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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 116/ मन्त्र 3
    ऋषिः - जाटिकायन देवता - विवस्वान् छन्दः - जगती सूक्तम् - मधुमदन्न सूक्त
    2

    यदी॒दं मा॒तुर्यदि॑ पि॒तुर्नः॒ परि॒ भ्रातुः॑ पु॒त्राच्चेत॑स॒ एन॒ आग॑न्। याव॑न्तो अ॒स्मान्पि॒तरः॒ सच॑न्ते॒ तेषां॒ सर्वे॑षां शि॒वो अ॑स्तु म॒न्युः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑। इ॒दम् । मा॒तु: । यदि॑ । वा॒ । पि॒तु: । न॒: । परि॑ । भ्रातु॑: । पु॒त्रात् । चेत॑स: । एन॑: । आ॒ऽअग॑न् । याव॑न्त: । अ॒स्मान् । पि॒तर॑: । सच॑न्ते । तेषा॑म् । सर्वे॑षाम् । शि॒व: । अ॒स्तु॒ । म॒न्यु: ॥११६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदीदं मातुर्यदि पितुर्नः परि भ्रातुः पुत्राच्चेतस एन आगन्। यावन्तो अस्मान्पितरः सचन्ते तेषां सर्वेषां शिवो अस्तु मन्युः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। इदम् । मातु: । यदि । वा । पितु: । न: । परि । भ्रातु: । पुत्रात् । चेतस: । एन: । आऽअगन् । यावन्त: । अस्मान् । पितर: । सचन्ते । तेषाम् । सर्वेषाम् । शिव: । अस्तु । मन्यु: ॥११६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 116; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पाप से निवृत्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) जो (मातुः) माता के प्रति, (यदि वा) अथवा, (पितुः) पिता के प्रति, (भ्रातुः) भ्राता के प्रति, अथवा (पुत्रात्) पुत्र के प्रति (नः) हमारे (चेतसः) चित्त से (इदम्) यह (एनः) पाप (परि) सब ओर से (आगन्) हो गया है। (यावन्तः) जितने (पितरः) पिता के समान माननीय (अस्मान्) हमको (सचन्ते) सदा मिलते हैं [उनके विषय में भी जो पाप हुआ है], (तेषाम् सर्वेषाम्) उन सब का (मन्युः) क्रोध (शिवः) शान्त (अस्तु) होवे ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य सब कुटुम्बियों और सब मान्यपुरुषों को सदा प्रसन्न रक्खें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यदि) इदम् (मातुः) म० २। मातरं प्राप्य (यदि वा) (पितुः) पितरं प्राप्य (भ्रातुः) भ्रातरं प्राप्य (नः) अस्माकम् (चेतसः) चित्तात् (परि) सर्वतः (एनः) पापम् (आगन्)−म० २। आगमत् (यावन्तः) यत्परिमाणाः (अस्मान्) (पितरः) पितृवद् मान्याः (सचन्ते) समवयन्ति। संगच्छन्ते (तेषाम् सर्वेषाम्) (शिवः) शान्तः (अस्तु) (मन्युः) क्रोधः ॥

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    विषय

    अतिथियज्ञावशिष्ट अन्न का सेवन

    पदार्थ

    १. (यदि) = यदि (इदम्) = यह (मातुः) = माता से (यदि वा) = अथवा यदि (पितुः) = पिता से (न:) = हमें (एनः आगन्) = पाप प्राप्त हुआ है, अर्थात् उनका उचित आदर न करने से हमें दोष लगा है। (भ्रातु:) = भ्राता से परि अन्य परिजनों से (पुत्रात्) = पुत्र से तथा (चेतसः) = ज्ञान देनेवाले आचार्य से [चेतयति] हमें पाप प्राप्त हुआ है, अर्थात् इन्हें अन्नभाग न देने से जो दोष हमें लगा है, वह सब अन्न का भाग करनेवाले हमसे दूर हो। २. (यावन्त:) = जितने भी (पितर:) = पालक लोग हमारे बड़े (अस्मान्) = हमें (सचन्ते) = प्राप्त होते हैं, (तेषां सर्वेषाम्) = उन सबका (मन्यु:) = क्रोध (शिव: अस्तु) = शान्त हो [शो तनूकरणे]। हम उनका अन्न आदि द्वारा उचित आदर करें और कभी भी उनके क्रोध के पात्र न हों।

    भावार्थ

    हम माता-पिता, भाई, पुत्र व आचार्य आदि को खिलाकर बचे हुए को ही खाएँ। अतिथियज्ञ को भी महत्त्व दें। यह यज्ञशेष सेवन हमारे लिए अमृत-सेवन होगा।

    विशेष

    यज्ञशेष-अमृत का सेवन करनेवाला यह व्यक्ति सब बुराइयों को समाप्त करके 'कौशिक' बनता है [कु+शो तनूकरणे-बुराई को क्षीण करनेवाला]। यही अगले पाँच सूक्तों का ऋषि है।

     

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    भाषार्थ

    (यदि) यदि (इदम्) यह (एनः) पापयुक्त अन्न (चेतसः) ज्ञानवाली (मातुः) माता से, (यदि वा) अथवा (पितुः) पिता से, (परि भ्रातुः) भ्राता से, (पुत्रात् च) और पुत्र से (नः) हमें (आगन्) आया है, प्राप्त हुआ है, (यावन्तः) जितने भी (पितरः१) रक्षक अर्थात हमारे पालक (अस्मान् सचन्ते) हमारे सम्बन्धी हैं (तेषाम् सर्वेषाम्) उन सब का (मन्युः) हमारे प्रति किया क्रोध (शिवः२) कल्याणकारी अर्थात् सुखदायक (अस्तु) हो, अर्थात् हमारे लिये दुःखदायक न हो।

    टिप्पणी

    [चेतसः का सम्बन्ध माता, पिता, भाई, पुत्र, इन सब के साथ है, अर्थात् ये सब यह जानते हैं कि कृषि से प्राप्त अन्न की आहुतियां प्रथम परमेश्वर को समर्पित कर कृष्यन्न का भोग करना चाहिये। परन्तु इन सब ने जानते हुए भी समर्पण नहीं किया। अतः इन द्वारा प्राप्त अन्न एनः है, पापयुक्त है। ऐसा अन्न न ग्रहण करने पर, अन्न के लिए परवशी हम, इन सब के मन्यु के पान बने हैं। शिवम् सुखनाम (निघं० ३।६)।] [१. यह कथन स्वभावसिद्ध है। ये हमारे पितर है, रक्षक है, अत: उन का मन्यु ऐसा न होगा, जो कि दुःखदायक हो। २. इदं तत् अनृण:= अयं सः अहम् अनृणः। "इदानीं तेन ऋणेन अनृणः" (सायणः)।]

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    विषय

    पाप से मुक्त होने का उपदेश।

    भावार्थ

    (यदि) यदि (इदं एनः) यह पाप, दोष (मातुः) माता के (यदि वा) अथवा (पितुः) पिता के या (नः) हमारे (भ्रातुः) भाई के (चेतसः) चित्त से या (पुत्रात्) पुत्र की तरफ से (परि आ-अगन्) हम पर आवें तो (यावन्तः) जितने भी (पितरः) पालक पिता लोग-पिता, माता, गुरु, आचार्य, राजा आदि आदरणीय पुरुष और जो भी (अस्मान्) हमारे (सचन्ते) संगी हैं (तेषां सर्वेषाम्) उन सब का (मन्युः) क्रोध या चित्त (शिवः अस्तु) हमारे लिए शांत होकर हमें कल्याणकारी हो। जिसको भाग नहीं प्राप्त होता वही हम पर अपने भाग को हड़प जाने का दोष लगावेगा और हम पर क्रोध करेगा, वही वेद में ‘एनः’ कहा गया है। ऐसा ‘एस्’ दोष इनके चित्त से हम पर आ लगता है। अर्थात् उनका चित्त हम पर दोष आरोपण करता है। तब हिस्सा न पाकर जब कलह हो तो हमारे बड़े वृद्ध पुरुष ही उसको शांत करे और हमारा फैसला करा दिया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    जारिकायन ऋषिः। विवस्वान् देवता। १-३ जगत्यौ। २ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Our Share Vs Sin

    Meaning

    If this sinful share comes to us from mother or from father or from brother, or from son, or even from our own mind’s ingenuity, then as long as the parental seniors are with us, may their mind and passion be at peace by God’s grace.

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    Translation

    If this sin has come from the thinking of our mother, or of the father, or of the brother, or of the son, then, may the righteous anger of all the elders, who visit us, be propitious to us. (Sivah astu manyuh).

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    Translation

    If this guilt or wrong comes to us from the heart of mother, if it comes from the heart of father or brother or it comes from the heart of son be auspicious the zeal and spirit of all the father, teacher, king and elders who are here among us.

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    Translation

    Whether this sin into our heart hath entered regarding mother, father, son or brother, may the wrath of all our elders related to us be appeased.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यदि) इदम् (मातुः) म० २। मातरं प्राप्य (यदि वा) (पितुः) पितरं प्राप्य (भ्रातुः) भ्रातरं प्राप्य (नः) अस्माकम् (चेतसः) चित्तात् (परि) सर्वतः (एनः) पापम् (आगन्)−म० २। आगमत् (यावन्तः) यत्परिमाणाः (अस्मान्) (पितरः) पितृवद् मान्याः (सचन्ते) समवयन्ति। संगच्छन्ते (तेषाम् सर्वेषाम्) (शिवः) शान्तः (अस्तु) (मन्युः) क्रोधः ॥

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