभु (मनुष्येषु) = मनुष्यों में स्थित (एनत्) = इस पाप को (ममृजे) = दूर कर देता है-प्रभु पाप का सफाया कर देते हैं। २. (ततः) = तब (यदि) = यदि (त्वा) = तुझे (ग्राही) = जकड़ लेनेवाला कोई रोग (आनशे) = व्याप्त कर लेता है तो (देवा:) = ज्ञानी पुरुष तथा सूर्य-चन्द्र आदि देव (ते ताम्) = तेरी उस व्याधि को (ब्रह्मणा नाशयन्तु) = ज्ञान के द्वारा नष्ट कर डालें।
भावार्थ
प्रभु उपासना में चलने से मनुष्य पापों से बचेगा, तब रोग भी उसे पीड़ित नहीं करेंगे। सहसा कोई रोग आ भी जाए तो ज्ञानी पुरुष ज्ञान के द्वारा उस रोग को नष्ट करने में यत्नशील हों।
भाषार्थ
(देवाः) विद्वानों ने (त्रिते) तीन अवयवों वाले विस्तृत प्रकृतितत्व में (एतत् एनः) इस पाप को (अमृजत) झाड़ कर विशुद्ध कर लिया, (त्रितः)१ त्रित नामक प्रकृतितत्त्व ने (एनत्) इस पाप को (मनुष्येषु) मनुष्यों में (ममृजे) झाड़ कर अपने को विशुद्ध कर लिया। (ततः) उन मनुष्यों में से (यदि) यदि (ग्राहिः) पाप की जकड़न ने (त्वा) तुझे (आ नशे) आ घेरा है, तो (ते ताम्) तेरी उस ग्राही को जकड़न को, (देवाः) वैदिक विद्वान् (ब्रह्मणा) वेदोक्त विधि द्वारा (नाशयन्तु) नष्ट कर दें।
टिप्पणी
[विद्वांसो वे देवाः (शत० ३।७।३।१०), अर्थात् वैदिक विद्वान्। इन वैदिक विद्वानों ने स्वनिष्ठ पाप को बैदिकविधान द्वारा नष्ट कर दिया और कहा कि पाप प्रकृति तत्त्व का परिणाम है। जीवात्मा तो विशुद्ध है, उस के साथ जब प्रकृति तत्त्व का सम्बन्ध होता है तब जीवात्मा पाप में प्रवृत्त होता है। परन्तु प्रकृति-तत्त्व ने पाप करने में अपराधी मनुष्यों को माना। प्रकृतितत्त्व तो जड़ है। जब चेतन का सम्पर्क जड़ प्रकृति-तत्त्व के साथ होता है तब ही पाप हो सकता है। इस प्रकार पाप करने वाले मनुष्यों के साथ जब संसार में नवागत मनुष्य का सम्पर्क होता है तब उसे भी पापग्राही आ घेरती है। वैदिक विद्वान् वैदिक शिक्षा द्वारा तब उस के पाप को विनष्ट कर देते हैं यह भाव मन्त्र का है। आ नशे= नशत् व्याप्तिकर्मा (निघं० २।१८)। अमृजत, ममृजे= मृजूष शुद्धौ (अदादिः)।] [१. त्रितः = त्रि + तम् (विस्तारे) + (औणादिक), डित्वात् टिलोप:। प्रकृतितत्त्व तीन अवयवों में विस्तृत है, सत्त्व, रजस् और तमस् अवयवों में। ]
विषय
पाप अपराध का विवेचन और दण्ड।
भावार्थ
पूर्व ज्येष्ठ भाई की हत्या के पाप की विवेचना करते हैं—(देवाः) विद्वान् व्यवहाराधिकारी शासक लोग (एतद् एनः) उस ज्येष्ठ भ्राता की हत्या के अपराध को (त्रिते) प्रथम उक्त तीनों व्यक्तियों—छोटा भाई, पिता और माता इन तीनों पर ही (अमृजत) लगाते हैं। (त्रितः) ये तीनों (एतत्) इस अपराध को (मनुष्येषु) अन्य मनुष्यों पर (ममृजे) लगाने का यत्न करते हैं। तो हे अपराधी ! (यदि) अगर (त्वा) तुझ पर (ग्राहिः आनशे) इस अपराध के कारण कैद आ जाय तो (तां) उस कैद को (ते देवा:) विद्वान् ब्राह्मण ब्रह्म-सत्य व्यवस्था के द्वारा ही (नाशयन्तु) दूर करें। अर्थात् वे ही यथार्थ अपराधी का पता लगा कर अपराधी को पकड़ें और निरपराधी लोगों को मुक्त करें।
टिप्पणी
(तृ०) ‘ततो मायादि किंचिमानशे’ इति तै०ब्रा०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। पूषा देवता। १,२ त्रिष्टुभौ। पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom by Knowledge
Meaning
Divinities cleanse life from sin and evil throughout the three phases of time, past, present and future. The Lord of past, present and future, removes this sin and evil from among humans too. For this reason, O man, if ever sin and evil come and take you on, let the Devas, brilliant sages, wash that away and cleanse you with Vedic knowledge.
Subject
Pusan
Translation
The enlightened ones wiped off this sin and laid it on the mind (trita); the trita (mind) wiped it off and laid it on man. If due to that, any disease has seized you, may the enlightened ones, with their knowledge, make that vanish from you.
Translation
The physical forces-limbs, senses etc. wiped of the sin and laid it oo the soul which resides in three bodies—the gross-body, the astral body and the causal-body. This soul laid the sin on the minds of the men. O man! if through that there comes bondage to you let the learned persons destroy that bondage by the knowledge of Vedic speeches.
Translation
Through the grace of God, the sages have wiped off this sin, and God has wiped off this sin from amongst human beings. Even then, O man if thou art awarded imprisonment for this sin, the learned through Vedic knowledge shall remove it and free thee!
Footnote
This sin: Usurpation of the rights of the elder brother. Trita means God, Who is present in Past, Present and Future, and in the three regions, Earth, Heaven and Space. Sageş and God condemn this sin. If one is caught in it and punished he should seek the advice of the learned for future guidance or release from captivity if he is innocent.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(त्रिते) अ० ५।१।१। त्रि+तनु विस्तारे−ड। त्रिषु कालेषु लोकेषु वा विस्तीर्णे परमेश्वरे वर्त्तमानाः (देवाः) विद्वांसः (अमृजत) मृजू शौचालङ्कारयोः। शोधितवन्तः (एतत्) आत्मनि वर्त्तमानम् (एनः) अ० २।१०।८। पापम् (त्रितः) त्रिलोकीनाथः (एनत्) पापम् (मनुष्येषु) (ममृजे) मृष्टवान् (ततः) तदनन्तरमपि (यदि) (त्वा) (ग्राहिः) अ० २।९।१। अङ्गग्रहीत्री पीडा (आनशे) अश्नोतेश्च। पा० ७।४।७२। इत्यभ्यासादुत्तरस्य नुट्। व्याप (ताम्) ग्राहिम् (ते) तव (देवाः) विद्वांसः (ब्रह्मणा) वेदज्ञानेन (नाशयन्तु) ॥
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