अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 119/ मन्त्र 1
ऋषिः - कौशिक
देवता - वैश्वानरोऽग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
1
यददी॑व्यन्नृ॒णम॒हं कृ॒णोम्यदा॑स्यन्नग्न उ॒त सं॑गृ॒णामि॑। वै॑श्वान॒रो नो॑ अधि॒पा वसि॑ष्ठ॒ उदिन्न॑याति सुकृ॒तस्य॑ लो॒कम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अदी॑व्यन् । ऋ॒णम् । अ॒हम् । कृ॒णोमि॑ । अदा॑स्यन् । अ॒ग्ने॒ । उ॒त । स॒म्ऽगृ॒णामि॑ । वै॒श्वा॒न॒र: । न॒: । अ॒धि॒ऽपा: । वसि॑ष्ठ: । उत् । इत् । न॒या॒ति॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् ॥११९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यददीव्यन्नृणमहं कृणोम्यदास्यन्नग्न उत संगृणामि। वैश्वानरो नो अधिपा वसिष्ठ उदिन्नयाति सुकृतस्य लोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अदीव्यन् । ऋणम् । अहम् । कृणोमि । अदास्यन् । अग्ने । उत । सम्ऽगृणामि । वैश्वानर: । न: । अधिऽपा: । वसिष्ठ: । उत् । इत् । नयाति । सुऽकृतस्य । लोकम् ॥११९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वचन के प्रति पालन का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वज्ञ परमेश्वर ! (अदीव्यन्) व्यवहार न करता हुआ (अहम्) मैं (यत्) जो (ऋणम्) ऋण (कृणोमि) करुँ (उत) अथवा (अदास्यन्) चुकाना न चाहता हुआ (संगृणामि) प्रण करूँ। (वैश्वानरः) सब नरों का स्वामी, (अधिपाः) अधिक पालन करनेवाला, (वसिष्ठः) अति उत्तम परमेश्वर (इत्) ही (नः) हमें (सुकृतस्य) पुण्य कर्म के (लोकम्) लोक [समाज] में (उन्नयाति) ऊँचा चढ़ावे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर को साक्षी करके पुरुषार्थपूर्वक माता-पिता आदि के ऋण को चुकावें और अपने वचन को मिथ्या न करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(यत्) (अदीव्यन्) व्यवहारम् अकुर्वन् (ऋणम्) (अहम्) (कृणोमि) करोमि (अदास्यन्) प्रतिदानम् अकरिष्यत् (अग्ने) हे सर्वज्ञ परमात्मन् (उत) अपि (संगृणामि) गॄ शब्दे। प्रतिजानामि (वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहित (नः) अस्मान् (अधिपाः) अधिकं पालयिता (वसिष्ठः) वसु−इष्ठन्। अतिश्रेष्ठः परमेश्वरः (इत्) एव (उन्नयाति) ऊर्ध्वं प्रापयेत् (सुकृतस्य) पुण्यकर्मणः (लोकम्) समाजम् ॥
विषय
ऋण न लेना
पदार्थ
१. (यत्) = जो (अदीव्यन्) = जीवकोपार्जन के लिए व्यवहार [कार्य] न करता हुआ (अहम्) = मैं (ऋणं कृणोमि) = अपने ऊपर ऋण कर लेता है। काम न करने पर खाने के लिए ऋण तो लेना ही पड़ता है, परन्तु यह ठीक नहीं। चाहिए तो यही कि पुरुषार्थ से ही धनार्जन किया जाए, किन्तु ऋण लेकर हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (उत) = यदि मैं (अदास्यन्) = उसे न लौटाता हुआ (संगृणामि) = केवल लौटाने की प्रतिज्ञा ही करता रहता हूँ तो (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों को हित करनेवाला अधिपा अधिष्ठातृरूपेण पालन करनेवाला (वसिष्ठः) = सबको बसानेवाला वह प्रभु (न:) = हमें (इत) = निश्चय से (उत् नयाति) = इन अशुभवृत्तियों से बाहर [out] ले-चलता है और (सुकृतस्य लोकम्) = पुण्य के प्रकाश को प्राप्त कराता है। २. 'पुरुषार्थ न करके ऋणी हो जाना' प्रथम पाप है और उस ऋण को न उतारना दूसरा। प्रभु हमें इन पापों से ऊपर उठाएँ। हमें पुण्य का प्रकाश प्राप्त हो।
भावार्थ
हम पुरुषार्थ से धनार्जन करते हुए अपने पोषण की व्यवस्था करें। कभी ऋण ले-भी लें तो उसे विश्वासपात्रतापूर्वक लौटानेवाले बनें। प्रभुकृपा से हम पुण्य के मार्ग का ही आक्रमण करें।
भाषार्थ
(अदीव्यन्) व्यापार न करता हुआ (महम्) मैं (यद् ऋणम्) जो ऋण (कृणोमि) करता हूं, लेता है (अग्ने) हे अग्नि! अग्रणी ! (अदास्यम्) जानता हुआ कि इसे वापिस न कर सकूंगा, फिर भी (संगृणामि) प्रतिज्ञा कर देता हूं [कि वापिस कर दूंगा], (वैश्वानरः) सब नर-नारियों का हित करने वाला ज्ञानाग्नि सम्पन्न (अधिपाः) सर्वाधिष्ठातृ रूप होकर पालक, (वसिष्ठः) सर्वत्रवासी परमेश्वर, (नः) हमें (सुकृतस्य लोकम्) सुकर्मियों के लोक को प्राप्त करने में (उन्नयाति) समुन्नत करे।
टिप्पणी
[आर्थिक कष्टापन्न व्यक्ति, निज आवश्यकता से बाधित होकर ऋण लेता है, और ऋण दाता के प्रति प्रतिज्ञा करता है कि मैं ऋण राशि को वापिस कर दूंगा, यद्यपि वह जानता है कि शायद मैं वापिस न कर सकूं, ऐसी परिस्थिति में वह परमेश्वर से समुन्नति की आशा प्रकट करता है।]
विषय
ऋण और दोष का स्वीकार करना।
भावार्थ
(अहं) मैं (यद्) जो (ऋणम्) ऋण (अदीव्यन्) जूआ खेले बिना या बिना व्यसन-क्रीड़ा किये अपने आप कर लूं (उत) और (अदास्यन्) उसको न चुका कर भी (सं गृणाभि) देने की प्रतिज्ञा कर लूं तो हे (अग्ने) राजन् ! तू (वैश्वानरः) सब पुरुषों का हितकारी (वसिष्ठः) सब में वास करने वाला सब के भीतर समान रूप से आदर प्राप्त, (अधि-पाः) सब का स्वामी, राजा होकर (नः) हमें (सु-कृतस्य) पुण्य के लोक में (इत्) ही (उत् नयाति) ऊपर उठा ले। अर्थात् यदि कोई ऋण के कारण कैद पड़ा हो और वह ऋण जुआखोरी आदि बुरे काम से न हुआ हो तो उसको ऋण दे देने की सत्य प्रतिज्ञा कराके पुनः निरपराध के समान मुक्त कर दिया जाय।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अनृणकामः। कौशिक ऋषिः। अग्निर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom from Debt
Meaning
O light of life, Agni, if I borrow without any serious purpose or make a promise without the intention to keep it, then may Vaishvanara, impeller of humanity, all promotive ruler, most radiant haven of life, raise us from such low level to high excellence and action.
Subject
Vaisvanarognih
Translation
If I incur debt without gambling, and O adorable Lord, if I promise without intending to pay, may the benefactor of all men, the rehabilitator, the overlord, lead us up to the world of virtues.
Translation
O Self-refulgent God! Thou art Impeller of physical forces, the Master of the universe and the most Controlling Divinity. Please raise us to the status of excellence from this ordinary state. If I gaming not perform the duty towards may parents and offering not the oblations I resipiscently acknowledge to perform it.
Translation
The debt which I incur, not for gambling, and being unable to repay, acknowledge its payment, O King, the benefactor of all, the best, our sovereign, lift us into the realm of virtue.
Footnote
If a debtor is imprisoned for non-payment of debt, but promises, to repay it, the king should set him free believing in his word as a gentleman. Vaishwanar may refer to God as well.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यत्) (अदीव्यन्) व्यवहारम् अकुर्वन् (ऋणम्) (अहम्) (कृणोमि) करोमि (अदास्यन्) प्रतिदानम् अकरिष्यत् (अग्ने) हे सर्वज्ञ परमात्मन् (उत) अपि (संगृणामि) गॄ शब्दे। प्रतिजानामि (वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहित (नः) अस्मान् (अधिपाः) अधिकं पालयिता (वसिष्ठः) वसु−इष्ठन्। अतिश्रेष्ठः परमेश्वरः (इत्) एव (उन्नयाति) ऊर्ध्वं प्रापयेत् (सुकृतस्य) पुण्यकर्मणः (लोकम्) समाजम् ॥
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