अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 122/ मन्त्र 1
ए॒तं भा॒गं परि॑ ददामि वि॒द्वान्विश्व॑कर्मन्प्रथम॒जा ऋ॒तस्य॑। अ॒स्माभि॑र्द॒त्तं ज॒रसः॑ प॒रस्ता॒दच्छि॑न्नं॒ तन्तु॒मनु॒ सं त॑रेम ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । भा॒गम् । परि॑ । द॒दा॒मि॒ । वि॒द्वान् । विश्व॑ऽकर्मन् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ । अ॒स्माभि॑: । द॒त्तम् । ज॒रस॑: । प॒रस्ता॑त् । अच्छि॑न्नम् । तन्तु॑म् । अनु॑ । सम् । त॒रे॒म॒ ॥१२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं भागं परि ददामि विद्वान्विश्वकर्मन्प्रथमजा ऋतस्य। अस्माभिर्दत्तं जरसः परस्तादच्छिन्नं तन्तुमनु सं तरेम ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । भागम् । परि । ददामि । विद्वान् । विश्वऽकर्मन् । प्रथमऽजा: । ऋतस्य । अस्माभि: । दत्तम् । जरस: । परस्तात् । अच्छिन्नम् । तन्तुम् । अनु । सम् । तरेम ॥१२२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आनन्द की प्राप्ति करने का उपदेश।
पदार्थ
(प्रथमजाः) श्रेष्ठों में प्रसिद्ध, (विद्वान्) विद्वान् मैं (ऋतस्य) सत्य धर्म के (एतम्) इस (भागम्) सेवनीय व्यवहार को (विश्वकर्मन्) जगत् के रचनेवाले विश्वकर्मा परमेश्वर में (परि ददामि) समर्पण करता हूँ। (जरसः) बुढ़ापे से (परस्तात्) दूर देश में (अस्माभिः दत्तम्) अपने दिये हुए (अच्छिन्नम्) बिना टूटे (तन्तुम् अनु) फैले हुए [अथवा वस्त्र में सूत के समान सर्वव्यापक] परब्रह्म के पीछे-पीछे (सम्) यथावत् (तरेम) हम पार करें ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य अपने शुभ कर्मों को परमात्मा में समर्पण करके अजर अमर के समान तत्त्वज्ञान प्राप्त करके विद्यादान करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(एतम्) क्रियमाणम् (भागम्) भजनीयं व्यवहारम् (परि ददामि) समर्पयामि (विद्वान्) तत्त्वं जानन् (विश्वकर्मन्) अ० २।३४।३। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तिलोपः। जगत्कर्तरि परमात्मनि (प्रथमजाः) जनसनखन०। पा० ३।२।६७। इति जनी प्रादुर्भावे−विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। प्रथमेषु श्रेष्ठेषु जातः प्रादुर्भूतः (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (अस्माभिः) उपासकैः (दत्तम्) समर्पितं कर्म (जरसः) जरायाः सकाशात् (परस्तात्) अ० ४।१६।४। परस्मिन् दूरे देशे। यावज्जरा न भवेत् तावत्, इत्यर्थः (अच्छिन्नम्) अभिन्नम् (तन्तुम्) अ० २।१।५। विस्तीर्णम्। यद्वा। वस्त्रे सूत्रवत् सर्वव्यापकं ब्रह्म (अनु) अनुलक्ष्य (सम्) सम्यक् (तरेम) पारयेम ॥
विषय
नियम से अग्निहोत्र करना
पदार्थ
१. हे (विश्वकर्मन्) = ब्रह्माण्ड के निर्माता प्रभो! आप ही (प्रातस्य प्रथमजा:) = सत्य वेदवाणी का सृष्टि के आरम्भ में प्रादुर्भाव करनेवाले हैं। विद्वान् इस बात को जानता हुआ मैं (एतं भार्ग परिददामि) = इस अपने अर्जित धन के अंश को हविरूप से वायु आदि देवों के लिए देता हूँ। ये यज्ञ वेद के 'जरामर्य सत्र' हैं। इनसे तो जीवन में कभी छुटकारा होता ही नहीं। २. इसप्रकार (अस्माभिः दत्तम्) = हमारे द्वारा तो यह भाग दिया ही गया है और हमने देवऋण से अनृण होने का प्रयत्न किया है। अब (जरसः परस्तात्) = [देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा। तथा देहान्तासिरस्तत्र न मुह्यति] जरा के पश्चात्-दीर्घजीवन प्राप्त करके देहान्तर प्राप्त होने पर भी (अच्छिन्नं तुन्तम् अनु) = अविच्छिन्न पुत्र-पौत्रादिलक्षण सन्तान-तन्तु में अनुप्रविष्ट होकर [तायते कुलम् अनेनेति तन्तुः] (सन्तरेम) = यज्ञों द्वारा देवऋण को तैरनेवाले बनें, अर्थात् हमारे वंश में यह यज्ञ की परिपार्टी बनी ही रहे।
भावार्थ
भावार्थ-हम आजीवन अग्निहोत्र को अपनाते हैं। मृत्यु होने पर भी सन्तानों में अनुप्रविष्ट होकर इस देवऋण से अनृण होने का प्रयत्न करते हैं, अर्थात् हमारे वंश में यह यज्ञ अविच्छन्नरूप में चलता ही है।
भाषार्थ
(विश्वकर्मन्) हे विश्व के कर्त्ता ! तू (ऋतस्य) सत्यज्ञान का (प्रथमजाः) प्रथमजनयिता है, (विद्वान्) यह जानता हुआ (एतम् भागम्) इस भाग को (परिददामि) [तेरे नाम पर] मैं दान में देता हूं। (अस्माभिः) हम पारिवारिकजनों द्वारा (दत्तम्) दिया गया यह भाग, (अरसः परस्तात्) हमारी जरावस्था के पश्चात् भी, (अच्छिन्नम्, तन्तुम्) न करें तानों के विस्तार रूप में रहे, (अनु) तत्पश्चात् (सं तरेम) हम सब दाता, भवसागर तैर जाय।
टिप्पणी
[परिवार की आमदनी का एक निश्चित भाग, परिवार का मुखिया दान रूप में देता है, और परमेश्वर के नाम पर गुप्तरूप में देता है, निजनाम प्रकाशित नहीं करता। यह सात्विक दान है। जरावस्था के पश्चात् भी शेष पारिवारिकजन अच्छिन्नरूप में दान देने की पारिवारिक प्रथा को जारी रखते हैं, और जरापन्न व्यक्ति गृहत्याग कर या गृह में ही रहते हुए, मोक्ष साधक जीवन चर्या कर, भवसागर से तैर जाने के अभिलाषी हैं।]
विषय
देवयान, पितृयाण और मोक्ष प्राप्ति।
भावार्थ
हे (विश्वकर्मन्) परमात्मन् ! समस्त विश्व= जगत् के बनाने वाले जगदीश्वर ! तू (ऋतस्य) ऋत= सत्यज्ञान अथवा इस गतिमान् जगत् के भी (प्रथमजाः) प्रथम-पूर्व ही तू उसके मूलकारण रूप से विद्यमान रहता है ! (विद्वान्) इस प्रकार जानता हुआ मैं मुमुक्षु (एतं भागम्) इस शरीर भाग को भी (परि ददामि) तेरे ही प्रति अर्पण करता हूँ ! (अस्माभिः) हम लोगों द्वारा (जरसः परस्तात्) जरा, बुढ़ापे के बाद, (दत्तम्) तेरे प्रति अर्पण किये इस (अच्छिन्नम्) विच्छेद रहित, अमर, अविनाशी (तन्तुम्) व्यापक यज्ञरूप, प्राणमय आत्मा की (अनु) निरन्तर खोज में (सं तरेम) भली प्रकार लग कर उसको प्राप्त हों, इस भवसागर को तर जायें। अथवा (जरसः परस्तात् दत्तं अच्छिन्नं तन्तुं अनु संतरेम) संसार में दिये, कभी न टूटने वाले सन्तान रूप प्राकृतिक तन्तु = सिलसिले द्वारा हम वार्धक्य के बाद संतरण करें, भवसागर से तरें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्ऋषिः विश्वकर्मा देवता। १-३ त्रिष्टुभः, ४-५ जगत्यौ। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Holy Matrimony
Meaning
O Vishvakarma, lord creator, divine architect of the universe, you are the first manifest cause of cosmic life and law of evolution of the world of existence. Knowing this I dedicate this life’s part of my performance of Dharma to you. Pray bless us that we may complete the journey of our life by the unbroken contintuity of our yajnic performance beyond old age to the full and maintain our link with Divinity and the Divine Law.
Subject
Visvakarma
Translation
O Lord of all actions (universal architect), (knowing that) you are: the first ordainer of the eternal law, | offer this portion (of mine) to you. Beyond old age, may we go across following the unbroken line of what we have given.
Translation
I knowing all the aspects of yajna, offer my this portion in the Yajna, to obey the command of Vishvakarman, the Creator of the Universe who is the primordial ordainer and creator of the eternal law. So we follow and strictly adhere to the end unbroken beyond old age, the performance and expansion of yajna.
Translation
O God, the Maker of the universe, Thou art the Primordial Cause of true knowledge. Knowing this, I, am aspirant after salvation deliver this body unto Thee In our search beyond old age, let us fully realize the true nature of this immortal soul dedicated unto Thee by us, the devotees!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(एतम्) क्रियमाणम् (भागम्) भजनीयं व्यवहारम् (परि ददामि) समर्पयामि (विद्वान्) तत्त्वं जानन् (विश्वकर्मन्) अ० २।३४।३। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तिलोपः। जगत्कर्तरि परमात्मनि (प्रथमजाः) जनसनखन०। पा० ३।२।६७। इति जनी प्रादुर्भावे−विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इत्यात्वम्। प्रथमेषु श्रेष्ठेषु जातः प्रादुर्भूतः (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (अस्माभिः) उपासकैः (दत्तम्) समर्पितं कर्म (जरसः) जरायाः सकाशात् (परस्तात्) अ० ४।१६।४। परस्मिन् दूरे देशे। यावज्जरा न भवेत् तावत्, इत्यर्थः (अच्छिन्नम्) अभिन्नम् (तन्तुम्) अ० २।१।५। विस्तीर्णम्। यद्वा। वस्त्रे सूत्रवत् सर्वव्यापकं ब्रह्म (अनु) अनुलक्ष्य (सम्) सम्यक् (तरेम) पारयेम ॥
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